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जनसंख्यकीय असंतुलन और भारतीयता का भविष्य – 1

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जयराम शुक्ल

स्वतंत्रता प्राप्ति के पाँच वर्ष पश्चात ही एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता और अन्त्योदय के विचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने चेताया था कि निकट भविष्य में भारत में रहने वाले मुसलमान खुलकर पाकिस्तान के प्रति अपने भाव व्यक्त करने लगेंगे, ऐसी स्थिति किसी भी सरकार के लिए असहज होगी.

इन दिनों समान नागरिक संहिता कानून को लेकर विमर्श चल रहा है. इसे लेकर मुस्लिम व मुस्लिम परस्त बौद्धिकों को लेकर लगभग वैसे ही प्रतिक्रियाएं आ रही हैं जैसे कि कश्मीर से धारा 370 हटाने के पूर्व आईं थीं. अधिसंख्य मुसलमानों के मन में भारत को लेकर क्या धारणा है, इसे जरा दो वर्ष  पुरानी परिघटना के बरक्स देखें.

24 अक्तूबर, 2021 को टी-ट्वंटी क्रिकेट मैच में भारत पर पाकिस्तान की जीत के बाद जम्मू-कश्मीर, उत्तरप्रदेश सहित कई राज्यों से पाकपरस्तों की जो प्रतिक्रियाएं उभर कर आईं और उस पर पाकिस्तान के मंत्री शेख रसीद ने भारत पर इस्लाम की विजय का वक्तव्य जारी किया था. उससे पं. उपाध्याय जी की चेतावनी और भी गंभीर हो जाती है.

दो वर्ष पूर्व विजयादशमी प्रबोधन पर सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने अपने बौद्धिक में जनसंख्या के बढ़ते असंतुलन को लेकर जो चिंता व्यक्त की थी, उसका मूल सिरा भविष्य के इसी खतरे के साथ जुड़ा हुआ है. देश के एक वर्ग की स्थिति रेगिस्तान के शतुरमुर्ग की भाँति है जो आँधी के समय रेत में सिर छुपाकर स्वयं को सुरक्षित मान लेता है.

जिस बात का खतरा है…

1952 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अखंड भारत क्यों…? के शीर्षक से लिखे लेख में कहा था – “कल तक जो काम मुस्लिम लीग एक संस्था के रूप में करती थी, आज वही कार्य पाकिस्तान एक स्टेट के रूप में कर रहा है. निश्चित ही समस्या का परिवर्तित स्वरूप अधिक खतरनाक है. पाकिस्तान के निर्माण में सहायक भारतवासी मुसलमानों की साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को भी पाकिस्तान से बराबर बल मिलता रहता है तथा भारत के राष्ट्रीय क्षेत्र में साढ़े तीन करोड़ (आज की स्थिति में साढ़े 17 करोड़) मुसलमानों की गतिविधि किसी भी सरकार के लिए शंका का कारण बनी रहेगी.”

पं. उपाध्याय ने भारत से काटकर पाकिस्तान के निर्माण के बाद भविष्य की आसन्न चुनौतियों का गहन शोधात्मक आंकलन किया था..जो “अखंड भारत क्यों.?” नाम की पुस्तिका के रूप में छपा था. 68 साल पहले कही गईं बातों का असली रूप अब ऐसे मौकों पर प्रायः उभरकर दिखने लगता है, खासतौर पर जब पाकिस्तान और इस्लामिक चरमपंथ की बात होती है. इसके अलावा भी चाहे बात कश्मीर के आतंकवादियों की हो, फलस्तीन के हमास, अफगानिस्तान के तालिबान या अलकायदा की या फिर क्रिकेट ही क्यों न, इनके चेहरों से पलस्तर उधड़कर नग्न रूप सामने आ जाता है.

24 अक्तूबर को दुबई में खेले गए टी-20 क्रिकेट मैच में भारत पर पाकिस्तान की विजय के बाद देशभर में जहां-तहाँ मुस्लिम युवाओं ने पटाखे फोड़कर खुशियां व्यक्त कीं. कश्मीर के एक महाविद्यालय के छात्रों ने खुलकर जश्न मनाया, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए.

हो सकता है कि देश में रह रहे 17 करोड़ मुसलमानों में से यह संख्या अल्प है. लेकिन इस संख्या के साथ मूक सहमति का आँकलन करना लगभग वैसे ही है, जैसे भूगर्भ में सक्रिय ज्वालामुखी का स्पष्ट अंदेशा लगाना. ये छात्र और युवा उसी घर-समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनसे देश ऐसे मौकों पर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की अपेक्षा करता है.

पं. दीनदयाल उपाध्याय ने पाकिस्तान जाने का विकल्प न चुनने वाले मुसलमानों को लेकर जो आशंका व्यक्त की थी, पाकिस्तान के एक मंत्री शेख रसीद ने उसकी सत्यता पर यह कहते हुए अपनी मुहर लगा दी कि – “दुनिया के मुसलमान सहित हिन्दुस्तान के मुसलमानों के जज्बात पाकिस्तान के साथ हैं. इस्लाम को फतह मुबारक हो. पाकिस्तान जिन्दाबाद.”

शेख रसीद के इस वक्तव्य पर भारत के किसी बौद्धिक मुसलमान का कोई प्रतिवाद नहीं आया. जबकि यही लोग कश्मीर के हर आतंकवादी को निर्दोष और मासूम बता देने में एक मिनट का भी वक्त जाया नहीं करते. और उन कथित मानववादी विचारकों के बारे में क्या कहना जो संसद हमले, मुंबई विध्वंस के गुनहगारों अफजल गुरु और मोहम्मद कसाब की सजामुक्ति को लेकर हस्ताक्षर अभियान चलाते हैं. बहरहाल क्रिकेट प्रकरण को वैसी ही एक बानगी समझिए जैसी कि जेएनयू जैसे शैक्षणिक संस्थानों में भारत तेरे टुकड़े होंगे..इंशाअल्लाह.. इंशाअल्लाह.

इससे ज्यादा गंभीर खतरा उस रणनीति का है जो जनसंख्यकीय बल के आधार पर निकट भविष्य में देश पर प्रभुत्व जमाने का मंसूबा पाले हुए है.

जनसंख्यकीय असंतुलन का यथार्थ

विजयादशमी के महत्वपूर्ण उद्बोधन में उन्होंने तथ्यों और आँकड़ों के साथ जनसंख्या में असंतुलन और उससे जुड़े खतरे को लेकर नीति नियंताओं को सचेत किया और समय रहते सर्वव्यापी, सर्वसमावेशी नीति तैयार कर सभी नागरिकों पर समभाव से लागू करने की बात की. कहा – “देश में जनसंख्या नियंत्रण हेतु किये विविध उपायों से पिछले दशक में जनसंख्या वृद्धि दर में पर्याप्त कमी आयी है, लेकिन 2011 की जनगणना के पांथिक आधार (Religious ground) पर किये गये विश्लेषण से विविध संप्रदायों की जनसंख्या के अनुपात में जो परिवर्तन सामने आया है, उसे देखते हुए जनसंख्या नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता प्रतीत होती है. विविध सम्प्रदायों की जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर, अनवरत विदेशी घुसपैठ व मतांतरण के कारण देश की समग्र जनसंख्या विशेषकर सीमावर्ती क्षेत्रों की जनसंख्या के अनुपात में बढ़ रहा असंतुलन देश की एकता, अखंडता व सांस्कृतिक पहचान के लिए गंभीर संकट का कारण बन सकता है.

विश्व में भारत उन अग्रणी देशों में से था, जिसने 1952 में ही जनसंख्या नियंत्रण के उपायों की घोषणा की थी, परन्तु सन् 2000 में जाकर ही वह एक समग्र जनसंख्या नीति का निर्माण और जनसंख्या आयोग का गठन कर सका. इस नीति का उद्देश्य 2.1 की ‘सकल प्रजनन-दर’ की आदर्श स्थिति को 2045 तक प्राप्त कर स्थिर व स्वस्थ जनसंख्या के लक्ष्य को प्राप्त करना था. ऐसी अपेक्षा थी कि अपने राष्ट्रीय संसाधनों और भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रजनन-दर का यह लक्ष्य समाज के सभी वर्गों पर समान रुप से लागू होगा. परन्तु 2005-06 का राष्ट्रीय प्रजनन एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण और सन् 2011 की जनगणना के 0-6 आयु वर्ग के पांथिक आधार पर प्राप्त आँकड़ों से ‘असमान’ सकल प्रजनन दर एवं बाल जनसंख्या अनुपात का संकेत मिलता है. यह इस तथ्य में से भी प्रकट होता है कि वर्ष 1951 से 2011 के बीच जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर के कारण देश की जनसंख्या में जहाँ भारत में उत्पन्न मतपंथों के अनुयायियों का अनुपात 88 प्रतिशत से घटकर 83.8 प्रतिशत रह गया है, वहीं मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 9.8 प्रतिशत से बढ़ कर 14.23 प्रतिशत हो गया है.

इसके अतिरिक्त, देश के सीमावर्ती प्रदेशों तथा असम, पश्चिम बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में तो मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है, जो स्पष्ट रूप से बांग्लादेश से अनवरत घुसपैठ का संकेत देता है. माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त उपमन्यु हाजरिका आयोग के प्रतिवेदन एवं समय-समय पर आए न्यायिक निर्णयों में भी इन तथ्यों की पुष्टि की गयी है. यह भी एक सत्य है कि अवैध घुसपैठिये राज्य के नागरिकों के अधिकार हड़प रहे हैं तथा इन राज्यों के सीमित संसाधनों पर भारी बोझ बन सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक तथा आर्थिक तनावों का कारण बन रहे हैं.

पूर्वोत्तर के राज्यों में पांथिक आधार पर हो रहा जनसांख्यिकीय असंतुलन और भी गंभीर रूप ले चुका है. अरुणाचल प्रदेश में भारत में उत्पन्न मत-पंथों को मानने वाले जहाँ 1951 में 99.21 प्रतिशत थे, 2001 में 81.3 प्रतिशत व 2011 में 67 प्रतिशत ही रह गए हैं. केवल एक दशक में ही अरूणाचल प्रदेश में ईसाई जनसंख्या में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसी प्रकार मणिपुर की जनसंख्या में इनका अनुपात 1951 में जहाँ 80 प्रतिशत से अधिक था, वह 2011 की जनगणना में 50 प्रतिशत ही रह गया है. उपरोक्त उदाहरण तथा देश के अनेक जिलों में अस्वाभाविक वृद्धि दर कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा एक संगठित एवं लक्षित मतांतरण की गतिविधि का ही संकेत देती है.

2015 में राँची में सम्पन्न अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की प्रतिबद्धता का स्मरण कराते हुए कहा था कि कार्यकारी मंडल इन सभी जनसांख्यिकीय असंतुलनों पर गम्भीर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार से आग्रह करता है कि –

  1. देश में उपलब्ध संसाधनों, भविष्य की आवश्यकताओं एवं जनसांख्यिकीय असंतुलन की समस्या को ध्यान में रखते हुए देश की जनसंख्या नीति का पुनर्निर्धारण कर उसे सब पर समान रूप से लागू किया जाए.
  2. सीमा पार से हो रही अवैध घुसपैठ पर पूर्ण रूप से अंकुश लगाया जाए. राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (National Register of Citizens) का निर्माण कर इन घुसपैठियों को नागरिकता के अधिकारों से तथा भूमि खरीद के अधिकार से वंचित किया जाए.

इन विषयों के प्रति जो भी नीति बनती हो, उसके सार्वत्रिक संपूर्ण तथा परिणामकारक क्रियान्वयन के लिये अमलीकरण के पूर्व व्यापक लोकप्रबोधन तथा निष्पक्ष कार्यवाई आवश्यक रहेगी. सद्यस्थिति में असंतुलित जनसंख्या वृद्धि के कारण देश में स्थानीय हिन्दू समाज पर पलायन का दबाव बनने की, अपराध बढ़ने की घटनाएं सामने आयी हैं.

पश्चिम बंगाल में चुनाव के बाद हुई हिंसा में हिन्दू समाज की जो दुरावस्था हुई उसका, शासन प्रशासन द्वारा हिंसक तत्वों के अनुनय के साथ वहां का जनसंख्या असंतुलन यह भी एक कारण था. इसलिए यह आवश्यक है कि सब पर समान रूपसे लागू हो सकने वाली नीति बने. अपने छोटे समूहों के संकुचित स्वार्थों के मोहजाल से बाहर आकर सम्पूर्ण देश के हित को सर्वोपरि मानकर चलने की आदत हम सभी को करनी ही पड़ेगी.

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