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भेड़ की खाल में भेड़िये

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तथाकथित पर्यावरणीय चिंताओं के नाम पर योजनाबद्ध हिंसक प्रदर्शन और चर्च प्रेरित विरोध के बाद तूतूकुड़ी (पूर्ववर्ती नाम तूतीकोरिन) में वेदांता के स्वामित्व वाला स्टरलाइट तांबा स्मेलटर कारखाना 2018 में बंद कर दिया गया था। इससे भारतीय तांबा उद्योग को कितनी क्षति पहुंची, यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि वर्ष 2017-2018 तक भारत विश्व के शीर्ष पांच तांबा निर्यातकों में से एक था, जो अब तांबे का शुद्ध आयातक देश बन गया है।

बलबीर पुंज

भारत को अस्थिर करने वाली आंतरिक-बाहरी शक्तियों के कई मुखौटे हैं। ऐसा ही एक भोला-भाला दिखने वाला नकाब – एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) है। बीते दिनों आयकर विभाग ने ‘ऑक्सफैम इंडिया’ सहित पांच बड़े एनजीओ के दफ्तरों पर छापा मारा था।

परत दर परत जांच के बाद खुलासा हुआ कि वे बाह्य-धनबल पर देश की औद्योगिक परियोजनाओं के खिलाफ अभियान चला रहे थे। इस संदर्भ में हालिया घटनाक्रम और भी चौंकाने वाला है, जो एनजीओ द्वारा समाज में मजहब के नाम पर वैमनस्य फैलाने वालों का बचाव करने से जुड़ा है।

कुछ दिन पहले ही चर्चित चंदन गुप्ता हत्याकांड में विशेष अदालत ने 28 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। वर्ष 2018 में उत्तर प्रदेश स्थित कासगंज के ‘मुस्लिम बहुल’ क्षेत्र में चंदन को उन्मादी भीड़ ने इसलिए मौत के घाट उतार दिया, क्योंकि वह गणतंत्र दिवस पर अपने साथियों के साथ मिलकर तिरंगा यात्रा निकाल रहा था। तब दोषी चाहते थे कि वह राष्ट्रभक्त समूह भारत के बजाय ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ का नारा लगाए। जब ऐसा नहीं हुआ, तब दंगाइयों ने पथराव करते हुए चंदन को गोली मार दी। छह साल बाद जब इस मामले में ‘राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण’ (एनआईए) की अदालत ने निर्णय सुनाया, तो उसने चिंता व्यक्त करते हुए कुछ एनजीओ का उल्लेख किया, जो दंगाइयों को हरसंभव कानूनी सहायता पहुंचा रहे थे।

बकौल मीडिया रिपोर्ट, न्यायाधीश विवेकानंद शरण त्रिपाठी ने अपने 130 पृष्ठीय आदेश में कहा, “एनजीओ ‘सिटीजन ऑफ जस्टिस एंड पीस’, ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’, ‘रिहाई मंच’, ‘यूनाइटेड अगेंस्ट हेट’ और विदेशी एनजीओ ‘अलायंस फॉर जस्टिस एंड अकाउंटेबिलिटी’ (न्यूयॉर्क), ‘इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल’ (वाशिंगटन डीसी) और ‘साउथ एशिया सॉलिडेरिटी ग्रुप’ (लंदन) की उत्तरप्रदेश स्थित कासगंज के सांप्रदायिक झड़प में क्या रुचि हो सकती है?”

न्यायाधीश त्रिपाठी ने कहा, “यह पता लगाने के लिए कि एनजीओ को धन कहां से मिल रहा है, उनका सामूहिक उद्देश्य क्या है और न्यायिक प्रक्रिया में उनके अवांछित हस्तक्षेप को रोकने का प्रभावी उपाय करने हेतु फैसले की एक प्रति बार काउंसिल ऑफ इंडिया और केंद्रीय गृह सचिव को भेजी जानी चाहिए। यह प्रवृत्ति न्यायपालिका में बहुत खतरनाक और संकीर्ण सोच को बढ़ावा दे रही है…।”

‘सिटीजन ऑफ जस्टिस एंड पीस’ की संस्थापक ट्रस्टी और सचिव तीस्ता सीतलवाड़ है, जिनके खिलाफ सर्वोच्च अदालत के निर्देश पर गुजरात दंगा मामले (2002) में झूठी कहानी गढ़ने और फर्जी गवाही दिलाने का मामला दर्ज है।

पिछले कुछ वर्षों में, विशेषकर 2014 के बाद, जब भी किसी एनजीओ या उसके पदाधिकारी के खिलाफ कार्रवाई होती है, तो उसे ‘वाम-जिहादी-सेकुलर’ कुनबे द्वारा ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर कुठाराघात’ बता दिया जाता है। क्या ऐसा है? सच तो यह है कि स्वतंत्रता पश्चात विभिन्न राजनीतिक दलों ने अलग-अलग समय देश में विदेशी धनपोषित एनजीओ से उपजे खतरे का संज्ञान लिया है।

वर्ष 2005 में अपनी पार्टी के एक अधिवेशन में सीपीएम नेता प्रकाश करात ने कहा था, “सरकारों को मिलने वाला विदेशी धन एक श्रेणी है, दूसरी श्रेणी स्वैच्छिक संगठनों या जिन्हें एनजीओ कहा जाता है – उनको मिलने वाला विदेशी धन है। हमारी पार्टी ने लगातार चेतावनी दी है कि एनजीओ की कई गतिविधियों को वित्तपोषित करने हेतु बड़ी मात्रा में विदेशी धन आ रहा है। पश्चिमी एजेंसियों से मिलने वाले ऐसे धन का उद्देश्य लोगों का राजनीतिकरण करना है…।”

वर्ष 1984 में भी एक लेख के माध्यम से करात ने कहा था, “सभी संगठन जो विदेशी धन प्राप्त करते हैं, वे स्वाभाविक रूप से संदिग्ध हैं और उनकी जांच होनी चाहिए।”

“भारतीय विकास यात्रा को एनजीओ कैसे बाधित करती है, इसके कई उदाहरण है। इस सुनियोजित साजिश को अमेरिकी पत्रिका ‘फोर्ब्स’ द्वारा वर्ष 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन से रेखांकित किया जा सकता है। इसके अनुसार, वर्ष 1985 में चीन और भारत का प्रति व्यक्ति जीडीपी लगभग $293 था। आज यह चीन में $13,000 से अधिक, तो भारत में केवल $2,700 है। वर्तमान चीनी अर्थव्यवस्था $18.5 ट्रिलियन है, जो भारतीय आर्थिकी से लगभग पांच गुना अधिक है। आखिर चीन ने भारत को कैसे पीछे छोड़ा, इसे दोनों देशों की बांध परियोजना से समझा जा सकता है।”

चीन में दुनिया के सबसे बड़े बांधों में से एक ‘थ्री गॉर्जिज बांध’ 10 वर्ष से अधिक में बनकर तैयार हो गया था। इसकी तुलना में भारत स्थित गुजरात में छोटे सरदार सरोवर बांध को पूरा करने में 56 वर्ष (1961-2017) लग गए।

इसका एक बड़ा कारण वर्ष 1989-2014 के बीच भारत की वह समझौतावादी खिचड़ी गठबंधन सरकारें थी, जिसमें कुछ अपवादों को छोड़कर राष्ट्रहित गौण रहा और जोड़तोड़ की राजनीति हावी रही। इस स्थिति का लाभ मानवाधिकार-पर्यावरण संरक्षण के नाम पर ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ (एनबीए) जैसे भारत-विरोधी अभियानों ने उठाया।

इस कालखंड में जहां देश का विकास अवरुद्ध रहा, वहीं एनबीए नेता मेधा पाटकर को दुनिया में ख्याति मिलती रही। आज सरदार सरोवर बांध से गुजरात के साथ मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों के करोड़ों लोगों को बिजली, सिंचाई हेतु पानी और स्वच्छ पेयजल मिल रहा है।

देश की परमाणु ऊर्जा क्षमता हेतु महत्वपूर्ण और भारत-रूस का संयुक्त उपक्रम (2002) ‘कुडनकुलम परमाणु संयंत्र’ (तमिलनाडु) के साथ भी वर्षों तक यही हुआ। इस संबंध फरवरी 2012 में एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था, “कुडनकुलम…परमाणु उर्जा कार्यक्रम मुश्किलों में घिर गया है, क्योंकि ये एनजीओ, जो अधिकतर अमेरिका में स्थित हैं, हमारे देश के लिए उर्जा आपूर्ति वृद्धि की जरूरत की कद्र नहीं करते।”

इसी प्रायोजित प्रदर्शन सहित अन्य कारणों से परियोजना के व्यावसायिक संचालन में आठ वर्ष विलंब हुआ, जिससे इसकी लागत में दस हजार करोड़ रुपये की अतिरिक्त वृद्धि हो गई।

जब केरल में तिरुवनंतपुरम स्थित विझिंजम अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह का निर्माण हो रहा था, तब चर्च के समर्थन से स्थानीय मछुआरों द्वारा बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे। इस पर 23 अगस्त 2022 को केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने विधानसभा में कहा था, “जो वर्तमान विरोध हो रहा है, उसे स्थानीय मछुआरों का विरोध नहीं कहा जा सकता। यह विरोध संगठित प्रतीत होता है।”

ऐसे ही तथाकथित पर्यावरणीय चिंताओं के नाम पर योजनाबद्ध हिंसक प्रदर्शन और चर्च प्रेरित विरोध के बाद तूतूकुड़ी (पूर्ववर्ती नाम तूतीकोरिन) में वेदांता के स्वामित्व वाला स्टरलाइट तांबा स्मेलटर कारखाना 2018 में बंद कर दिया गया था। इससे भारतीय तांबा उद्योग को कितनी क्षति पहुंची, यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि वर्ष 2017-2018 तक भारत विश्व के शीर्ष पांच तांबा निर्यातकों में से एक था, जो अब तांबे का शुद्ध आयातक देश बन गया है।

यह ठीक है कि कुछ एनजीओ देश में समाज कल्याण हेतु कार्यरत हैं। परंतु यह भी सच है कि कई भारत विरोधी शक्तियां एनजीओ का भेष धारण करके देश को तोड़ने और समाज को कमजोर करने के प्रयासों में शामिल हैं। एक आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2012 से 2024 तक गृह मंत्रालय कुल 20,721 एनजीओ का विदेशी अंशदान पंजीकरण रद्द कर चुका है।

वित्त वर्ष 2017-18 और 2021-22 के बीच एनजीओ को लगभग 89 हजार करोड़ रुपये का विदेशी चंदा प्राप्त हुआ था। आखिर विदेशों से एनजीओ को मिल रहे अकूत धन का उद्देश्य क्या है? आधुनिक युद्ध सीमाओं का मोहताज नहीं, इसलिए देश के भीतर पल रहे दुश्मनों पर भी नकेल कसने की जरुरत है। सदियों से ‘भेड़ की खाल में भेड़िये’ शिकार करते आए है। अफसोस की बात है कि यह आज भी जारी है।

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