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पुस्तक समीक्षा – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र

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संघ सृष्टि में रचे-बसे लेखक की अनुभूति

समीक्षक – लोकेन्द्र सिंह

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष की ओर कदम बढ़ा रहा है। ऐसे में सामान्य लोगों से लेकर बौद्धिक जगत में संघ को लेकर गहरी रुचि और जिज्ञासा दिखायी दे रही है। संघ के संबंध में अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिन्हें लेखकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से लिखा है। इस शृंखला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक सुनील आंबेकर की पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र’ अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। जब संघ की सृष्टि में रचा-बसा लेखक कुछ लिखता है, तब उसे पढ़कर संघ को ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। यह एक ऐसी पुस्तक है, जो लेखक की प्रत्यक्ष अनुभूति के साथ विकसित हुई है।

संघ की यात्रा और विभिन्न मुद्दों पर संघ का दृष्टिकोण बताते हुए सुनील आंबेकर अपनी संघ यात्रा को भी रेखांकित करते हैं। यह प्रयोग संघ को व्यवहारिक ढंग से समझने में हमारी सहायता करता है। वह मनोगत में लिखते हैं कि यह पुस्तक उनके लिए है जो व्यवहार रूप में संघ को समझना चाहते हैं, उसके माध्यम से जिसने संघ को जिया है।

‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र’ अपने पाठकों को न केवल संघ की बुनियादी जानकारी देती है, अपितु ‘भविष्य के भारत’ को लेकर संघ की क्या सोच है, उस पर भी यह पुस्तक बात करती है। पुस्तक के प्रारंभिक अध्यायों में संघ की स्थापना की पृष्ठभूमि पर चर्चा है। संघ की स्थापना के उद्देश्य, उसकी आवश्यकता और उसकी कार्यप्रणाली को ठीक प्रकार से समझना है, तब हमें संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जीवन चरित्र अवश्य पढ़ना और जानना चाहिए। पुस्तक में भी यह उल्लेख एक से अधिक स्थानों पर आया है। डॉक्टर साहब क्रांतिकारी संगठनों में रहे, कांग्रेस में भी सक्रिय रहे। वे नागपुर में कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। डॉक्टर साहब के पास सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्र का समृद्ध अनुभव था, उसी में से उनके हृदय में संघ बीज का प्रस्फुटन हुआ।

सुनील जी लिखते हैं कि “डॉक्टर साहब का मानना था कि भारत की गुलामी का कारण केवल विदेशी ताकतें नहीं हैं, जिन्होंने आक्रमण किए। अपितु आंतरिक कलह और मतभेद भी कारण रहे हैं। एक ऐसे स्थान की आवश्यकता थी, जहाँ सब बड़े-छोटे या अन्य लोग किसी भी प्रकार के भेदभाव को भूलकर संवाद कर सकें। इसी विचार ने आगे चलकर शाखा की संकल्पना को जन्म दिया”। समर्थ गुरु रामदास और छत्रपति शिवाजी महाराज के चरित्र से समाज को संगठित करने का पाठ सीखकर डॉक्टर हेडगेवार ने एक ऐसे संगठन का निर्माण किया, जो व्यक्ति केंद्रित नहीं, अपितु तत्व उसके मूल में है।

‘संघ की मूल अवधारणाएं’ बताते हुए लेखक सुनील जी लिखते हैं – “जिन मूल केंद्रीय अवधारणाओं से संघ के विचार का जन्म हुआ, ये हैं – राष्ट्रीयता, एकात्मता और सामूहिकता”। “संघ के साथ जितना मेरा अनुभव रहा है, मुझे लगता है कि यह सामंजस्य, विश्वास एवं पारस्परिक आदर का भाव स्थापित करने वाली और एकत्व स्थापित करने वाली एक शक्ति है”। पुस्तक में अन्य स्थानों पर भी संघ की मूल अवधारणाओं की व्याख्या की गई है, उन्हें अलग-अलग ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है। संघ के बारे में एक बात सबको समझनी चाहिए कि यह कोई जड़ संगठन नहीं है। समाज के साथ बहने वाला जीवंत संगठन है, जो देश-काल-परिस्थिति के अनुसार समाज हित में अपने दृष्टिकोण को विस्तार देता है। लेकिन संघ की मूल अवधारणाएं स्थायी हैं, उनमें परिवर्तन स्वीकार्य नहीं है। जैसे- राष्ट्रीयता को लेकर संघ का स्पष्ट मत है कि यह देश ‘हिन्दू राष्ट्र’ है, संघ इसी अवधारणा के साथ जन्मा और उसी को लेकर आजतक चल रहा है। इस संबंध में पूर्व सरसंघचालक बालासाहब देवरस को उल्लेखित करते हुए वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी कहते हैं – “जब हमसे पूछा जाता है कि यह कैसे हुआ, वह कैसे हुआ? हमने पहले वैसा कहा था, अब ऐसा क्यों कह रहे हैं? इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देते हुए बालासाहब ने कहा था कि देखो भाई, हिन्दुस्थान हिन्दू राष्ट्र है, इस एक बात को छोड़कर बाकी सब बदल सकता है, क्योंकि हिन्दुस्थान हिन्दू राष्ट्र है यह किसी के दिमाग की उपजी हुई बात नहीं है।

संघ की शाखा क्या है, संघ किस प्रकार काम करता है, संगठन की रचना किस प्रकार की है? ये ऐसे प्रश्न हैं, जो उन सबके मन में रहते हैं जो संघ को समझना चाहते हैं। इस सबका उत्तर पुस्तक में मिलता है। आजकल बहुत से नेता एवं तथाकथित बुद्धिजीवी भ्रम का वातावरण बनाने के लिए और संघ के प्रति लोगों के मन में संदेह पैदा करने के कपटपूर्ण उद्देश्य से एक प्रश्न उछालते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन में संघ का क्या योगदान रहा है? इसका भी तथ्यपूर्ण उत्तर पुस्तक में मिलेगा। बहुत कम लोग हैं जो यह जानते हैं कि संघ का स्वयंसेवक बनने के बाद स्वयंसेवक एक प्रतीज्ञा करते हैं और उसे बार-बार स्मरण करते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व उस प्रतिज्ञा में एक पंक्ति आती थी – मैं हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए संघ का स्वयंसेवक बना हूँ। अब चूँकि स्वतंत्रता मिल गई तो ‘हिन्दू राष्ट्र की स्वाधीनता’ का स्थान ‘हिन्दू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति’ ने ले लिया। यह एक पंक्ति-एक तथ्य ही, एक अदने से प्रश्न का विराट उत्तर है। इसके बाद भी अन्य तथ्य हमारे सामने पुस्तक में आते हैं, जो बताते हैं कि संघ के स्वयंसेवक न केवल आंदोलन में शामिल रहे, अपितु उन्होंने बलिदान भी दिया। जेल की सजा भी काटी। जब पहली बार कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया, तब संघ ने अपनी सभी शाखाओं पर 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाने और प्रभात फेरी निकालने का निर्णय लिया।

कुछ मूढ़मति हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व की मनमानी व्याख्याएं करते हैं। यह लोग हिन्दुत्व को संघ की उपज मानकार, संघ को खारिज करने के साथ-साथ एक नैसर्गिक चिंतन ‘हिन्दुत्व’ को भी खारिज करने की कोशिश करते हैं। पांचवे अध्याय ‘हिन्दुत्व का पुनरोदय’ में लेखक ने इस पर विस्तार से चर्चा की है। वह लिखते हैं कि हिन्दुत्व शब्द का सर्वप्रथम उपयोग 1880 में चंद्रनाथ बसु ने किया, जो एक उप-न्यायाधिकारी एवं लेखक थे। ‘हिन्दुत्व’ नाम से 1892 में लिखी अपनी पुस्तक में बसु ने हिन्दू धर्म के अंतर्गत समाहित विभिन्न दर्शनों एवं राजनीतिक चिंतन का वर्णन किया है। यहाँ वह स्पष्ट करते हैं कि हिन्दुत्व शब्द संघ के चिंतन से नहीं जन्मा, बल्कि वह तो जीवन जीने की आदर्श पद्धति की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है। “संघ का विश्वास है कि हिन्दुत्व ज्ञान का ऐसा भंडार है, जिसमें विश्व के सामने मुँह बाए खड़ी सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरण संबंधी समस्याओं के समाधान के मंत्र हैं तथा भारत में व्याप्त अनेक कुरीतियों के उपचार विद्यमान हैं”।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिन्दुत्व राजनीति के लिए नहीं है, यह तो समूची मानवता के कल्याण के लिए है। इसके बाद भी यदि कोई हिन्दुत्व की गलत व्याख्याएं करता है, तब यही मानना चाहिए कि हिन्दू धर्म के प्रति उसके मन में मैल है।

कला-संस्कृति, इतिहास, राजनीति, हिन्दुत्व, जातिगत भेदभाव, सामाजिक न्याय, महिला सशक्तिकरण, वैश्विक मुद्दे-आंदोलन, पर्यावरण और परिवार जैसे ज्वलंत विषयों पर भी संघ के दृष्टिकोण को लेकर लेखक ने पुस्तक में पर्याप्त चर्चा की है। हम जानते हैं कि संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक भारत को परम-वैभव पर देखना चाहता है। वह प्रतिदिन संघ स्थान पर भगवा ध्वज के सामने खड़े होकर प्रार्थना को मंत्र रूप में गाता है और अपने इस संकल्प का घोष करता है। इस संकल्प का विस्तार ही सुनील आंबेकर की पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र’ है। यह पुस्तक मूल रूप में अंग्रेजी में ‘द आरएसएस : रोडमैप फॉर द 21 सेंचुरी’ नाम से प्रकाशित हुई थी, जिसके विमोचन अवसर पर बहुत ही सारगर्वित उद्बोधन सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी का हुआ था। उनका यह उद्बोधन हिन्दी अनुवाद में ‘प्रस्तावना’ के रूप में शामिल किया गया है।

संघ की संरचना और उसकी चिंतन प्रक्रिया को समझने में यह पुस्तक बहुत उपयोगी है।

(समीक्षक, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)

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