समीक्षक – डॉ. जयप्रकाश सिंह
भारतीय राजनीतिक चिंतन को आजकल प्राय: षाड्गुण्य नीति और उपाय चतुष्टय के संदर्भों में परिभाषित किया जाता है। कहीं-कहीं मण्डल सिद्धांत का उल्लेख भी मिल जाता है। लेकिन भारतीय राजनीतिक चिंतन का प्रारंभ जिस ‘विजिगीषु-वृत्ति’ से होता है, उसका उल्लेख कम ही होता है।
वास्तविकता यह है कि विजिगीषु-वृत्ति भारतीय राजनीतिक चिंतन का केंद्रीय तत्व रही है। राजनीतिक दर्शन हो, राजनीतिक प्रक्रिया हो अथवा राज-नीति हो, सभी के केंद्र में विजिगीषु-वृत्ति कार्य करती है। यदि किसी राजा अथवा राज्य में विजिगीषु वृत्ति नहीं है, धर्म स्थापना हेतु राज्य-विस्तार की इच्छा नहीं है, तो उसकी योग्यता को शून्य और उसकी अवनति को स्वाभाविक मान लिया जाता था। ऐसे राजा अथवा राज्य, राजनीतिक चिंतन की परिधि से बाहर थे। संभवतः इसी कारण विजिगीषु वृत्ति से विहीन हो चुके राजाओं के उबारने वाली किसी नीति का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता और न ही उनके कर्तव्यों के बारे में कोई संकेत मिलते हैं।
विजिगीषु-वृत्ति और उसकी विशेषताओं के विस्मरण के कारण, भारतीय राजनीतिक परंपरा की एक खंडित छवि तो बनी ही, इतिहास बोध और इतिहास-नायकों के आकलन का हमारा परिप्रेक्ष्य भी बहुत सीमित हो गया। शत्रुबोध का अभाव हो, न्याय-अन्याय का विचार किए बिना अहिंसा की चरम मूल्य के रूप में स्वीकृति हो अथवा दूरस्थ संकटों के प्रति अनभिज्ञता का भाव हो, इसका कारण विजिगीषु-वृत्ति का विस्मरण है।
इस परिप्रेक्ष्य में प्रो. ओमप्रकाश सिंह और डॉ. देवेन्द्र भारद्वाज द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी’ एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के रूप में आई है। यह पुस्तक विजिगीषु-वृत्ति के सशक्त प्रतीक शिवाजी महाराज का आकलन ऐसे व्यापक फलक में करती है, जिसमें सभ्यतागत लक्ष्यों के प्रति उनकी निष्ठा, अदम्य साहस, रणनीतिक नवाचार, दूरदर्शी शासन कला तो अधिक स्पष्ट रूप से तो सामने आती ही है। इससे भी बड़ी बात यह है कि शिवाजी महाराज के बहाने यह हमारे इतिहास बोध और राजनीति बोध को भारतीय धरातल पर उतारने की कोशिश करती है।
पुस्तक में छत्रपति शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व और शासनकाल के आकलन को औरंगजेब के प्रतिरोध तक सीमित नहीं रखा गया है। बल्कि उनकी युद्ध नीति, भाषा नीति, राजस्व व्यवस्था की विस्तृत चर्चा की गई है। पुस्तक में सम्मिलित शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप के जुड़ाव, कुलदेवी तुलजा भवानी के इतिहास और शिवाजी महाराज की अनन्य आस्था, पावनखिंड की दौड़, सशक्त नौसेना, शाही मुहर, शिवाजी महाराज द्वारा गणेशोत्सव की शुरुआत जैसे विषय विशेष रूप से आकर्षित करते हैं।
पुस्तक का एक अन्य महत्वपूर्ण आकर्षण छत्रपति शिवाजी महाराज से संबंधित संचारीय आयामों को विशेष रूप से रेखांकित करना है। महाकवि भूषण, उनकी ‘शिव बावनी’ के अतिरिक्त महानाट्य ‘जाणता राजा’ और उसके लेखक बाबा साहेब पुरन्दरे पर स्वतंत्र आलेख सम्मिलित कर लेखकों ने शिवाजी महाराज के संचारीय प्रभाव और साहित्यिक उपस्थिति को सामने लाने की विशेष कोशिश की है। दोनों लेखकों की संचारीय क्षेत्र में विशेषज्ञता के कारण पुस्तक का यह संचारीय पक्ष बहुत प्रभावी बन पड़ा है।
पुस्तक में शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक को भारतीय इतिहास के एक निर्णायक घटनाक्रम के रूप देखने का आग्रह दिखता है। रोचक बात यह है कि इस महत्व को स्थापित करने के लिए केवल राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण नहीं करते, बल्कि भारतीय राजनीतिक परम्परा और दर्शन को भी उद्धृत करते हैं – ‘हिन्दू शासन व्यवस्था में राजा को, शक्ति राजत्व से प्राप्त होती है। यह राजत्व संस्कारों से प्राप्त होता है। उस संस्कार की प्राप्ति इंद्राभिषेक अथवा राज्याभिषेक से होती है’। परम्परा के इस ज्ञान के कारण ही लेखक यह स्थापना दे पाते हैं कि ‘भारत के इतिहास में शिवाजी का राज्यारोहण चन्द्रगुप्त के सदृश हैं’।
शिवाजी की रणनीतिक दक्षता इतनी प्रबल थी कि वह किस्से- कहानियाँ बनकर अब भी लोक में व्याप्त है। शिवाजी महाराज अपनी वीरता और रणनीति के साथ अपनी तीक्ष्ण कूटनीति से भी विरोधियों को हतप्रभ कर देते थे। अफजल खान का वध, उनके रणनीतिक चातुर्य का प्रतीक बनकर इतिहास में स्थापित हो गया। वहीं उनकी कूटनीति के भी अनेकों उदाहरण हैं, जिनसे तत्कालीन भारतीय राजनीतिक और सांस्कृतिक समझ की बेहतरीन समझ और विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकलने की उनकी क्षमता का पता चलता है। ऐसा ही एक उदाहरण वह पत्र है, जिसमें शिवाजी महाराज ने औरंगजेब के जजिया कर का विरोध करते हुए लिखा था और यह चुनौती दी कि यदि उनमें हिम्मत है, तो महाराणा राजसिंह और उनकी प्रजा से जजिया कर लेकर दिखाएं।
इस पत्र में औरंगजेब को जजिया का विरोध करते हुए लिखते हैं -‘यदि आप लोगों को पीड़ित करने और हिन्दुओं को आतंकित करने को धार्मिकता समझते हैं तो सबसे पहले महाराणा राजसिंह, जो हिन्दुओं का नेतृत्व कर रहे हैं, के ऊपर जजिया कर लगाकर दिखाइए’। प्रश्न यह उठता है कि औरंगजेब से हर मोर्चे पर लगातार लड़ रहे छत्रपति शिवाजी महाराज ने महाराणा राजसिंह का नाम लेकर औरंगजेब को क्यों उकसा रहे थे, और इसके जरिए वह औरंगजेब तक क्या संदेश पहुंचाना चाह रहे थे। असल में महाराणा राजसिंह ने अपने जीवन में कई बार औरंगजेब को खुली चुनौती दी। औरंगजेब ने उन पर विजय प्राप्त करने के लिए कई अभियान चलाए, लेकिन वह किसी भी अभियान में सफल नहीं हुआ। अपने सीमित संसाधनों, लेकिन अपरिमित साहस के कारण वह औरंगजेब के विरोध और धर्मरक्षा के प्रतीक बन गए थे। अपने पत्र में शिवाजी महाराज ने कूटनीतिक ढंग से यह संदेश देने की कोशिश की थी कि भले ही दिल्ली की गद्दी पर कोई सुल्तान बैठा हो, लेकिन हिन्दू उसे अपना शासक नहीं मानते। पुस्तक में उनकी रणनीतिक दक्षता और नवाचार के अन्य उदाहरण प्रामाणिक ढंग से उल्लिखित हैं।
कुल मिलाकर यह पुस्तक भारतीय विजिगीषु-वृत्ति के सशक्त प्रतीक का स्मरण है। और यह स्मरण औपनिवेशिक इतिहास-बोध और राजनीति-बोध को संतुलित और सम्यक बनाने का एक आधार भी उपलब्ध कराता है। प्रो. ओमप्रकाश सिंह की संचार सिद्धांत को भारतीय धरातल उपलब्ध कराने के लिए पहले से ही ख्याति है। इस नई पुस्तक के माध्यम से वह और डॉ. देवेन्द्र भारद्वाज भारतीय इतिहास बोध को परिष्कृत कर पाएंगे, इसकी पूरी संभावना दिखती है। अमृतकाल में अपनी वास्तविक पहचान के संधान के लिए व्यग्र प्रत्येक भारतीय के लिए यह पुस्तक अवश्य रूप से पठनीय है।
पुस्तक – हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी
लेखक – प्रो. ओमप्रकाश सिंह और डॉ. देवेन्द्र भारद्वाज
प्रकाशक : सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली
समीक्षक –
सहायक आचार्य, कश्मीर अध्ययन केंद्र
हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला