नई दिल्ली. धर्मचंद नाहर जी का जन्म राजस्थान में अजमेर से लगभग 150 किमी दूर स्थित ग्राम हरनावां पट्टी में वर्ष 1944 की कार्तिक कृष्ण 13 (धनतेरस) को हुआ था. जब वे केवल तीन वर्ष के थे, तब उनके पिता मिश्रीमल जी बच्चों की समुचित शिक्षा के लिये लाडनू आ गये. यह परिवार जैन मत के तेरापंथ से सम्बन्धित था. लाडनू उन दिनों तेरापंथ का प्रमुख स्थान था. सात भाई और एक बहन वाला यह परिवार एक ओर धर्मप्रेमी, तो दूसरी ओर संघ के लिये भी समर्पित था. घर में जैन संतों के साथ ही संघ के कार्यकर्ता भी आते रहते थे. लाडनू से मैट्रिक उत्तीर्ण कर धर्मचंद जी वर्ष 1960 में कोलकाता आ गये. उनका काफी समय शाखा कार्य में लगता था. कोलकाता आते समय जब वे सामान में गणवेश रखने लगे, तो बड़े भाई ने उसे बाहर निकलवा दिया और डांटते हुए बोले कि बहुत हो गई शाखा. अब इसे यहीं छोड़ दो. इस पर धर्मचंद जी ने शांत भाव से कहा कि यह सामान तो वहां जाकर नया भी खरीदा जा सकता है, पर मैं शाखा जाना नहीं छोड़ूंगा. कोलकाता में एक फर्म में सेल्स मैनेजर के रूप में काम करते हुए उन्होंने बीकॉम भी किया तथा वर्ष 1965 में नौकरी से त्यागपत्र देकर संघ के प्रचारक बन गये.
बंगाल में उन दिनों संघ का काम बहुत कम, और वह भी मुख्यतः मारवाड़ी व्यापारियों में ही था, पर धर्मचंद जी ने शीघ्र ही बंगला भाषा पर अधिकार कर लिया. धीरे-धीरे वे ‘धर्मदा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये. उन्हें सर्वप्रथम बांकुड़ा तथा फिर मिदनापुर जिले में भेजा गया. इसके बाद उन्हें नवद्वीप विभाग प्रचारक तथा प्रांतीय शारीरिक प्रमुख की जिम्मेदारी मिली. इसके बाद उन्होंने सिलीगुड़ी, दार्जिलिंग, सिक्किम, भूटान आदि में काम करते हुए कई विद्या मंदिरों की स्थापना की. लगभग 30 वर्ष तक बंगाल में काम करने के बाद उन्हें दक्षिण असम में प्रांत सम्पर्क प्रमुख बनाकर भेजा गया. इसमें नगालैंड, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर व सिल्चर का क्षेत्र आता है.
यहां बंगलाभाषियों के साथ ही सैकड़ों जनजातियों के लोग रहते थे, जिनकी अपनी-अपनी बोलियां तथा रीति-रिवाज हैं. इनके बीच ईसाइयों ने काफी जड़ जमा रखी थी. अतः धर्मदा ने यहां संघ शाखा के साथ ही वनवासी कल्याण आश्रम तथा विश्व हिन्दू परिषद के काम का भी विस्तार किया. चार वर्ष असम में काम करने के बाद धर्मचंद जी को हरियाणा में करनाल विभाग तथा तीन वर्ष बाद हिसार विभाग प्रचारक व प्रांत घोष प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी. वे कई बार संघ शिक्षा वर्ग में मुख्यशिक्षक भी रहे. 12 मई, 2001 को वे मोटरसाइकिल से सिरसा से अग्रोहा की ओर जा रहे थे. संघ शिक्षा वर्ग की तैयारी चल रही थी. रात में सामने से आ रहे ट्रक की तेज रोशनी से बचने के लिये उन्होंने मोटरसाइकिल को नीचे उतार दिया, पर मार्ग में आधा झुका हुआ एक पेड़ खड़ा था. धर्मचंद जी ने तेजी से झुककर उसे पार करना चाहा, पर उससे टकराकर वे गिर पड़े और बेहोश हो गये.
पीछे समाचार पत्र लेकर आ रही एक जीप वालों ने उन्हें अग्रोहा के चिकित्सालय में भर्ती कराया तथा उनकी जेब से मिले नंबरों पर फोन कर दिया. तुरंत ही कई कार्यकर्ता आ गये और उन्हें हिसार के बड़े चिकित्सालय में ले जाया गया. हालत में सुधार न होते देख अगले दिन उन्हें दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में भर्ती कराया गया. वहां भी भरपूर प्रयास हुए, पर विधि के विधान के अनुसार 27 मई, 2001 को उनका शरीरांत हो गया. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि धर्मचंद जी के बड़े भाई विजय कृष्ण नाहर जी ने 25 वर्ष तक राजस्थान व हरियाणा में प्रचारक रहकर, मृत्युशैया पर पड़े पिताजी के अत्यधिक आग्रह पर गृहस्थ जीवन स्वीकार किया था.