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अमेरिका की घटना को लेकर भारत में भी नस्लीय संघर्ष पैदा करने का षड्यंत्र

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शशांक शर्मा

संयुक्त राज्य अमेरिका के मेनियापोलिस शहर में एक अफ्रीकी अमेरिकी व्यक्ति की पुलिस कार्रवाई में मौत हो गई. एक पुलिस अधिकारी पर आरोप है कि उसने 25 मई को फ्लॉयड नामक व्यक्ति के गले को अपने घुटनों पर दबाए रखा, जिससे उसकी मौत हो गई. इस घटना को श्वेत-अश्वेत नस्लीय संघर्ष करार देते हुए अमेरिका के कई शहरों में विरोध प्रदर्शन होने लगा, बाद में हिसा और दंगे में परिवर्तित हो गया. अब भारत में कुछ विशेष बुद्धिजीवी अमेरिका की इस घटना को भारत से जोड़कर अपने अराजकतावादी मंसूबों को फिर अंजाम देने में लग गए हैं. एक ने तो अमेरिका के नस्लवादी रंगभेद व्यवहार की भारत की वर्ण व जाति व्यवस्था से तुलना करने लगे और इन लोगों के मन में भावना यही है कि भारत में भी जातियों का नस्लीय विभाजन कर समाज को हिंसा की आग में झोंक दें, जिससे कार्ल मार्क्स और माओ की आत्मा को शांति मिले.

यह तो पूरी दुनिया सहित भारत की जनता भी जान चुकी है कि वामपंथी झूठ फैलाकर किस तरह समाज और देश के विघटन का सपना देख रहे हैं. इन बुद्धिजीवियों ने भी अमेरिका के मामले में भ्रम फैलाने का प्रयास किया है. वामपंथियों को तो अमेरिका कभी फूटी आँख नहीं सुहाया, क्योंकि सोवियत संघ सहित दुनिया में ज्यादातर साम्यवाद का प्रयोग असफल हो गया और अमेरिका अपनी ताकत बरकरार रखने में सफल रहा. करेले पर नीम स्वरूप डोनाल्ड ट्रंप के प्रति वामपंथियों के विचार शुरू से ही अच्छे नहीं है, इसलिए प्रचार यह हो रहा है कि ट्रंप की दक्षिणपंथी नीतियों के कारण समस्या बढ़ी है. जबकि अमेरिका में नस्लीय भेदभाव के चलते दंगा और हिंसा कोई नई बात नहीं है.

अमेरिका में नस्लीय घटनाएं पहले भी होती रही हैं. बराक ओबामा जब राष्ट्रपति थे, तब वर्ष 2009, 2012, 2014 में भी श्वेत-अश्वेत के बीच नस्लीय संघर्ष हुए हैं. दंगा हुआ, लूटपाट हुई, कर्फ़्यू लगा. अमेरिका में नस्लीय भेदभाव का इतिहास शुरू से रहा है, 1960 के दशक में मार्टिन लुथर जूनियर के प्रयास से तत्कालीन राष्ट्रपति कैनेडी द्वारा 1964 में क़ानूनन नस्लीय भेदभाव को समाप्त किया गया. कानून तो बन गया, लेकिन वहां की जनता के दिलों से यह भेदभाव खत्म नहीं हो सका. यही कारण था कि मार्टिन लूथर और राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या हो गई. वर्ष 2008 में अमेरिकी इतिहास में पहली बार एक अफ्रीकी अमेरिकी बराक ओबामा राष्ट्रपति बना, एक बार नहीं दो-दो बार, इसके बावजूद वहां पर नस्लीय भेदभाव समाप्त नहीं हो सका.

अभी अमेरिका में जो हिंसा और दंगा हो रहा है, उसके पीछे वामपंथी समूह एन्टिफा का हाथ होने का संदेह है. अमेरिकी गुप्तचर विभाग को दंगा भड़काने में चीन जैसे बाहरी देशों व ताकतों के हाथ होने का संदेह है. वामपंथियों की यही विशेषता है कि जिन देशों में साम्यवादी सरकार है या रही है, वहां पर धर्म, नस्ल और आर्थिक असमानता के नाम पर निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतारते हैं. विविधता हर समाज या देश की विशेषता होती है, लेकिन साम्यवादी विचारधारा इस बात को स्वीकार नहीं करती. संस्कृति, धर्म, भाषा की विविधता को खत्म करने का कुत्सित कार्य माओ ने चीन में किया था. जो लोग अमेरिका में दक्षिणपंथी विचार का प्रभाव बताकर भ्रमित कर रहे हैं, वे नहीं जानते कि किसी देश या समाज में हर तरह की विचारधारा साथ-साथ चलती है. जिस श्वेत-अश्वेत संघर्ष की कहानी ये अराजकतावादी लोग सुना रहे हैं, उन्हें भी पता है कि अमेरिका में अश्वेत की हत्या के विरोध में सबसे ज्यादा गोरे लोग साथ दे रहे हैं. अमेरिका में हिंसा के विरूद्ध पुलिस या नेशनल गार्ड कभी कठोरता नहीं बरतता. ऐसी भी तस्वीरें आई हैं, जिनमें उपद्रवियों व प्रदर्शन करने वालों के सामने पुलिस ने घुटने टेक कर माफ़ी मांगी है. अमेरिका मे जनता के अधिकारों को लेकर सरकार व प्रशासन हमेशा संवेदनशील रहती है, ये वहां के लोकतंत्र की विशेषता है. यह विचार करें कि ऐसा विरोध अगर चीन में होता तो?

याद कीजिए 1989 के मई-जून माह में चीन के छात्रों ने बीजिंग के तियानमैन चौराहे पर प्रदर्शन किया था, 04 जून को चीन की साम्यवादी तानाशाही सरकार ने मार्शल लॉ लगाकर सेना ने हजारों छात्रों को मौत के घाट उतार दिया था. वहाँ शांतिपूर्ण तरीक़े से चल रहे आंदोलन को कुचलने के लिए सेना ने टैंक का इस्तेमाल किया था. टैंक के नीचे कुचलकर 11 छात्र मर गए थे. अपनी जनता पर ऐसा अत्याचार करने वाली निरंकुश सरकार जिस विचारधारा पर चलती है, उस विचारधारा के गुर्गे दुनिया में लोकतंत्र, शांति-अहिंसा, मानवाधिकार का पाठ पढ़ाते हैं.

ये वही लोग हैं, जिन्हें भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था सही नहीं लगती, भारत के संविधान को लेकर सवाल खड़े करते हैं. भारतीय समाज की व्यवस्था इन्हें नहीं सुहाता क्योंकि मार्क्स परिवारवादी नहीं थे. रूस में परिवार नाम की कोई संस्था ही नहीं थी. ऐसे लोग भारत की विविधता को कमजोरी बताकर उनमें दरार डालने की साज़िश रचते रहे हैं. सामाजिक व्यवस्था की कमजोरियों को बढ़ा चढ़ा कर ऐसा बताते हैं कि मानो समाज सदियों से खांचों में बंटा हुआ था, जबकि वास्तविकता इससे विपरीत थी. कई बार कुछ वर्ग के साथ अन्याय हुए, लेकिन यह किसी भी समाज में होता है. कुछ अपवाद स्वरूप घटनाओं को पूरे समाज का चरित्र बताकर ऐसा दुष्प्रचार किया गया कि भारतीय समाज आज संघर्ष की मुद्रा में नज़र आता है.

यही लोग अमेरिका की घटना को लेकर भारत में भी नस्लीय संघर्ष पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं. भारत में लगातार वामपंथियों द्वारा युवाओं को भड़का कर या अनुसूचित जाति व जनजातियों के मन में समाज के प्रति विद्वेष की भावना भर कर हिंसा फैलाने का षड्यंत्र किया जाता है. नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ किस प्रकार मुसलमानों को भ्रमित कर पूरे देश को हिंसा की आग में झोंकने की साजिश की गई थी. इसके लिए देश के अनेक संगठनों को पैसे की मदद की गई. ये वही लोग हैं जो सांप्रदायिकता के नाम पर छाती पिटते थे, देश ने देखा कि कैसे ये अराजकतावादी तत्व देश में संप्रदायों को भड़का कर दंगा करवाने का कार्य किया. ये वही लोग हैं जो देश में आतंक फैलाने वालों के लिए न्याय की माँग करते हैं, न्यापालिका में अपील दायर कर संविधान और अपराधी के अधिकार की दुहाई देते हैं. जब माओवादी जन अदालत लगाकर ग्रामीणों व आदिवासियों पर मुखबीरी करने का आरोप मढ़कर मौत के घाट उतार देते हैं, तब कोई दलील या अपील की गुंजाईश नहीं रहती. ऐसी निर्मम हत्याओं के विरोध में कभी इन वामपंथी बुद्धिजीवियों ने कोई आंदोलन नहीं किया, कोई लेख नहीं लिखा. कहा जा सकता है कि माओवादियों की बर्बरतापूर्ण कृत्यों को इनका मौन समर्थन हासिल है.

साम्यवाद के नाम पर जो अराजकता पिछले सौ सालों में कार्ल मार्क्स और माओ के चेलों ने फैला रखी है, उससे दुनिया में कहीं समानता तो आई नहीं, उलटे लोगों की स्वतंत्रता और अधिकार छिन गए. दुनिया भर में दस करोड़ लोगों का लहु पीकर भी यह विचारधारा अपनी सनक नहीं छोड़ पा रही है. समाज में भारतीय विचार ही सबको समान और स्वजन के भाव से देखता है. वसुधैव कुटुम्बकम के विचार पर चलने वाले समाज में बे-सिर पैर की विचारधारा को थोपने के प्रयास सफल नहीं होंगे.

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