नई दिल्ली. सच फाउंडेशन द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय के पटेल चेस्ट सभागार में “राष्ट्रीय आरक्षण नीति और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय” विषय पर संगोष्ठी आयोजित की गई. 18 जून को आयोजित संगोष्ठी में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने गोष्ठी में उपस्थित सांसद, विधायक, अधिवक्ता, पत्रकार, शिक्षाविद तथा छात्रों को संबोधित किया. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एससी, एसटी और ओबीसी को आरक्षण नहीं दिए जाने पर उन्होंने कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के बारे में यह एक बड़ा भ्रम है कि यह एक माइनॉरिटी संस्थान है. इस भ्रम को दूर करने की आवश्यकता है, इसलिए यह गोष्ठी आयोजित की गयी.
उन्होंने कहा कि यहां प्रश्न है कि पार्लियामेंट में पास किये गए एक्ट से बना एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय होने के बाद भी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यायल ने अभी तक एससी, एसटी और ओबीसी को आरक्षण क्यों नहीं दिया ? केन्द्रीय विश्वविद्यालय और माइनॉरिटी इंस्टीट्यूशन साथ-साथ नहीं चल सकते.
डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के स्थापना से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य से अवगत कराया कि वर्ष 1873 में एक मोहम्डन एंग्लो ओरिएंटेड स्कूल बनने की बात चली. वर्ष 1873 में स्कूल बना, वर्ष 1875 में यह हाई स्कूल हो गया, वर्ष 1877 में इसे कॉलेज की मान्यता मिल गई. सर सैयद अहमद खाँ शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए प्रयत्नशील थे तथा एक अच्छी बड़ी संस्था बनाना चाहते थे. मुस्लिम बन्धुओं ने इसमें अधिक सहयोग किया. वह चाहते थे कि विश्वविद्यालय बने, लेकिन वर्ष 1898 में सर सैयद साहब गुजर गए. वर्ष 1901 से विश्वविद्यालय बने ऐसी मांग प्रारम्भ हुई. विश्वविद्यालय बने तो डिग्री सरकार से मान्यता प्राप्त हो, या मान्यता प्राप्त न हो, यह डायलमा आ गया. मुस्लिम समाज में उस समय की जो सोसायटी थी और जो एजेंसीज थीं, उनके दो मत थे. एक कहता था कि सरकार से मान्यता नहीं मिलेगी तो हमारे बच्चों की डिग्री को रिकोग्नाइजेशन समाज में नहीं मिलेगा. उससे पूर्व 1915 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का एक्ट पास हो गया और मालवीय जी ने यह शर्तें मान लीं कि माध्यम शिक्षा का अंग्रेजी रहेगा, नियंत्रण एक्ट से होगा और विद्यालय सम्बन्ध नहीं रहेंगे. वर्ष 1915 में एक्ट बना और 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय बन गया. उधर, मुस्लिमों को फिर लगा कि यह तो हम भी ले सकते हैं, इसलिए उन्होंने सरकार से मान्यता लेकर सरकार के सभी प्रावधानों को मानकर वर्ष 1920 में केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की सहमति दी. उन दिनों के मुस्लिम प्रतिनिधियों को अंग्रेजों ने कहा था कि ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का एक्ट पढ़ लीजिए, वहां जैसा है, वैसा आपको मिलेगा, इससे ज्यादा कुछ नहीं मिलेगा’. जब संविधान बना तो ध्यान देने की बात यह है कि केवल बीएचयू और एएमयू को संघीय सूची में रखा गया, बाकी को राज्यों की सूची में डाला गया क्योंकि दिल्ली का उस समय कोई राज्य नहीं था. इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय को भी यूनियन लिस्ट में मान लिया गया.
डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने आह्वान किया कि क्या हम वो दिन ला सकते हैं, जब सदियों से वंचित हमारे बन्धु-बहनों को संविधान के द्वारा प्रदत्त आरक्षण का अधिकार राष्ट्रीय महत्त्व के इस बड़े विश्वविद्यालय में भी मिले. इसके जो वास्तविक पक्ष हैं, संवैधानिक पक्ष हैं, लीगल आस्पैक्ट हैं, इनका हम अगर अध्ययन करेंगे तो तत्काल हम इसको बहुत अच्छे प्रकार से समाज में, विद्वान लोगों के सामने अच्छे से रख सकेंगे और हम यह बाध्यता उत्पन्न कर सकते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय हमारे एससी, एसटी, ओबीसी के बन्धुओं को आरक्षण का लाभ दे. अगर यह पहले शुरु से होता तो लाखों लोगों को अब तक लाभ होता, वह स्थान-स्थान पर अच्छी नौकरी पाते, ब्यूरोक्रेटस होते, बीटेक, एमटेक, एमसीए, बीसीए, लॉ, एलएलएम, रिसर्च करते, सारे देशभर में दुनियाभर में चले जाते. एक बड़ा भारी भेदभाव यहां उनके साथ हो गया है. लेकिन अब उसको दूर करने की आवश्यकता है. केन्द्र की सरकार पूरी शक्ति के साथ उस पक्ष को लेकर खड़ी है. एक वर्बल एफिडेविट उन्होंने जमा किया है, शीघ्र ही शायद हो सकता है कि वह इसका व्यवस्थित एफेडेविट जमा करें. इसके लिए उनको जो उचित लगेगा, वैसा वो जमा करेंगे. लेकिन यह जैसे ही जमा होगा, वैसे ही डिबेट भी आ सकती है. डिबेट में हमें अपना पक्ष ध्यान रहे तथा उसे ठीक प्रकार से प्रस्तुत करें.
अनुसूचित जाति, जनजाति व ओबीसी के बंधुओं की एक न्याय सम्मत, संविधान सम्मत मांग को ‘सच’ फाउंडेशन के लोगों ने यहां तीन सत्रों आयोजन किया. गोष्ठी में सच के संयोजक बलबीर पुंज, सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता मोनिका अरोड़ा आदि इस विषय से जुड़े विद्वानों ने भी संबोधित किया. कार्यक्रम में राजकुमार फलवारिया ने मंच संचालन तथा विषयवस्तु प्रस्तुत की.