नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और झारखंड प्रान्त के कार्यकर्ताओं के प्रेरणा स्तम्भ राजाभाऊ का जन्म ग्राम डेहणी (यवतमाल, महाराष्ट्र) में पाण्डुरंग सावरगाँवकर जी के घर में 21 मई, 1920 को हुआ था. उनके जन्म वाले दिन नृसिंह चतुर्दशी थी. इसलिये उनका नाम नरहरि रखा गया. इस प्रकार उनका पूरा नाम हुआ नरहरि पांडुरंग सावरगाँवकर, पर महाराष्ट्र में प्रायः कुछ घरेलू नाम भी प्रचलित हो जाते हैं. वे अपने ऐसे नाम ‘राजाभाऊ’ से ही पूरे बिहार और देश में विख्यात हुये.
खेलकूद में रुचि के कारण वे 11 वर्ष की अवस्था में ही शाखा जाने लगे थे. जब वे छह-सात साल के ही थे, तब संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी यवतमाल इनके किसी सम्बन्धी के घर आये थे. वहाँ उन्होंने बड़े स्नेह से राजाभाऊ का हाथ पकड़कर उन्हें शाखा जाने को कहा था. राजाभाऊ ने पूज्य डॉ. जी के इस आदेश को स्वीकार किया और जीवन भर निभाया.
राजाभाऊ बड़े कठोर और अनुशासित स्वयंसेवक थे. विद्यालय के समय से ही इन्होंने स्वातंत्र्य वीर सावरकर को अपना आदर्श नायक और प्रेरणास्रोत मान लिया था. आगे चलकर उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बीएससी और फिर कानून की पढ़ाई पूरी की. उस समय श्री माधव सदाशिव गोलवलकर भी वहीं थे. उनके आग्रह पर वे काशी में ही संघ का काम करने लगे.
जब उन्हें छुट्टियों में विस्तारक बनाकर ग्रामीण क्षेत्र में भेजा गया, तो उन्हें हिन्दी बोलनी भी नहीं आती थी. इतना ही नहीं, उन्हें शाखा में प्रचलित केवल एक ही खेल (नेता की खोज) आता था, पर धीरे-धीरे अपनी लगन से राजाभाऊ ने सब कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर अनेक नयी शाखाएँ खोलीं. राजाभाऊ ने संघ के तीनों वर्ष का प्रशिक्षण क्रमशः 1939, 40 तथा 41 में प्राप्त किया. उनकी संघ के शारीरिक कार्यक्रमों में अत्यधिक रुचि थी. इस कारण वे आग्रहपूर्वक प्रतिवर्ष संघ शिक्षा वर्ग में शिक्षक रहते थे. उन्हें दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी और रज्जू भैया जैसे वरिष्ठ लोगों को प्रशिक्षण देने का सौभाग्य मिला. अतः ये सब लोग भी उनका बहुत आदर एवं सम्मान करते थे. वर्ष 1944 में प्रचारक जीवन स्वीकार करने पर उन्हें बिहार भेजा गया. फिर तो उन्होंने अन्तिम साँस भी वहीं ली.
संघ कार्य में प्रचारक के नाते उन्होंने बिहार में छपरा जिला, पटना महानगर, धनबाद विभाग, दक्षिण बिहार प्रान्त बौद्धिक प्रमुख, वनवासी कल्याण आश्रम (झारखंड प्रान्त) के मार्गदर्शक आदि के दायित्व निभाये. इतने वरिष्ठ प्रचारक होने के बाद भी उनके मन में बड़ेपन का कोई अभिमान नहीं था. बिहार के अधिकांश प्रचारक और कार्यकर्ता उनसे अवस्था और अनुभव में छोटे थे, इसके बाद भी वे उनके बौद्धिक और चर्चा बड़े ध्यान से सुनते थे.
वृद्धावस्था एवं बीमारी के कारण उनका प्रवास बन्द हो गया था. वे राँची में झारखंड के प्रान्तीय कार्यालय पर ही रहते थे. 28 मार्च, 2000 को झारखंड के पूर्व प्रान्त संघचालक मदन बाबू का देहान्त हो गया. राजाभाऊ की उनसे बहुत निकटता थी. वे अपने पुराने साथी की अन्त्येष्टि में भाग लेने के लिये अविलम्ब कोलकाता चले गये, पर यह प्रवास उन्हें बहुत भारी पड़ा. कोलकाता से लौटते ही उनका स्वास्थ्य अचानक बिगड़ गया. उन्हें तत्काल अस्पताल ले जाया गया, पर भरपूर उपचार के बाद भी उनकी स्थिति में सुधार नहीं हुआ. अस्पताल में ही 10 अप्रैल, 2000 को उन्होंने अन्तिम साँस ली.