रांची (विसंकें). रत्नगर्भा कश्मीर ने प्राचीन काल से ही विश्व को असंख्य अनमोल रत्न दिये. जिन्होंने अपने आध्यात्मिक ज्ञान, साधना की पराकाष्ठा तथा प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर समूचे विश्व को नई दिशा दी. कश्मीर में अनेक मत-पंथ जन्मे और फले-फूले. विद्यमान व्यवस्था का परिवर्तन कई बार हुआ, किन्तु यह परिवर्तन पुराने अस्तित्व को समाप्त करने वाला नहीं था.
आचार्य अभिनव गुप्त इस श्रृंखला की एक अति महत्वपूर्ण कड़ी हैं. आचार्य अभिनवगुप्त भारत के एक महान दार्शनिक एवं साहित्य-समीक्षक थे. वे शैवदर्शन के प्रखर विद्वान थे. आचार्य अभिनवगुप्त अद्वैत आगम एवं प्रत्यभिज्ञा-दर्शन के प्रतिनिधि आचार्य तो हैं ही, साथ ही उनमें एक से अधिक ज्ञान-विधाओं का भी समावेश है. भारतीय ज्ञान एवं साधना की अनेक धाराएं अभिनवगुप्तपादाचार्य के विराट् व्यक्तित्व में आ मिलती हैं और एक सशक्त धारा के रूप में आगे चल पड़ती है. आचार्य अभिनवगुप्त के ज्ञान की प्रामाणिकता इस संदर्भ में है कि उन्होंने अपने काल के मूर्धन्य आचार्यों-गुरूओं से ज्ञान की कई विधाओं में शिक्षा-दीक्षा ली. उन्होंने व्याकरण की शिक्षा अपने पिता नरसिंह गुप्त जी से ली थी. इसी प्रकार लक्ष्मणगुप्त से प्रत्यभिज्ञाशास्त्र तथा शंभुनाथ जी (जालंधर पीठ) उनके कौल-संप्रदाय साधना के गुरू थे.
अभिनवगुप्त के पूर्वज कन्नौज के राज दरबार में प्रतिष्ठित विद्वान परिवार से संबंधित थे. उनके पूर्वज अत्रीगुप्त कश्मीर के दिग्विजयी राजा ललितादित्य मुक्तपीड़ के अनुरोध पर श्रीनगर आ गए. उनकी माता योगिनी विमलाकला थी, जिनकी मृत्यु अभिनवगुप्त के बाल्यकाल में ही हो गई.
ज्ञानपिपासु अभिनवगुप्त ने अविवाहित रहकर अपने प्रमुख गुरू लक्ष्मणगुप्त सहित कुल 19 गुरुओं से ज्ञान प्राप्त किया. कई ग्रंथों की रचना कर उन्होंने उस ज्ञान को बांटा. शतहस्ते समाहर, सहस्रहस्ते विकिर के सिद्धांत के एक उदाहरण बन गए थे अभिनवगुप्त. उन्होंने शैव दर्शन के हर आयाम पर लिखा. लगभग 50 पुस्तकों के वे रचनाकार थे. तंत्रालोक, परात्रिंशिका विवरण, परमार्थसार, तंत्रसार, गीतार्थ-संग्रह आदि ग्रंथों के साथ नाट्यशास्त्र एवं ध्वन्यालोक पर विवेचना लिखकर अभिनवगुप्त सामान्य शैव दार्शनिकों से काफी आगे निकल चुके थे. ध्वनि को उन्होंने ‘‘चौथा आयाम’’ कहा. गीता के उपदेश एवं प्रसंगों को उन्होंने नकारा नहीं अपितु प्रतीक रूप में व्यक्त किया. शिव को कोई कृष्ण के रूप में भी संबोधित करे तो वह भी उन्हें मान्य था. कौरव-पांडव युद्ध को उन्होंने विद्या-अविद्या के संघर्ष के रूप प्रस्तुत किया.
अभिनवगुप्त के अंतिम दिनों में उनके अनुयायी उन्हें मंत्रसिद्ध साधक एवं भैरव का अवतार मानने लगे थे. प्रायः 70 वर्ष की आयु में अपने शिष्यों के साथ शिवस्तुति करते हुए श्रीनगर के पास बडगांव जिले के बीरवा गांव की एक गुफा में उन्होंने प्रवेश किया तथा इसी गुफा में दिनांक 04 जनवरी 1016 को शिवमय हो गए. वह गुफा भैरव गुफा के नाम से आज भी विद्यमान है.
कश्मीर की प्राचीन आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को समय की चुनौतियों के साथ समन्वयकारी नए रूप में व्याख्यायित करने वाले इस महापुरूष के जीवन तथा उनकी कृतियों से, वैचारिक कट्टरता के इस युग में समस्त विश्व को, विशेषकर जम्मू-कश्मीर के युवाओं को अवगत कराना, उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.