नई दिल्ली. मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय में शपथपत्र देकर यह स्पष्ट किया है कि त्रिभाषा सूत्र के अंतर्गत संस्कृत भाषा का स्थान कोई विदेशी भाषा नहीं ले सकती. 05 जनवरी, 2011 को केन्द्रीय विद्यालय संगठन द्वारा यह आदेश जारी किया गया था कि छठी से आठवीं कक्षा तक केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत के स्थान पर जर्मन भाषा पढ़ाई जायेगी. इसके विरोध में दिल्ली उच्च न्यायालय में संस्कृत शिक्षक संघ दिल्ली की ओर से एक जनहित याचिका दायर की गई, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीमती मोनिका अरोड़ा ने लगभग साढ़े तीन वर्ष तक भारतीय संस्कृति की रीढ़ संस्कृत भाषा के सम्मान की लड़ाई लड़ी.
जब यह याचिका दायर की जा रही थी, तब न्यायाधीश का सहज प्रश्न था कि आज के समय में संस्कृत कौन पढ़ रहा है? श्रीमती अरोड़ा ने कहा, “मुझे अत्यंत दु:ख और पीड़ा हुई. मेरे दिल और दिमाग ने कहा- जर्मनी में किसी व्यक्ति को जर्मन भाषा पढ़ने के लिए वैधानिक लड़ाई नहीं लड़नी पड़ती, इसी प्रकार चीन में चीनी भाषा पढ़ाई जाती है. फ्रांस में फ्रांसीसी और स्पेन में स्पेनिश पढ़ाई जाती है. ये सभी लोग अपनी-अपनी भाषाओं में सोचते हैं, बोलते हैं और लिखते हैं. वे अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और विरासत पर गौरव महसूस करते हैं. जबकि भारत में हम मुकदमे लड़ रहे हैं कि न्यायालयों में हमें हिन्दी में बहस की अनुमति दी जाये, हमारे बच्चों को संस्कृत पढ़ने की अनुमति दी जाये और हमारी भाषा की जगह किसी और भाषा को न दी जाये. अंत में मेरे दिमाग में यही आया कि यह भारत में ही हो सकता है. हमने संस्कृत के सम्मान और प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ी और स्वाभाविक रूप से विजयी हुये.
कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार शिक्षा और भारत-भारतीयता की चिंता छोड़ भ्रष्टाचार में तल्लीन थी, सो संस्कृत की भी विदाई हो तो क्या बिगड़ता है. इससे भी अनर्थकारी बात यह हुई कि केन्द्रीय विद्यालय संगठन ने एक और आदेश जारी किया कि संस्कृत शिक्षकों को ड्यूटी का हिस्सा मानते हुए जर्मन भाषा अतिरिक्त रूप में पढ़नी होगी. तभी वे केन्द्रीय विद्यालयों में जर्मन भाषा पढ़ा सकेंगे. यह तर्क दिया गया कि शिक्षा शास्त्री और अध्यापक पात्रता परीक्षा के परिप्रेक्ष्य में उन्हें जर्मन भाषा पढ़ाने के लिए केवल एक डिप्लोमा पाठ्यक्रम की आवश्यकता पड़ेगी.
इसी प्रकार का एक आदेश चार अन्य विदेशी भाषाओं-जर्मन, फ्रेंच, स्पेनिश और चीनी के लिये भी जारी किया गया. अपनी जनहित याचिका में संस्कृत शिक्षक संघ दिल्ली ने यह तर्क रखा कि हिन्दी और अंग्रेजी भाषा के बाद केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाता रहा है, संस्कृत के स्थान पर विदेशी भाषा को पढ़ाना त्रिभाषा सूत्र का उल्लंघन है. नियमों के मुताबिक विदेशी भाषा को अतिरिक्त भाषा के रूप में माध्यमिक स्तर अथवा आठवीं तक लिया जा सकता है. इसके साथ ही वर्ष 2005 में बने राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचे और 1968 में बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति का यह खुला उल्लंघन है. जिसमें संस्कृत भाषा के शिक्षण और प्रोत्साहन पर बल दिया गया है.
दिल्ली उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी. रोहिणी की खण्डपीठ के समक्ष भारत सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि केन्द्रीय विद्यालय संगठन द्वारा 05 जनवरी 2011 को जारी अधिसूचना कि संस्कृत के स्थान पर जर्मन भाषा को पढ़ाया जायेगा, तर्कहीन और अविवेकपूर्ण है, यह त्रिभाषा सूत्र के सर्वथा प्रतिकूल है, कोई भी विदेशी भाषा संस्कृत के स्थान पर तीसरा स्थान नहीं ले सकती.
भारत सरकार ने अपनी ओर से प्रस्तुत शपथपत्र में स्पष्ट किया है कि केन्द्रीय विद्यालय संगठन और गोईथे संस्थान, मैक्समुलर भवन के बीच में जो समझौता (एम.ओ.यू.) सितम्बर 2014 तक के लिए हुआ था, उसे नवीकृत नहीं किया जायेगा. इस प्रकार केन्द्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा उच्च न्यायालय में प्रस्तुत इस शपथपत्र के बाद विवाद का मामला स्वत: ही समाप्त हो गया है.
केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत विषय पढ़ रहे हजारों छात्र अब देश की इस प्राचीन और समृद्ध भाषा को पढ़ पायेंगे और संस्कृत भाषा की कीमत पर किसी विदेशी भाषा को पढ़ने के लिये उन्हें बाध्य नहीं होना पड़ेगा. केन्द्र सरकार की ओर से की गई यह पहल संस्कृति, संस्कृत भाषा और धरोहर की रक्षा में मील का पत्थर सिद्ध होगी.