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शिक्षा सुधार की हर कोशिश ‘भगवाकरण’ नहीं होती

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भारत सरकार में 2009 में जब मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दूसरा मंत्रिमंडल गठित हुआ, शिक्षा में गुणात्मक विकास और व्यापक विस्तार के लिए शिक्षा संस्था और विद्यार्थी का एक मानक निर्धारित किया। इस मानक के अनुसार जिन शिक्षा संस्थाओं में विज्ञान, गणित, भाषा और सामाजिक विज्ञान की पढ़ाई नहीं होगी, उन ”विद्यालयों” और न पढ़ने वाले ”छात्रों” को विद्यार्थी की श्रेणी में शामिल नहीं माना जायेगा। इसका यह तात्पर्य नहीं कि जो संस्थाएं केवल मजहबी या कर्मकांडी शिक्षा दे रही हैं, उन्हें बंद कर दिया जायेगा। इस मानक निर्धारण के पीछे उद्देश्य था विद्यार्थियों को आधुनिकता का ज्ञान कराना। इस्लामी शिक्षा देने के लिए मदरसा नाम से जो संस्थाएं चल रही हैं इस नियम से अधिक प्रभावित होंगी, यह स्वाभाविक था। यद्यपि प्रगतिशील विचार वाले लोगों ने इसका स्वागत किया और बहुत से मदरसों में आज इन विषयों को पढ़ाया जाने लगा है लेकिन अधिसंख्य मदरसे ऐसे हैं जो अभी रूढि़वादी ही बने हुए हैं और उनकी रूढिवादिता को बनाए रखने के उपक्रम में जो लगे हैं उनका मुस्लिम समुदाय में प्रभाव होने के कारण वोट बैंक की राजनीति से सत्ता में बने रहने की रणनीति अपनाने वाले दलों की सरकारों ने इस नीति को लागू करने में कोई अभिरूचि नहीं ली।

thमहाराष्ट्र की फडनवीस सरकार ने इस नीति के अनुरूप राज्य की शिक्षा संस्थाओं और विद्यार्थियों का सर्वेक्षण कराने का फैसला किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य में कितने विद्यार्थी हैं। महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना गठबंधन की सरकार है। इसलिए उसके प्रत्येक कदम को ”भगवाकरण” के रूप में देखने और शोर मचाने का सिलसिला शुरू हो जाना स्वाभाविक है। हुआ भी वही। और तो और जिस कांग्रेस की सरकार ने यह नीति बनाई थी वह भी ”भगवाकरण” के आरोप के साथ कूद पड़ी। आजकल मुस्लिम समुदाय में अपना स्थान पहला रखने की होड़ चल रही है। इसके लिए जैसे 1947 के पूर्व कांग्रेस के प्रत्येक निर्णय को मुस्लिम लीग ”हिन्दूकरण” के रूप में देखती थी वैसे ही भाजपा सरकार के हर कदम में भगवाकरण की छाया देखने वाले नेता पैदा हो गए हैं। इनमें आजकल सबसे ज्यादा सक्रिय है मुत्तहिदाइत्तिहादुल मुसलमीन के नायक असदुद्दीनओवैसी। उन्होंने महाराष्ट्र सरकार द्वारा सर्वेक्षण कराए जाने को मदरसों के भगवाकरण का आरोप लगाते हुए, हर स्तर पर उसका विरोध करने की घोषणा कर दी है और कुछ रूढि़वादी मठाधीश उनके स्वर में स्वर मिला रहे हैं।

मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए गठित चाहे सच्चर समिति रही हो या रंगनाथ मिश्र कमीशन, या अन्य अध्ययन सभी का एक समान आकलन है कि मुस्लिम समुदाय में बच्चों को आधुनिक शिक्षा पाने से दूर रखने की प्रवृत्ति इसका सबसे बड़ा कारण है। बच्चे अरबी या फारसी में कुरान तथा अन्य इस्लाम सम्बन्धी पुस्तकों को कंठस्थ तो कर लेते हैं लेकिन मुल्ला या मौलवी बनने के अलावा उनको कोई और रोजगार नहीं मिल पाता। वैदिक कर्मकांड का अध्ययन कराने वाली कुछ शिक्षा संस्थाओं से पुरोहित तो निकल रहे हैं लेकिन उन्हें किन्हीं अन्य रोजगार में जाने का अवसर नहीं मिल रहा है। इन्हीं तथ्यों का संज्ञान लेकर प्रारम्भिक शिक्षा में उपरोक्त विषयों को शामिल कर शिक्षा संस्था और छात्रों की पहचान का मानक बनाया गया। इस मानक का यह उद्देश्य नहीं है कि जो संस्था इन विषयों को नहीं पढ़ायेगी उन्हें बंद कर दिया जायेगा। फिर भी महाराष्ट्र सरकार के अभियान का मुखरित विरोध ”मदरसों पर कब्जा” के भयदोहन के साथ शुरू हो गया है। इनमें ओवैसी जैसे वे मुसलमान भी शामिल हैं जिन्होंने देश ही नहीं विदेश जाकर भी आधुनिक शिक्षा प्राप्त की है।

यह प्रयास ठीक उसी प्रकार है जैसे मुस्लिम लीग का नेतृत्व संभालने वाले मोहम्मद अली जिन्ना ने किया था। जिन्हें उर्दू नहीं आती थी और ना ही वह इस्लामी कर्मकांड करते थे और पाश्चात्य जीवन शैली में रहना पसंद करते थे, लेकिन बाद में रूढि़वादिता के प्रवर्तक बन गए थे। आज कल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का बहुत नाम है वह अपने परिसर का विस्तार भी कर रही है। सर सैय्यदअहमद खां की दूरदर्शिता का ही यह परिणाम है कि शिक्षा, चिकितसा, विज्ञान तथा प्रशासनिक सेवा में यहां से निरंतर निकलने वाले युवकों का योगदान बढ़ रहा है। इस विश्वविद्यालय ने मुसलमानों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। जैसे आज मदरसों में आधुनिक विषयों के समावेश का विरोध हो रहा है, वैसा ही विरोध सर सैय्यदअहमद खां का भी हुआ था। उन्हें गाजीपुर जहां उन्होंने पहला प्रयास किया था, पलायन करना पड़ा। मोहम्मद अली जिन्ना की जीवन शैली में रहने वालों की समझ अभी भी है कि वे तभी तक ‘नेता’ रहेंगे जब तक मुस्लिम समुदाय अंधविश्वास में डूबा रहेगा। इसलिए उन्हें मुख्यधारा से दूर रखो। एक बार वह मुख्यधारा में आ गया, तो उनकी पकड़ से निकल जायेगा और उनकी दुकानें बंद हो जायेगी।

मदरसों में आधुनिक शिक्षा का विरोध करने वालों का तर्क है कि संविधान में अल्पसंख्यकों को जो मौलिक अधिकार दिए गए हैं, सरकार का कदम उसमें दखलंदाजी है। यद्यपि महाराष्ट्र सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जो मदरसे अपने ढर्रे पर चलना चाहते हैं, वे चलें। सरकार उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी, लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने संस्था और छात्र का जो मानक निर्धारित किया है, उसमें उनका समावेश नहीं होगा। यह मदरसों या वैदिक कर्मकांड सम्बन्धी शिक्षा देने वाली दोनों या सभी प्रकार की ऐसे संस्थाओं पर लागू होता है। इस प्रसंग ने एक और तथ्य पर विचार करने की प्रेरणा दी है। क्या अज्ञान में रहने को मौलिक अधिकार माना जायेगा? क्या पिछड़े रहने, लकीर के फकीर बने रहने, सामाजिक समरसता से दूर रहने को मौलिक अधिकार माना जायेगा।

जिस प्रकार मुस्लिम लीग कांग्रेस के प्रत्येक निर्णय को हिन्दुत्ववादी होने का फतवा देकर मुसलमानों में पृथकता उभारकर बंटवारा कराने में सफल रही, उसी प्रकार भाजपा सरकार के प्रत्येक निर्णय को ”भगवाकरण” घोषित करने की होड़ से मुसलमानों का भयदोहन किया जा रहा है। आश्चर्य तो यह है कि शिक्षा संस्था और छात्र का जो मानक स्वयं कांग्रेस की सरकार ने निर्धारित किया था, अब उसका खुद कांग्रेस ही विरोध कर रही है। यह विरोधी प्रभावकारी नहीं हो पायेगा। इसमें संदेह नहीं है लेकिन इस प्रसंग की चर्चा में ”अंधकार में रहने” के मूल अधिकार का जो मुद्दा उभरा है, वह अवश्य ही चिंता का कारण होना चाहिए, विशेषकर मुस्लिम समुदाय के लिए। जिसकी पहचान वोट बैंक से बाहर नहीं हो पा रही है। उससे बाहर निकलना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए।

राजनाथ सिंह ‘सूर्य’

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