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भारत का मूल स्वर है सामाजिक समरसता – अखिलेश्वरानंद जी महाराज

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सद्भावना सम्मेलन में संतों ने दिया सामाजिक सद्भाव का संदेश

ग्वालियर (विसंकें). म.प्र. गौपालन एवं पशु संवर्धन बोर्ड के अध्यक्ष महामंडलेश्वर स्वामी अखिलेश्वरानंद जी महाराज ने कहा कि सामाजिक समरसता भारत का मूल स्वर है. सतयुग से लेकर कलयुग तक ऋषि-मुनियों, साधु-संतों ने अपनी आध्यात्मिक परंपरा में अपने-अपने काल में सामाजिक समरसता को मुखरित किया है. स्वतंत्रता के बाद देश को नया संविधान मिला, जिसे मैं लोकतंत्र की गीता मानता हूं. संविधान में भारत को एक सेक्यूलर (धर्मनिरपेक्ष) देश घोषित किया गया. ऐसा इसलिए किया गया, ताकि शासन व प्रशासन में बैठे लोग अपने धर्म, वर्ण, जाति के साथ पक्षपात और अन्य धर्म, वर्ण, जाति की उपेक्षा न करें. लेकिन इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि समाज भ्रमित हो गया. दुनिया में हमारे देश की जगद्गुरू, विश्वगुरु के रूप में जो पहचान थी, हमारी जीवन जीने की जो शैली थी, जो महत्वपूर्ण सूत्र, सिद्धांत थे, उन्हें हम भूलते चले गए. हमारी ऋषि परंपरा विषमता में घिरती चली गई और समाज बिखरता चला गया. वे रविवार (06 मई) को सद्भावना सम्मेलन आयोजन समिति द्वारा डॉ. भगवत सहाय सभागार में आयोजित सद्भावना सम्मेलन में संबोधित कर रहे थे.

इस अवसर पर साध्वी परिषद की राष्ट्रीय महामंत्री साध्वी प्रज्ञा भारती जी सहित अन्य पूज्य संतगण उपस्थित थे. स्वामी अखिलेश्वरानंद जी ने कहा कि मैं उसी परंपरा से आता हूं, जिस परंपरा से न्यायविद् और कानूनविद् आते हैं. जब मौलिक अधिकारों पर प्रहार होता है तो न्यायालय ही हमें न्याय देता है, लेकिन कई बार अल्पज्ञान के कारण न्यायालय के निर्णय को समझ नहीं पाते हैं. हम अपने संस्कारों और संस्कृति की गहराई को भी नहीं समझ पा रहे हैं. स्वामी जी ने सर्वोच्च न्यायालय के हाल ही के एक निर्णय की चर्चा करते हुए कहा कि राजनैतिक दल वोट के लिए षड्यंत्र करते हैं. न्यायालय का अपने निर्णय में सिर्फ यह कहना था कि किसी के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए. यदि मामले की जांच किए बिना किसी निर्दोष व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया तो यह उसके साथ अन्याय होगा. न्यायालय में किसी के प्रति नफरत का भाव नहीं है. न्यायालय में सभी को न्याय ही मिलता है.

स्वामी जी ने संविधान की कुछ धाराओं से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि भारत का जो भू भाग है, उसमें दो विधान और दो प्रावधान नहीं होना चाहिए. संविधान में अब तक कई संशोधन हो चुके हैं तो एक संशोधन और होना चाहिए. जब कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक भारत एक है तो विधान और प्रावधान भी एक ही होना चाहिए. समान रूप से सभी के साथ न्याय और सभी का विकास होना चाहिए. उन्होंने सतयुग से कलयुग तक के तमाम संस्मरणों को उदाहरण रूप में प्रस्तुत कर साबित किया कि भारत की हिन्दू संस्कृति में छुआछूत को कभी स्वीकार नहीं किया गया. जिस प्रकार शबरी, गरुड़, कागभुषुण्ड, केवट, निषाद के बिना रामकथा पूर्ण नहीं है, उसी प्रकार सभी वर्ण और जातियों के बिना भारत पूर्ण नहीं है. स्वामी जी ने कहा कि भगवान जगन्नाथ जी को भक्तों की जूठन का भोग लगाया जाता है और वही जूठन उनके प्रसाद (भात) में मिलाई जाती है, जिसे देश के करोड़ों भक्त श्रद्धा पूर्वक ग्रहण करते हैं. यह सतयुग से कलयुग तक सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा प्रमाण है.

उन्होंने कहा कि भारत में जब-जब सामाजिक सद्भाव डगमगाया है, तब-तब संतों ने ही सामाजिक सद्भाव स्थापित किया है. इन्हीं संतों ने राम जन्मभूमि पर राम मंदिर निर्माण का शिलान्यास एक ऐसे व्यक्ति से करवाया, जो संत रैदास जी की जाति से था. बनारस में आयोजित छठी धर्म संसद में शामिल संतों ने बाल्मीक के घर में भोजन करके सामाजिक समरसता का बड़ा संदेश दिया था. इन तमाम संदेशों को जन-जन तक प्रसारित करने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि हम सभी के अंदर एक ही चैतन्य व्याप्त है तो फिर हम एक-दूसरे के लिए अछूत कैसे हो सकते हैं. छुआछूत एक पाखण्ड है और यह पाखण्ड बंद होना चाहिए. ग्वालियर से प्रारंभ हुई सामाजिक समरसता की यह गंगा यहीं नहीं सूख जाए. इस गंगोत्री का प्रवाह देश के कौने-कौने तक पहुंचना चाहिए.

अनेकता में एकता ही भारत की पहचान – प्रज्ञा भारती जी

साध्वी प्रज्ञा भारती जी ने कहा कि आज देश में चारों ओर अग्नि धधक रही है. जातिवाद और आरक्षण जैसे मुद्दों को लेकर लोगों में आक्रोश है. सभी श्रेष्ठता प्राप्त करना चाहते हैं. ऐसे में इस प्रकार के सद्भावना सम्मेलन आवश्यक हैं. यह हम सभी के लिए गौरव की बात है कि आज पहली बार धर्म, संस्कृति, समाज, राष्ट्र चिंतन के लिए इस प्रकार का आयोजन हो रहा है. ये हमारा सौभाग्य है कि हमारा जन्म भारत की पावन भूमि पर हुआ है. साध्वी जी ने कहा कि अनेकता में एकता ही भारत की पहचान है. विषमता में समरसता और प्रतिकूलता में अनुकूलता भारत की विशेषता है. यही संदेश हमें पूरे भारत में फैलाना है. यदि हम अलग-अलग जाति के चार लोगों का रक्त आपके सामने रख दें तो कोई पहचान नहीं पाएगा कि कौन सा रक्त किस जाति के व्यक्ति का है, क्योंकि हम सभी का रक्त समान है. इसी प्रकार यदि चार नवजात शिशुओं को एक ही पालने में लिटा दिया जाए तो उन्हें भी कोई नहीं पहचान पाएगा कि कौन सा शिशु किस जाति का है. उन्होंने कहा कि गिरिवासी और वनवासी धर्मान्तरित होकर हम से दूर हो रहे हैं क्योंकि हमने उन्हें तिरस्कृत कर दिया है. हम उनके पास बैठना नहीं चाहते हैं. हम राम के उपासक हैं तो हमें राम के आचरण को जीवन में उतारना होगा. राम ने राज्य वैभव का परित्याग कर दिया और शबरी के यहां जूठे बेर खाए. यह सामाजिक सद्भाव का ही तो परिचायक है. जो हमसे दूर हो रहे हैं, उन्हें अपनाएं. जब हम पांचों उंगलियों को एक साथ जोड़कर मुट्ठी बनाते हैं. उसी प्रकार जब हम चारों वर्णों को जोड़ेंगे, तभी हम सामाजिक समरसता का संदेश दे पाएंगे.

सद्भावना सम्मेलन में कबीर आश्रम थाटीपुर के संत कृष्ण गिरि मौनी महाराज जी ने कहा कि हम सभी में एक ही ईश्वर का अंश है, इसलिए भेदभाव नहीं होना चाहिए. हम सभी को शांति और सद्भाव के साथ रहना है.

सद्भावना सम्मेलन में मंच पर संत देवप्रसाद गिरि बरौआ महाराज, समर्थ तीर्थ महाराज बेला की बावड़ी, गोपालदास महाराज, दीपानंद महाराज, स्वामी लक्ष्मणानंद महाराज, ठाकुरदास महाराज सबलगढ़, रामकृष्ण आश्रम के स्वामी सुप्रदीप्तानंद महाराज, संत कृपाल सिंह महाराज, मोहनानंद महाराज भिण्ड, नरेशानंद महाराज रजगढिय़ा, हरिओमपुरी महाराज मुरैना, रामश्री महाराज गणेश आश्रम, रामाधार गुरु आदि संतगण उपस्थित थे. संतगणों ने भारत माता के चित्र के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन एवं भगवान बुद्ध के चित्र पर पुष्प अर्पण कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया. सेवानिवृत्त न्यायाधीश अशोक पाण्डेय जी ने विषय की प्रस्तावना रखी.

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