राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार निरंतर देश व समाज हित में निर्णय ले रही है. तीन तलाक की बर्बरता और अनुच्छेद 370 के अन्याय का उपचार करने के बाद जिस तरह संसद के दूसरे ही सत्र में नागरिकता (संशोधन) विधेयक पर सरकार आगे बढ़ी, उससे सरकार में जनता का विश्वास निश्चित ही और गहरा हुआ है.
गति, समानता और पारदर्शिता… इस सरकार को दोबारा पहले से ज्यादा शक्ति के साथ जनादेश दिलाने वाले कारक यही तो थे!
केवल विरोध के लिए विरोध करने वाले विपक्ष को यदि एक ओर रख दें तो पाएंगे कि मुद्दे की एक बात, जो पहले की अनेक सरकारों ने नहीं समझी, वह इस सरकार ने गांठ बांध ली है. यह बात है – ‘जनादेश के अनुसार कार्यादेश.’
नोटबन्दी, तीन तलाक या अनुच्छेद 370… सरकार के ये कदम भी बड़े थे और विरोधियों को जरा नहीं भाए थे! सोचने वाली बात यह है कि विरोध के सुरों के बीच भी जनता ने इन्हें हाथों हाथ क्यों लिया?
इसलिए क्योंकि इसमें समाज को समाधान दिखता है, एक उत्तर, एक आशा नजर आती है. देश-समाज का दिल दुखाने वाले एक नहीं, कई मुद्दे राजनीति द्वारा लगातार असीमित काल तक टलते-टलते अकारण ही प्राचीन और जटिल बना दिए गए थे! नागरिकता (संशोधन) विधेयक भी एक ऐसे ही लम्बित प्रश्न का चिर प्रतिक्षित समाधान है.
दुष्यंत का एक शेर है –
हो गई है पीर-पर्वत सी, पिघलनी चाहिए.
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए…..
कहा जा सकता है कि नागरिकता (संशोधन) विधेयक एक जिम्मेदार राष्ट्र द्वारा समाज को हो रही पीड़ा को समाप्त करने का ही आरंभ है. यह राष्ट्रनीति की बात है, क्षुद्र स्वार्थों और विभाजक रेखाओं पर पलने वाली राजनीति इसमें नहीं है.
अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के दर्द और दुर्दशा की कहानियां ऐसी हैं, जिनसे भारतीय समाज भीतर तक हिल जाता था. ऐसा नहीं कि सरकारें और मीडिया इससे अनजान थे, अंतर सिर्फ यह था कि इस विषय को केवल सुर्खियों और सुविधा के हिसाब से उठाया जाता था, समस्या को हल करने के लिए कोई कदम नहीं उठता था. केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार आने से पहले संसद के भीतर खुद कांग्रेस सरकार के अनेक विदेश राज्य मंत्रियों ने पास-पड़ोस से भारत आने वाले अल्पसंख्यकों की संख्या और मुद्दे की जटिलता अनेक बार बताई, लेकिन यह सिर्फ बताने भर की खानापूर्ति थी. इस समस्या के कारणों को जानने और उसके निदान की कोई गंभीर कोशिश सरकारी स्तर पर नहीं की गई.
वर्ष 2014 में अपने अंतिम दिनों में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने खुद कहा, ”1,11,754 पाकिस्तानी नागरिक साल 2013 में वीजा लेकर भारत आए थे. हालांकि पंथ के आधार पर इनका वर्गीकरण फिलहाल संभव नहीं है, लेकिन बड़ी संख्या में हिन्दू और सिक्ख वीजा की अवधि खत्म होने पर भी भारत में रह रहे हैं.”
सवाल है कि राहत के लिए भारत से आस लगाए और वापस अपने देश जाने से घबराने वाले ये अल्पसंख्यक कौन थे? इनके डर की वजह क्या थी?
जो लोग नहीं जानते उनके लिए कुछ घटनाओं, उदाहरणों की धूल झाड़ लेना ठीक है –
पाकिस्तान के अब्दुल खलिक मीथा को और कोई छोड़िए, खुद प्रधानमंत्री इमरान खान अच्छे से जानते हैं. सिंध प्रांत में रहने वाला यह मुल्ला ताल ठोककर कहता है कि – मैंने सैकड़ों हिन्दू लड़कियों को मुस्लिम बनाकर उनका निकाह कराया है, मेरे पुरखों ने भी यही किया और मेरे बच्चे भी यह करेंगे.’
सिक्ख तीर्थयात्रियों के लिए करतारपुर गलियारे के द्वार खोलने से करीब तीन माह पहले लाहौर के ननकाना साहिब क्षेत्र में ही एक सिक्ख युवती पर जबरन इस्लाम लादकर उसका नाम आयशा रख दिया गया और एक मुसलमान लड़के को उसके मत्थे मढ़ दिया गया.
“पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दू और सिक्ख हर तरह से भारत आ सकते हैं. अगर वे वहां नहीं रहना चाहते हैं, उस स्थिति में उन्हें नौकरी देना और उनके जीवन को आरामदायक बनाना भारत सरकार का पहला कर्तव्य है. – महात्मा गांधी (26 सितंबर, 1947)”
“हम उन विस्थापितों के पुनर्वास के लिए उत्सुक हैं, जिन्होंने कष्ट झेले और अभी भी बड़ी कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं. – डॉ. राजेंद्र प्रसाद (26 जनवरी, 1950)”
“जो हमारे ही मांस और खून हैं, जो स्वतंत्रता संग्राम में हमारी तरफ से लड़े थे, वे अचानक हमारे लिए विदेशी नहीं बन सकते. वे एक सीमा की दूसरी तरफ हैं. जो भारतीय दक्षिण अफ्रिका में हैं, यदि हम उनको अपना मानते हैं, तो बंगाल (वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बांग्लादेश) से आए हिन्दुओं को क्यों नहीं?
- सरदार पटेल, देश के प्रथम गृहमंत्री”
दिल्ली के करोलबाग में स्थित मोबाइल फोन बाजार ‘ग़फ्फार मार्केट’ में आपको अनेक सिक्ख दिख जाएंगे, जिनकी बोली-बानी दिल्ली के ही तिलक नगर, राजौरी या फिर पंजाब के सिक्खों से मेल नहीं खाती. छोटी-छोटी संदूकचियों में अपनी दुकान समेटे ये लोग काबुल के वे मेहनती पैसे वाले हैं, जिन्हें ‘काफिर’ होने के कारण तालिबानियों से जान बचाने के लिए हिन्दुस्थान का रुख करना पड़ा था. बांग्लादेश में उन्मदियों के हाथ हलाल होने के डर से भागे अल्पसंख्यक आपको बंगाल के अलावा दिल्ली के चित्तरंजन पार्क जैसी बसाहटों में छोटे-मोटे काम करते नजर आ जाएंगे.
देश की राजधानी में ही पालम के करीब बिजवासन में नाहर सिंह जैसे बड़े दिल वाले लोग आपको मिल जाएंगे, जिन्होंने अपने विशाल मकान और झोली को मुस्लिम पड़ोसी देशों से जान बचाकर आए दुखियारों के लिए खाली कर दिया.
जाहिर है, यह किसी एक या नई घटना की बात नहीं है, पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों को निगलने का यह एक सिलसिला है. देश में बच्चे-बूढ़े सभी, इस तरह की आंसुओं में डूबी हजारों कहानियों को अपने आस-पास देख-सुन रहे हैं. झुंझला रहे हैं, रो रहे हैं. दुनियाभर में रिचर्ड एल. बेनकिन और तसलीमा नसरीन जैसे ख्यात लेखकों की कलम से भारत के पड़ोसी देशों में ‘जमात’ से डरी अल्पसंख्यकों की जमात के ज़ख्म दुनिया के सामने उघड़े पड़े हैं. अनेक देश इससे विचलित हैं… पाकिस्तान में हिन्दू लड़कियों के अपहरण और जबरन कन्वर्जन के मुद्दे पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, इमरान खान से स्वयं बात करें, इसके लिए अमेरिका के 10 सांसदों ने पत्र तक लिखा है.
हैरानी की बात है कि पूरी दुनिया को जिन इंसानों का दर्द दिखता है, भारत में सेकुलर चश्मा लगाए विपक्ष को ये इंसान नहीं केवल ‘गैर-मुस्लिम’ दिखते हैं!
याद कीजिए इस्लामी गृहयुद्ध के बीच सीरिया से विस्थापित होकर यूरोप उमड़ने वाले मुस्लिम जत्थों पर वाम-सेकुलर प्रतिक्रियाएं… याद कीजिए समुद्र तट पर गिरी आइलान की लाश पर लिखी कविताएं…
एक सवाल है – क्या गैर-मुस्लिम होना कोई अपराध है? क्या दुनिया की सहानुभूति और सहयोग केवल मुसलमानों के लिए आरक्षित है? खून के आंसू पीने वालों को अगर मुट्ठी भर राहत हासिल होने भी वाली है तो इसमें प्रताड़ित करने वाले हुजूम का हिस्सा क्यों होना चाहिए?
इस हिस्से की पैरोकारी करने वाले कथित सेकुलर राजनीतिज्ञ (और दल) वे हैं, जिनकी राजनीतिक परिभाषा में अल्पसंख्यक का अर्थ केवल और केवल मुस्लिम है. जिनके दरियादिली का पलड़ा आर्थिक संसाधनों पर विशुद्ध आर्थिक कारणों से, आपराधिक नीयत से घुसपैठ करने वाले उपद्रवियों की ओर तो झुकता है, किंतु जो और लुटे-पिटे, प्रताड़ित शरणार्थियों से मुंह फेर लेते हैं.
गौर कीजिए, 2004 से लेकर 2014 तक संप्रग सरकार आधिकारिक रूप से मानती रही कि पाकिस्तान, बांग्लादेश में हिन्दुओं के खिलाफ अत्याचार हो रहे हैं. पूर्व में पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली ने भी माना कि हर साल करीब 5,000 विस्थापित अल्पसंख्यक उसके यहां से भारत आते हैं. सिर्फ यहां मान लेने से, और वहां बता देने से क्या होगा?
निदान कैसे, कौन करेगा? अब निदान की, समाधान की राह निकली है.
सीमापार के उन्मादियों के लिए जो सिर्फ मुसलमान बनाने या पैदा करने का कच्चा माल था, सेकुलर लामबंदियों के लिए जो सिर्फ ‘कागजी आंकड़ा’ और जबानी जमाखर्च था, मानवता के उस बदनसीब हिस्से को अब जाकर उम्मीद की रोशनी नसीब हुई है. इस उजाले का, इस पहल, नागरिकता (संशोधन) विधेयक का स्वागत होना ही चाहिए.
हितेश शंकर
संपादक, पाञ्चजन्य