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और वह निश्चल हँसी जो गूंज उठती थी गगन में…….. जन्म-दिवस- तपस्वी जीवन श्री गुरुजी

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aag-sized-11संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार जी ने अपने देहान्त से पूर्व जिनके समर्थ कन्धों पर संघ का भार सौंपा, वे थे श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, जिन्हें सब प्रेम से श्री गुरुजी कहकर पुकारते थे. श्री गुरूजी का जन्म 1906 (फाल्गुन विजया एकादशी) को नागपुर में अपने मामा के घर हुआ था. उनके पिता श्री सदाशिव गोलवलकर उन दिनों नागपुर से 70 कि.मी. दूर रामटेक में अध्यापक थे.

माधव बचपन से ही अत्यधिक मेधावी छात्र थे. उन्होंने सभी परीक्षाएं सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं. कक्षा में हर प्रश्न का उत्तर वे सबसे पहले दे देते थे. अतः उन पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि जब कोई अन्य छात्र उत्तर नहीं दे पायेगा, तब ही वह बोलेंगे. एक बार उनके पास की कक्षा में गणित के एक प्रश्न का उत्तर जब किसी छात्र और अध्यापक को भी नहीं सूझा, तब माधव को बुलाकर वह प्रश्न हल किया गया.

वे अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें भी खूब पढ़ते थे. नागपुर के हिस्लाप क्रिश्चियन कॉलेज में प्रधानाचार्य गार्डिनर बाइबिल पढ़ाते थे. एक बार माधव ने उन्हें ही गलत अध्याय का उद्धरण देने पर टोक दिया. जब बाइबिल मंगाकर देखी गयी, तो माधव की बात ठीक थी. अध्ययन के अतिरिक्त हॉकी व टेनिस का खेल तथा सितार एवं बांसुरीवादन भी माधव के प्रिय विषय थे.

उच्च शिक्षा के लिये काशी जाने पर उनका सम्पर्क संघ से हुआ. वे नियमित रूप से शाखा पर जाने लगे. जब डा. हेडगेवार काशी आये, तो उनसे वार्तालाप में माधव का संघ के प्रति विश्वास और दृढ़ हो गया. एम-एस.सी. करने के बाद वे शोधकार्य के लिये मद्रास गये, पर वहां का मौसम अनुकूल न आने के कारण वे काशी विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक बन गये.

उनके मधुर व्यवहार तथा पढ़ाने की अद्भुत शैली के कारण सब उन्हें ‘गुरुजी’ कहने लगे और फिर तो यही नाम उनकी पहचान बन गया. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी भी उनसे बहुत प्रेम करते थे. कुछ समय काशी रहकर वे नागपुर आ गये और कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की. उन दिनों उनका सम्पर्क रामकृष्ण मिशन से भी हुआ और वे एक दिन चुपचाप बंगाल के सारगाछी आश्रम चले गये. वहां उन्होंने विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखंडानन्द जी से दीक्षा ली.

स्वामी जी के देहान्त के बाद वे नागपुर लौट आये तथा फिर पूरी शक्ति से संघ कार्य में लग गये. उनकी योग्यता देखकर डा हेडगेवार ने उन्हें 1939 में सरकार्यवाह का दायित्व दिया. अब पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा. 21 जून, 1940 को डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद श्री गुरुजी सरसंघचालक बने. उन्होंने संघ कार्य को गति देने के लिये अपनी पूरी शक्ति लगा दी.

1947 में देश आजाद हुआ, पर उसे विभाजन का दंश भी झेलना पड़ा. 1948 में गांधी जी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. श्री गुरुजी को जेल में डाल दिया गया, पर उन्होंने धैर्य से सब समस्याओं को झेला और संघ तथा देश को सही दिशा दी. इससे सब ओर उनकी ख्याति फैल गयी. संघ-कार्य भी देश के हर जिले में पहुंच गया.

श्री गुरुजी का धर्मग्रन्थों एवं हिन्दू दर्शन पर इतना अधिकार था कि एक बार शंकराचार्य पद के लिये उनका नाम प्रस्तावित किया गया था, पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया. 1970 में वे कैंसर से पीड़ित हो गये. शल्य चिकित्सा से कुछ लाभ तो हुआ, पर पूरी तरह नहीं. इसके बाद भी वे प्रवास करते रहे, पर शरीर का अपना कुछ धर्म होता है. उसे निभाते हुए श्री गुरुजी ने 5 जून, 1973 को रात्रि में शरीर छोड़ दिया.

श्री गुरू जी के जीवन के कुछ प्रेरक संस्मरण…….

1. जीवन और कार्य की एकरूपता

सन 1949 के दिन थे. संघ से प्रतिबंध हटने के पश्चात् श्री गुरुजी देशभर में आयोजित स्वागत कार्यक्रमों को संपन्न करके कुछ दिनों के लिये काशी रहे थे. काशी में सदा की तरह उनके ठहरने की व्यवस्था श्री दत्तराज कालिया (काले) के निवास पर हुई थी. काशी में उनका पूर्ण विश्राम हो, यह ध्यान में रखते हुये कोई कार्यक्रम नहीं रखे गये. उन दिनों मैं काशी में संघ प्रचारक के नाते काम देखता था. आते ही श्री गुरुजी ने कार्यक्रमों के बारे में पूछा तब उन्हें बताया गया कि आपको यहां पूर्ण विश्राम करना है. प्रतिबंध हटने के बाद देशभर में उनके स्वागत कार्यक्रमों के कारण श्री गुरुजी अत्यधिक श्रमित-थकित थे, इसलिये यह निर्णय लिया गया था. उत्तर सुनते ही श्री गुरुजी गंभीर हो गये और समझाने लगे कि विश्राम की यह कल्पना ठीक नहीं है.

कार्यक्रम अवश्य होने चाहिये. नगर कार्यवाह डा. बनर्जी बोले-इस समय आप हमारे चार्ज में हैं और हमने कोई कार्यक्रम न रखकर आपके विश्राम की योजना बनायी है. फिर वे कुछ नहीं बोले. पर रात होते ही उन्हें खाँसी का जोर पकड़ने लगा. दूसरे दिन प्रातः को देखा तो खाँसी से उनका बुरा हाल हुआ है, यह ध्यान में आया और सब चिंतित हुये. वे रातभर खाँसते रहे. चेहरा, आँख लाल थीं. स्वास्थ्य तेजी से गिर रहा था. डा. बनर्जी ने पूछा – ‘गुरुजी ! यह क्या बात है? सोचा था विश्राम से आपको लाभ होगा किन्तु आपकी स्थिति देखकर चिंता हो रही है.

गुरुजी बोले ‘मैं क्या कहूँ? जो आप सबने सोचा उसीका यह परिणाम हो रहा है. इस पर हम सबकी आँखों में आँसू आ गये. डाँ बनर्जी का गला रुँध गया और वे गुरुजी से बोले – ‘हमने तो आपके स्वास्थ्य के हित में ही सारा विचार करके विश्राम का आयोजन किया था. उसका ऐसा उलटा परिणाम कैसे? आपके स्वास्थ्य में यह गिरावट देखकर हम सभी बंधु बहुत व्याकुल हैं. बताइये हम क्या करें?’ श्री गुरुजी बोले – ‘देखो डॉक्टर ! तुम सोच रहे हो कि पूर्ण विश्राम से यह शरीर अच्छा हो जायेगा. किन्तु ऐसी बात नहीं है. सच पूछो तो इस शरीर में ऐसा कुछ ज्यादा बचा नहीं है जिसके द्वारा यह चल सके. डॉक्यरों के हिसाब से यह शरीर कभी का समाप्त हो चुका है. जब ये कार्य से अलग करवा दिया गया तो यह शरीर अपनी स्वाभाविक अवस्था की ओर जा रहा है. सच्चाई तो यह है कि मैं दिनरात संघकार्य में लगा-रहता हूँ इसी के कारण यह शरीर सधा हुआ है और चल रहा है. यदि तुम चाहते हो कि यह शरीर स्वस्थ रहे तो पूर्ण विश्राम के बजाय यथाविधि कार्यक्रम चलने दो. तुरंत ही हम लोगों ने वैसा ही किया. देखते देखते ही फिर वार्तालाप और कार्यक्रमों के बीच श्री गुरुजी की वही हँसी, वही ठहाका आरंभ हो गया और दो तीन दिन मे ही स्वास्थ्य पहले जैसा हो गया.

जीवन और जीवनकार्य इतने एकरूप हो सकते हैं, इसकी कभी कल्पना भी नहीं थी. हमारे आँखों के सामने यह एक जीता जागता उदाहरण था. तब हम लोगों के समझ में आया कि इस महापुरुष ने तन से एवं मन से अपने आपको कार्य से एकाकार कर लिया है. अब शरीर से जीवनकार्य नहीं चल रहा है, अपितु जीवनकार्य ही शरीर को चला रहा है.

2. यह कैसे संभव हुआ ?

रा.स्व.संघ के प्रथम अ.भा. प्रचारक प्रमुख होली के रंगोत्सव के दिन एक बार रुष्ट हो गये थे. उनके द्वारा मना करने पर भी एक कार्यकर्ता ने बाबासाहेब आपटे पर रंग के कुछ छीटें डाल ही दिये. उनको बहुत बुरा लगा और उन्होंने रुष्ट होकर अपने कमरे का दरवाजा बन्द कर दिया. लोगों ने उनकी नाराजगी पर भी ध्यान नहीं दिया. उनका यही विश्वास था कि थोड़ी देर में सब शांत हो जायेगा. दोपहर भोजन के समय भोजनकक्ष में बाबासाहेब नहीं आये. उनके बंद दरवाजे को थपथपाकर उनसे कहा गया कि भोजन का समय हो गया है. परन्तु न उन्होंने उत्तर दिया न दरवाजा खोला.

श्री गुरुजी भी भोजन के लिये आये. बाबासाहेब के रुष्ट होने की बात उन्होंने सुनी. श्री गुरुजी ने किसी से कुछ नहीं कहा. जिसने रंग के छीटें डाले थे, उसको भी कुछ नहीं कहा. बाबासाहेब के कमरे के दरवाजे के पास चुपचाप जा बैठे. न कुछ बोले न दरवाजा थपथपाया. कुछ देर बाद बाबासाहेब ने दरवाजा खोला. श्री गुरुजी ने उनसे कहा, ‘चलिये, भोजन करने चला जाये’. दोनों साथ साथ भोजन कक्ष में आये. भोजन करते समय या बाद में भी सुबह के रंग के छीटें डालने के संबंध में किसी ने कुछ नहीं कहा. पर यह सब कैसे हुआ? बाबासाहेब के कमरे के बंद दरवाजे के सामने चुपचाप बैठ जाने के प्रसंग की याद कई बार उभर कर आती है और ऐसा विश्वास करने को बाध्य कर देती है कि श्री गुरुजी की भावात्मक सूक्ष्म क्षमतायें बहुत अधिक समृद्ध तथा समर्थ थीं.

3. शरीर पर नियंत्रण

सन 1943 या 1944 के आसपास की बात है. श्री गुरुजी के दाहिने हाथ में अत्यंत कष्टदायी पीड़ा होने लगी. एलोपैथी डॉक्टरों ने सलाह दी कि दर्द का कारण दाँत है, अतः उन्हें निकलवा देना चाहिये. होमयोपैथ्स ने कहा कि दाँत निकालने की आवश्यकता नहीं है. इसी झंझट में दो वर्ष व्यतीत हो गये और श्री गुरुजी को उसी प्रकार कष्ट सहते रहना पड़ा.

इधर कुछ दिन पश्चात् उनके दाँत में भी पीड़ा होने लगी. अंत में दाँत निकलवा देना ही उचित समझा गया. इसके लिये वे काशी गये. पीड़ा एक दाँत में थी, किन्तु डॉक्टरों ने समस्त दाँत निकालने का निश्चय किया. डॉक्टरों ने इन्जेक्शन लगाकर मसूड़ों को सुन्न करने का प्रस्ताव रखा. परन्तु गुरुजी ने उनसे कहा कि मसूड़ों को सुन्न करने के लिये इन्जेक्शन लगाने की जरुरत नहीं है. उन्होंने बिना इन्जेक्शन लगवाये ही समस्त दाँत उखड़वाये. कल्पना कीजिये कितनी वेदना हुई होगी. परन्तु उनके मुख पर किंचित भी दुखदर्द की रेखा दिखाई नहीं पड़ी. इतना ही नहीं जबलपुर के समीप गाडरवाडा शिविर में वे पधारे और उन्होंने सबके अंदाजों के विपरीत दो घंटे तक लगातार धाराप्रवाह भाषण दिया. श्री गुरुजी का यह मनोबल तथा शरीर पर नियंत्रण लोगों को आश्चर्य में डाल दिया करता था.

4. उस अघोरी प्रयोग में भी शांत

श्री गुरुजी के दाहिने हाथ में नित्य वेदना हुआ करती थी. बहुत सारे उपायों के बाद भी परिणाम शून्य ही था. तब आयुर्वेदिक चिकित्सकों की सलाह से चाँदी की तप्त शलाका से उपचार करना तय हुआ. 1952 में पुणे में इस प्रयोग के लिये श्री गुरुजी आये. उपचार के लिये वे बैठे तब प्रसन्न थे. हास्य विनोद करने लगे. तप्त शलाका उनके कंधे पर रखी गई. चर्रचर्र आवाज के साथ चमड़ी जलने लगी. उसकी दुर्गन्ध भी आने लगी. परंतु श्री गुरुजी शांत थे, प्रसन्न थे और हास्यविनोद कर रहे थे. एक दो बार नहीं अपितु बत्तीस बार तप्त शलाका कंधेपर जगह जगह रखी गई. श्री गुरुजी के शरीर से तनिक भी प्रतिक्रिया हुई नहीं, न उनके मुखपर वेदना के लक्षण दिखाई पड़े. मानो, उन्होंने अपने को शरीर से अलग कर दिया हो.

5. शरीर पर अधिकार

श्री गुरुजी का अपने शरीर पर विलक्षण अधिकार था. वे उससे कितना भी कार्य ले सकते थे. संघशिक्षा वर्ग में एक बार दोपहर के बौद्धिक वर्ग के लिये आते समय उन्होंने कहा – चलो तुम्हारा चिकित्सा विभाग देखा जाये. मैंने प्रसन्नता से कहा – चलिये. अस्वस्थ स्वयंसेवकों को भी आप का दर्शन मिल जायेगा. वहाँ सभी को देखकर उन्होंने डॉक्टर से थर्मामीटर देखने के लिये माँगा और स्वयं को लगाया. मैं उसे कौतुक समझकर देखने लगा, पर अरे यह क्या? गुरुजी को 102 डिग्री का ज्वर निकला. मैं सोचने लगा कि अब क्या होगा? मेरे चेहरे पर चिन्ता की छाया देखकर वे बोले – अरे! चिन्ता कैसी? बौद्धिक वर्ग होगा. बौद्धिक वर्ग से ज्वर का क्या मतलब?
इतना कहकर श्री गुरुजी सीधे मंडप में चले गये. एक बार भी माथे पर हाथ नहीं गया और न किसी इंगित से कोई जान सका कि यह बौद्धिक वर्ग 102 डिग्री ज्वर में हो रहा है. मैं तो इसी को व्यावहारिक अध्यात्म समझता हूँ. – रज्जू भैया

6. बिच्छू का दंश पाँव में है मस्तिष्क में नहीं!

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते समय एक दिन श्री गुरुजी अपना एक पाँव बकेट में डाले हुये पुस्तक पढ़ने में मगन थे. सहसा एक मित्र आया. उसके पूछने पर गुरुजी ने उसे बताया कि पाँव में बिच्छू ने डंक मारा. इसलिये पोटॅशियम परमैगनेट के द्रावण में मैंने पाँव रखा है. उसका विष धीरे धीरे निकल जायेगा. मित्र को बड़ा आश्चर्य लगा. कष्ट, वेदना आदि के बारे में पूछने पर सहजता से गुरुजी बोले -‘अरे भाई बिच्छू ने पाँव को डंक मारा है, मेरे मस्तिष्क को तो नहीं मारा. तो भला पुस्तक पढ़ने में दिक्कत कैसी?’

मित्र देखते ही रह गया. बाद में पूरे विद्यार्थी मित्रों तथा अध्यापकों में इस घटना की कई दिनों तक चर्चा होती रही.

7. उन्मत्त उपद्रवों में उनका धैर्य

30 जनवरी 1948 को दिल्ली में महात्मा गाँधी की हत्या हुई. उस घटना की तीव्र और क्रोधित प्रतिक्रियाएं सारे देश में उठने लगीं. शीर्षस्थ नेताओं से लेकर स्थानीय कार्यकर्ताओं तक सभी रा.स्व.संघ के विरोध में उत्तेजनापूर्ण शब्दों में आग उगलने लगे. महाराष्ट्र में और विशेषकर नागपुर में इन प्रतिक्रियाओं ने उपद्रव और हिंसा का रूप धारण किया. गांधीजी की हत्या हुई, उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन श्री गुरुजी चेन्नई में थे. वहाँ से ही श्री गुरुजी ने इस घटना का निषेध कर सांत्वना प्रकट करनेवाले तार पं. नेहरु, सरदार पटेल तथा देवदास गांधी को भेजे और वे नागपुर के लिये चेन्नई से निकल पड़े. नागपुर आते ही उन्होंने पं. नेहरू तथा पटेल इन दोनों को विस्तृत पत्र भेजे.
दि. 1 फरवरी को नागपुर की परिस्थिति स्फोटक बनी. प्रक्षोभ बढ़ता गया. आद्य सरसंघचालक डाहेडगेवार जी की समाधि के शिखरों को तथा तुलसी वृंदावन को उन्मत्त भीड़ ने तोड़ डाला. दोपहर में श्री गुरुजी के घर के अगल बगल भीड़ ने पथराव किया. उसी दिन शाम को चिटनीस पार्क में आमसभा हुई, जिसमें वक्ताओं ने उत्तेजनापूर्ण भाषणों से लोगों को उकसाया, भड़काया. कार्यकर्ता तथा अधिकारी श्री गुरुजी की सुरक्षा के लिये कटिबद्ध थे. भीड़ को आते देख संघ के अधिकारियों ने श्री गुरुजी की अन्यत्र व्यवस्था करने की योजना करके उनको वहाँ चलने की प्रार्थना की. कार्यकर्तागण भीड़ का प्रतिकार करने सिद्ध हो गये. परिस्थिति में तनाव हर क्षण बढ़ता जा रहा था. किसी क्षण कुछ भी हो सकता था. पर श्री गुरुजी शांत थे. उनका धैर्य बना हुआ था. श्री गुरुजी ने कहा – लगता है आप लोग बाहर की परिस्थितियों और आपत्तियों के कारण उत्तेजित हो उठे हो. आप लोग अब यहाँ से जायें और मुझे शांतिपूर्वक रहने दें. मेरी चिन्ता आप बिल्कुल न करें. आप कहते हैं कि मैं अन्यंत्र चलूँ, लेकिन क्यों? आज तक मैं जिस समाज के लिये कार्य करता आया हूँ, वह समाज यदि मुझे नहीं चाहता तो मैं कहाँ जाऊँ और क्यों जाऊँ? और न मेरी रक्षा में आप उपद्रवियों पर प्रत्याघात करें. जिस हिन्दू समाज के लिये मेरा सम्पूर्ण जीवन समर्पित है, उस समाज के बन्धु ही मेरे द्वार पर परस्पर संघर्ष करें, और अपने ही बन्धुओं का रक्त मेरे घर के सामने गिरे, यह कदापि ठीक नहीं. जो भी होना है, हो जाने दीजिये. अब मेरे सन्ध्यावन्दन का समय हो गया है. आप सभी लोग यहाँ से जाइये. इतना कहकर श्री गुरुजी सन्ध्यावन्दन के लिये चले गये. संयोग से सभा समाप्त होने के कुछ ही मिनट पूर्व श्री गुरुजी के घर की ओर जानेवाले रास्ते बन्द कर दिये गये थे तथा उनके घरपर पुलिस का पहरा लगा दिया गया. इस संकटपूर्ण, तनावपूर्ण और प्रक्षुब्ध परिस्थिति में श्री गुरुजी के अतीव धैर्य का ही नहीं अपितु उनकी अनोखी दृष्टि का जो परिचय हुआ, वह इतिहास का एक बोधपृष्ठ सिद्ध हुआ.

(श्री गुरुजी समग्र दर्शन खण्ड, 2 प्रतिबंध पर्व, पृ.7,8,)

8. रक्षणकर्ता

1964 के अप्रैल मास में पूज्य श्री गुरुजी कुमाऊँ के प्रवास पर आये थे? उनके साथ प्रातः पिथौरागढ़ से चलकर हम लोग कोई दस बजे मायावती पहुँचे. आश्रमवासियों का सत्कारभाव, आश्रम की सुव्यवस्था तथा वहाँ का दैवी भावापन्न वायुमंडल था ही ऐसा कि साधारण व्यक्ति के मन में अद्धैत का उद्वेलन उत्पन्न कर दे. तब फिर महर्षि विवेकानन्द और (उनके गुरुभाई) स्वामी अखण्डानन्दजी, एक की शिक्षा और दूसरे की प्रत्यक्ष दीक्षा को जीवन में चरितार्थ करने वाले साधक की अवस्था, उनकी तल्लीनता, उनकी भाव-विभोरता, बस देखते ही बनती थी. गुरुजी की वह तन्मयावस्था, वस्तुतः वाणी का विषय नहीं है. रात्रि को चम्पावत में पड़ाव किया. उन दिनों सामरिक महत्त्व के कारण पिथौरागढ़ – टनकपुर मार्ग का डायरेक्टर जनरल आफ बोर्डर रोड (डी जी आर बी) ने अधिग्रहण कर उसे चैड़ा करना चालू किया था. यातायात एकमार्गीय ही चलता था, परन्तु निजी गाडि़यों और कारों पर यह प्रतिबंध लागू नहीं था. सड़क पर दोनों ओर मलवा पड़ा होने के कारण गाडि़यां चलाने मे असुविधा थी. प्रातः चलने के पूर्व चाय पीते पीते श्री गुरुजी ने मुझे मिलाकर तीनों चालकों को पर्वतीय मार्गों में गाड़ी चलाते समय ध्यान रखने के लिये अनेक बातें ऐसी बतायीं, जो वैसी हमारे ध्यान में नहीं थीं. किसे पता था कि आगे आनेवाले खतरे से, वे भविष्यद्रष्टा हमें सचेत कर रहे हैं.

चलथी के प्रसिद्ध पुलपर पहुँचने के पहले ही, सैनिक वाहनों की एक श्रृंखला आयी. सड़क चौड़ी थी, फिर भी एक ट्रक पर आन टेस्ट’ (परीक्षणार्थी वाहन) लिखा हुआ था. एक तीव्र मोड़ पर वह ट्रक इतना दायें मुड़ गया कि उसने पहले हमारी कार को टक्कर मारकर कोई एक गज हमारे बायें खड्ड की ओर ढकेल दिया. इस ओर की मुंडेर टूटी हुई थी. कुछ मलबे का ढेर सा पड़ा हुआ था. और उसके नीचे था हजारों फीट गहरा खड्डा. एक क्षण के लिये ही वह दृश्य दिखा-बायीं ओर की खिड़की खुली थी, मलबे पे खड़े वे देवता पुरुष कार को सहारा दे रहे थे. मलवा टिका रहा, खिसका क्यों नहीं? ये रहस्य आज तक समझ में नहीं आया. यदि कार सूत बराबर भी बायें बढ़ जाती अथवा गुरुजी एक इंच भी पीछे हटते तो ……..! कुमाऊँ की पहाड़ी गोवर्धन बन गयी और उसको सहारा दिया, इस युग के योगी ने. ‘कहो, रामनारायण ठीक हो न?’ घबराये हुए चालक को उन्होंने सांत्वना दी. दायीं ओर की खिड़की और मडगार्ड क्षतिग्रत हुए, पर चालक को खरोंच भी न लगी. उनके ठीक पीछे मेरा बम्फर जा टकराया, कुछ क्षतिग्रस्त हुआ और अगली गाड़ी को पुनः एक धक्का लगा.
‘अरे, टक्कर भी इतनी हल्की, जरा जोर से लगाते’-हँसते हुए मानो कुछ हुआ ही नहीं हो, ये शब्द उन्होंने कहे. संघकार्य ईश्वरीय कार्य है यह प्रायः सुना करता था. आज ईश्वर को प्रत्यक्ष रक्षा करते देखा. – घनश्यामदास

9. एक क्षण में गलतधारणा दूर

मुम्बई के एक प्रख्यात साहित्यकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उत्सव में अध्यक्ष होकर नागपुर पधारे. संघ एवं श्रीगुरुजी के साथ यही उनका प्रथम परिचय था. उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा – जब मुझे यह सूचना मिली कि संघ के उत्सव में अध्यक्षीय कार्यवाही के लिए श्रीगुरुजी का निमंत्रण मिला है, तो मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था. यह इसलिये कि मैं तो संघ के लिये अत्यन्त अपरिचित था. श्रीगुरुजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे प्रबल हिन्दू संगठन के सेनापति हैं, यह बात मेरे मित्रों ने मजाक में कही और कहा – क्या उनके द्वारा एक पागल साहित्यकार को निमंत्रण? तुम इस पर विश्वास करते हो? तुम कैसे मूर्ख हो? नागपुर जाने की भूल कदापि न करना. श्री गोलवलकर से भेंट तो दूर रही, तुम उनका दर्शन भी न कर सकोगे. वे सात घेरों वाले किले में रहते हैं.

मित्रों ने मुझे बहुत सावधान किया, किन्तु मैंने नागपुर जाने का निर्णय कर लिया. नागपुर स्टेशन पर उतरते ही दाढ़ी और लम्बे बाल वाले व्यक्ति ने मेरा हार्दिक स्वागत करते हुए मुझे पुष्पमाला पहनायी. मैंने धीरे से एक व्यक्ति से पूछा, यह कौन है? उसने बताया कि ये ही श्रीगुरुजी हैं. इतना सुनना था कि मेरा सारा अस्तित्त्व पानी-पानी हो गया. मुझे मित्रों की बात याद आयी. परन्तु प्रत्यक्षतः श्रीगुरुजी की मुक्त हँसी, उनकी आत्मीयता और सादगी देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया. हमारे जैसे लोग भी संघ के बारे में अज्ञानतावश गलत धारणा रखते हैं, और भी न जाने कितने रखते होंगे! – हो. वे. शेषादि

10. अद्भुत स्मरण शक्ति

श्रीगुरुजी तिन्नेवेली नगर में गये थे. वहाँ एक दिन प्रातः काल वे रमणन् नामक स्वयंसेवक से भेंट करने गये. घर में वे उनके वृद्ध पिता से भी मिले. उन्होंने श्रीगुरुजी का यथोचित सत्कार किया. चायपान और बातचीत के बाद चलने के लिये तैयार गुरुजी ने जब उन्हें नमस्कार किया, तब वे बोले – आप के दर्शन से मैं धन्य हो गया. आपसे मेरी यह पहली भेंट है, परन्तु मैं स्वयं को कृतार्थ अनुभव करता हूँ.

गुरुजी ने कहा – दर्शन इत्यादि तो क्या, हम लोग अपने पवित्र कार्य के लिये मिलते हैं, यह हमारी पहली भेंट तो नहीं है.

रमणन के पिता – आप क्या कह रहे हैं? क्या इससे पूर्व भी हम मिले हैं? संघ से मेरा परिचय तो पिछले वर्ष ही हुआ है और इसी वर्ष आप पहली बार आये हैं.

गुरुजी ने उनसे पूछा – क्या आप नौकरी करते समय कभी नागपुर में रहे हैं?

उन्होंने कहा – हाँ.

श्रीगुरुजी – क्या आप कुछ दिन सरायपाली में थे ?

उनके हाँ करते ही श्रीगुरुजी ने कहा – जब आप सर्वप्रथम वहाँ आये तो घर न मिलने के कारण एक अध्यापक के यहाँ ठहरे थे न?

पिता बोले – हाँ, हाँ !

बिचारे वृद्ध सज्जन को लगा कि गुरुजी ज्योतिषी हैं या कोई जादूगर?

उन्होंने पूछा – पर यह सब आपको कैसे मालूम ?

गुरुजी ने कहा – उस घर में माधव नाम का 12, 13 वर्ष का एक छोटा लड़का था. याद आया आपको?

पिताजी – हाँ, हाँ याद आया.

उनके ऐसा कहते ही गुरुजी ने कहा – मैं ही वह माधव हूँ.

वे सज्जन गुरुजी की स्मरणशक्ति देखकर दाँतो तले अंगुलि दबाते रह गये. – पद्माकर भाटे

11. तीस साल बाद

सन 1940 में जब प.पू. डाक्टरजी के मासिक श्राद्धदिन के निमित्त मैं नागपुर गया था, तब श्रीगुरुजी के साथ मेरा परिचय हुआ. सन 1942 में श्रीगुरुजी प्रथम बार कर्नाटक प्रान्त के प्रवास पर आये थे तथा आथनी में मेरे यहाँ ठहरे थे. उस समय मेरा बड़ा लड़का अण्णा बहुत ही छोटा था. श्रीगुरुजी ने उसके साथ परिचय कर लिया.

इस घटना के लगभग तीस वर्ष बाद विगत सन 1973 के फरवरी मास में श्रीगुरुजी पूना स्टेशन पर रेलगाड़ी में सवार हुये. स्टेशन पर उन्होंने मेरे बड़े लड़के को देखा तो उसे उसके नाम से संबोधित कर अपने निकट बुलाया. उन्होंने उससे पूछा – तुम अथनी के अण्णा गाडगील हो ना? तुम्हारे पिताजी विट्ठलराव कुशल तो हैं ? मेरे पुत्र ने पूना से पत्र भेजकर मुझे उक्त घटना की सूचना दी. वह पत्र पढ़कर मैं गद्गद् हो गया.

श्रीगुरुजी कैन्सर रोग से पीडि़त थे. फिर भी उनकी स्मरणशक्ति ज्योंकि त्यों बनी हुई थी. 30 वर्ष पूर्व एक छोटे बालक के साथ हुये परिचय को ध्यान में रखकर, उन्होंने उसे पहचाना. वह उनकी अद्भुत स्मरणशक्ति तथा आत्मीयता का ही परिचय था. – विट्ठलराव गाडगील

12. मेरा लंगोटिया दोस्त

जिन्हें आज सारा भारत श्रीगुरुजी कहता है, उन्हें मैं बचपन में ‘मधु’ कहता था. हम दोनों एक कक्षा में साथ साथ पढ़ा करते थे. खंडवा के राजकीय हाईस्कूल के छात्र थे. एक बार नगर में आये कार्लेकर ग्रैण्ड सर्कस देखने हम दोनों गये थे. उस सर्कस में पिंजरे के अन्दर दो बन्दर थे. एक काले मुँह का और दूसरा लाल मुँह का. उन दोनों की उछल-कूद देखने लगे. बन्दरों की उछल-कूद देख करके मधु भी उसी तरह उछल-कूद कर रहा था. देखनेवालों की भीड़ में दो अंग्रेज सैनिक थे. मधु की उछल-कूद देखकर एक सैनिक ने चिल्लाकर कहा – ‘अरे ओ, कलमुहे बन्दर’.

मधु ने उस अंग्रेज को तपाक से जवाब दिया – ‘अरे ओ, लालमुहे बन्दर’.

सैनिक ने लपककर मधु को पकड़ना चाहा, पर मधु उसके हाथ नहीं आया. फिर उसने मधु का पीछा किया, पर मधु तो भीड़ में गुम हो गया था. बचपन के दिनों की उन बातों का एक जमाना गुजर गया. 35 साल बाद मधु को मैंने इन्दौर में देखा, संघ के सरसंघचालक के रूप में. बचपन में मुझे इस बात की कभी एक क्षण के लिये भी कल्पना नहीं आयी कि भविष्य में मधु का व्यक्तित्व इस प्रकार निखर उठेगा और वह लाखों स्वयंसेवकों का श्रीगुरुजी बन जायेगा. मेरे मन में बड़ा संकोच था कि अब इससे मिलूँ या न मिलूँ. पता नहीं मधु मुझे पहचानेगा या नहीं ! परन्तु मेरी इच्छा के विपरीत मेरा एक मित्र मुझे घसीटकर वहाँ ले गया, जहाँ वे ठहरे थे. उस कमरे में वे संघ के कार्यकर्ताओं से बातचीत कर रहे थे. कमरे में जाकर मैं एक किनारे बैठ गया. पर यह क्या हुआ? मुझे वहाँ बैठे-बैठे एक दो मिनट ही बीते होंगे कि वह ‘मधु’ अपने उच्च आसन से उठकर, उतरकर धीरे से सीधे मेरे पास आया और मुझे अपनी बाँहों में कस लिया. बाँहों मे भींचे भींचे ही उन्होंने उपस्थितों से कहा –

‘‘यह मेरा प्रिय मित्र बाबू, मेरा लंगोटिया दोस्त !’’ मेरा हृदय भर आया था, मैं कुछ बोल नहीं सका. बस, हृदय की उमड़न आँखों की राह से बहने लगी, बरसने लगी. – वामनजी पंडित

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