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हैदराबाद विलय दिवस – निजामशाही से हैदराबाद की मुक्ति में जनता ने भी भागीदारी निभाई

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भारत पर ब्रिटेन के लंबे शोषण, उत्पीड़नपूर्ण औपनिवेशिक शासन से 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लौह व्यक्तित्व और अदम्य साहस के धनी तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल के अथक प्रयासों से 562 देशी रियासतों में से अधिकतर का भारत में विलय हो गया. जिन्ना जहां एक ओर द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को मिलाकर पाकिस्तान बनाने की योजना में सफल हो गया, वहीं भारत में अन्य रियासतें जहां पर सत्ता मुस्लिम शासकों के हाथ में थी, उन्हें उकसाकर भारत को विखंडित करके इस्लामिक राज्य तैयार करने की योजना पर भी काम कर रहा था. भोपाल, जूनागढ़, हैदराबाद, त्रावणकोर, कश्मीर, जोधपुर भारत में शामिल होने को तैयार नहीं थे. ये अलग स्वतंत्र देश के रूप में रहना चाहते थे. बाद में मुस्लिम राजा शासित भोपाल और हिन्दू राजा शासित त्रावणकोर और जोधपुर भी भारत में सम्मिलित हो गए. जूनागढ़ और कश्मीर का भी भारत में विलय हो गया. किन्तु हैदराबाद के निजाम की योजना भारत से अलग अपनी अलग सत्ता बनाए रखने पर अडिग थी.

हैदराबाद राज्य की स्थापना औरंगज़ेब के सेनापति गाज़ीउद्दीन खान फ़िरोज़ जंग के पुत्र मीर क़मरुद्दीन चिन किलिच खान ने की थी, जो खुद को खलीफा, अबू बकर का वंशज मानता था. हैदराबाद राज्य मुग़ल साम्राज्य का एक अंतिम अवशेष था, जिसकी राजनीतिक दृष्टि से भौगोलिक स्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण थी, क्योंकि यह उत्तर में मध्य प्रांत, पश्चिम में बाम्बे और दक्षिण एवं पूर्व मद्रास राज्य से घिरा था. हैदराबाद ब्रिटिश भारत का एक प्रमुख राज्य था, जिसकी जनसंख्या लगभग 1.6 करोड़, वार्षिक राजस्व 26 करोड़ रुपये और क्षेत्रफल लगभग 82000 वर्ग मील था जो इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के कुल क्षेत्रफल से भी बड़ा था और इसकी अपनी मुद्रा भी थी.

भू-राजनीतिक और सामरिक दृष्टि से हैदराबाद के इतने महत्वपूर्ण स्थान के बावजूद ब्रिटिश प्रशासन ने कभी भी हैदराबाद को कोई विशेष स्थान नहीं दिया, जिसकी निज़ाम हमेशा से इच्छा रखता था. हैदराबाद राज्य की 85% जनसंख्या हिन्दू थी, लेकिन प्रशासन के महत्वपूर्ण विभाग जैसे नागरिक प्रशासन, पुलिस और सेना के पदों से हिन्दुओं को पूर्णतया वंचित रखा गया था. ये विभाग केवल मुसलमानों के लिए संरक्षित थे. निजाम द्वारा गठित 132 सदस्यीय विधान सभा में भी, अधिकांश मुस्लिम थे. निज़ाम ने छेत्री के नवाब के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल लॉर्ड माउंटबेटन से मिलने के लिए भेजा, जिसमें निज़ाम द्वारा बेरार क्षेत्र को पुनः हैदराबाद को वापस सौंपने और हैदराबाद को ब्रिटिश राज्य का स्वतंत्र डोमिनियन का दर्जा देने की मांग पर चर्चा करने की बात कही गयी थी.

निजाम की दोनों मांगों को तकनीकी रूप से अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि माउंटबेटन का मानना था कि बेरार क्षेत्र व्यावहारिक रूप से और लंबे समय से केंद्रीय प्रांत का अभिन्न अंग बन चुका था. इसलिए क्षेत्र के लोगों की सहमति से ही यथास्थिति में कोई भी बदलाव किया जा सकता है. इसी तरह, हैदराबाद के लिए डोमिनियन की स्थिति को भी अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि माउंटबेटन का विचार था कि ब्रिटेन की महामहिम सरकार प्रस्तावित दो नए देशों भारत और पाकिस्तान में से किसी एक के माध्यम से ही किसी देशी रियासत को स्वीकार करेगी. प्रस्तावों के अस्वीकार होने के बाद निज़ाम का प्रतिनिधि मण्डल वापस हैदराबाद लौट गया.

08 अगस्त को निज़ाम ने फिर से माउंटबेटन को भारत के साथ विलय न करने की मांग दोहराते हुए लिखा कि हैदराबाद अपनी स्वतंत्र संप्रभु राज्य की स्थिति को नहीं त्यागेगा, किन्तु भारत के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करने को तैयार है, जिसमें हैदराबाद के लिए स्वायत्तता की शर्तें रखी गईं जो प्रायः एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के पास होती हैं. इन शर्तों में विशेष रूप से पाकिस्तान के साथ भारत के किसी भी युद्ध की स्थिति में भारत के साथ शामिल न होने के विशेषाधिकार की मांग की गई.

इस प्रस्ताव की शर्तें इतनी षड्यंत्रपूर्ण और अस्वीकार्य थीं कि उन्हें स्वीकार करना कदापि संभव नहीं था. इसलिए एक बार फिर प्रतिनिधिमण्डल बिना किसी निष्कर्ष के वापस चला गया. भारत के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने मामले मे सीधे हस्तक्षेप करते हुए निज़ाम से भारत में विलय का आग्रह किया. लेकिन निजाम ने पटेल के आग्रह को खारिज करते हुए 15 अगस्त 1947 को हैदराबाद को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया.

सरदार पटेल ने लॉर्ड माउंटबेटन को एक पत्र लिखा, जिसमें निज़ाम के दुराग्रह की विस्तृत चर्चा की गयी और भारत के लिए हैदराबाद विलय की सामरिक आवश्यकता का विस्तार से उल्लेख किया. लॉर्ड माउंटबेटन भारत के साथ हैदराबाद के विलय को लेकर आशान्वित थे और उन्होंने निवेदन किया कि निज़ाम को कुछ अतिरिक्त समय दिया जाना चाहिए ताकि 15% अल्पसंख्यकों को शिक्षित किया जा सके जो हैदराबाद प्रशासन मे शीर्ष स्थानों पर विराजमान हैं.

माउंटबेटन ने पटेल को सलाह दी कि इस चुनौती को भारत बिना बल प्रयोग के निपटे. माउंटबेटन की तरह प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की भी मंशा मामले के शांतिपूर्ण समाधान के पक्ष में थी, हालांकि पटेल इससे बिल्कुल असहमत थे. वे खुफिया सूत्रों के माध्यम से निज़ाम की गतिविधियों पर दृष्टि रखे हुए थे. हैदराबाद का निज़ाम भारत में विलय बिल्कुल नहीं कराना चाहता था. वह एक तरफ बार-बार प्रतिनिधि मण्डल भेजकर भारत सरकार को उलझाए रखना चाहते थे, दूसरी ओर विदेशों से हथियारों की खरीद भी कर रहे थे और जिन्ना के भी संपर्क में थे. निज़ाम ने इसी बीच अपना प्रतिनिधिमण्डल पाकिस्तान भी भेजा और यह जानने की कोशिश की कि क्या वह भारत के खिलाफ उनके राज्य का समर्थन करेंगे? जिन्ना ने निजाम के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया.

निज़ाम की महत्वाकांक्षाएं और गतिविधियां केवल राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर तक सीमित नहीं थीं, बल्कि निज़ाम एक मुस्लिम चरमपंथी संगठन मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एम्आईएम) के माध्यम से बहुसंख्यक हिन्दुओं में आतंक और डर पैदा करके सत्ता पर अपनी पकड़ बना रखी थी. इस संगठन के पास लगभग 20 हजार स्वैच्छिक कार्यकर्ता थे, जिन्हें रजाकार कहा जाता था. ये निजाम के संरक्षण में समाज में आतंक का माहौल बनाने के लिए काम करते थे.

कई दौर की बातचीत के बाद, नवंबर 1947 में, हैदराबाद ने भारत के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें राज्य में भारतीय सैनिकों को तैनात करने के अलावा अन्य सभी व्यवस्थाओं को जारी रखा गया. इसी बीच उग्रवादी रज़ाकारों द्वारा हिंसा, लूट और बलात्कार की गतिविधियों से राज्य के बहुसंख्यक हिन्दुओं का जीवन नरक बन गया. हैदराबाद में आतंक का पर्याय बन चुके रजाकारों और निज़ाम द्वारा भारत के विरुद्ध सिडनी कॉटन जैसे विदेशियों के हथियार खरीदने, स्थानीय फैक्टरियों को आयुध निर्माण इकाइयों में बदलने और पाकिस्तान से संपर्क साधने जैसे कदमों को देखते हुए सरदार पटेल ने हैदराबाद रियासत द्वारा समझौते का उल्लंघन करने का एक ज्ञापन दिया. निज़ाम की तरफ से भारत सरकार की आपत्तियों का उचित उत्तर और समाधान देने के बजाय एक सिरे से खारिज कर दिया गया.

सरदार पटेल ने हैदराबाद के निज़ाम के दुस्साहस को गंभीरता से लेते हुए सेना को सितंबर 1948 में हैदराबाद राज्य के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई का आदेश दिया. 13 से 17 सितंबर 1948 तक चले 109 घंटे के अभियान को “ऑपरेशन पोलो” नाम दिया गया. 17 सितंबर को हैदराबाद के निजाम ने अपनी सेना के साथ आत्म समर्पण कर दिया और हैदराबाद का सफलतापूर्वक भारत में विलय हो गया.

हैदराबाद का भारत विलय भारतीय इतिहास की अद्वितीय घटना है क्योंकि यह अपने आप में पहला अभियान था, जिसमें अब तक भारत में प्रचलित शासन और सत्ताओं के बीच संघर्ष की परंपरा से हटकर सीधे जनता भी भागीदार बनी.

संघ के स्वयंसेवकों ने वारंगल में फहराया था तिरंगा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सत्याग्रहियों ने हैदराबाद मुक्ति अभियान में बढ़ चढ़कर भाग लिया. अगस्त 1946 में जब वारंगल शहर में रजाकारों ने मारकाट मचाई तो स्वयंसेवकों ने वारंगल किले के उत्तर क्षेत्र में कतार बनाकर विरोध प्रदर्शन किया और तिरंगा फहराकर “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊंचा रहे हमारा” का नारा लगाया. स्वयंसेवकों ने तिरंगे की सौगंध खाकर शपथ ली कि अपनी जान दे देंगे, किन्तु तिरंगे को नहीं झुकने देंगे. पूरा क्षेत्र “भारत माता की जय” “इंकलाब ज़िंदाबाद”, “महात्मा गांधी की जय” के नारों से गूंज रहा था. सबसे महत्वपूर्ण यह कि वारंगल का किला निज़ाम के लोगों का केंद्र था और वहां न केवल तिरंगा फहराया जा रहा था, बल्कि देश भक्ति के नारे भी लग रहे थे.

राजनीतिक और सामाजिक संगठनों के अलावा अ-राजनीतिक प्रकृति के युवाओं की राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित होने के लिए निज़ाम, और उसकी रजाकार निजी सेना के अत्याचारों के विरुद्ध किया गया सशस्त्र संघर्ष जन राष्ट्रवाद का एक अनुपम उदाहरण है. हैदराबाद पर सैन्य कार्यवाही से पूर्व युवाओं और किसानों द्वारा निज़ाम की पुलिस और रजाकारों के विरुद्ध मोर्चा खोलना हैदराबाद के भारत विलय का एक स्वर्णिम अध्याय है. बिदार क्षेत्र के किसानों द्वारा उस समय के संघर्ष के लोकगीत आज भी गाए जाते हैं.

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