रविन्द्र सिंह भड़वाल
धर्मशाला
उत्तरी कश्मीर के हंदवाड़ा की दर्दनाक घटना में एक कर्नल समेत भारतीय सेना के पांच जवान वीरगति को प्राप्त हुए. मां भारती की रक्षा में डटे ये जवान अपने फर्ज को निभाते हुए जीवन का सर्वोच्च बलिदान दे गए, लेकिन देश में ऐसे बेगैरत लोगों की भी कमी नहीं जो भारतीय जवानों की शहादतों का अपमान करने को आतुर रहते हैं. बिना ईमान वाले ये लोग हर बार जवानों का अपमान और आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति पैदा करने का कोई ना कोई प्रपंच रच ही लेते हैं. इन राष्ट्रविरोधी ताकतों के पक्ष में खड़े होने वालों में कुछ बड़े नाम हैं दि वायर, रॉयटर्ज और इंडियन एक्सप्रेस.
दि वायर की संपादकीय नीति में दलाली की मात्रा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसने देश के वीर जवानों के बलिदान को भी अपने राष्ट्रविरोधी एजेंडे को बढ़ाने के एक अवसर के रूप में देखा. हंदवाड़ा मुठभेड़ में बलिदानियों का मजाक उड़ाते हुए दि वायर ने अपनी रिपोर्ट में आतंकियों के आगे कथित शब्द जोड़ दिया. इस प्रकार दि वायर ने क्रूर आतंकियों को फेक कवर प्रदान करते हुए कथित शब्द जोड़कर उनके आतंकी होने पर ही संदेह पैदा कर दिया. इतने भर से जब दि वायर को संतुष्टि नहीं हुई, तो इसने खुंखार आतंकी नायकू के लिए अपनी रिपोर्ट में ’ऑपरेशनल चीफ’ शब्द का उपयोग किया.
दरअसल, पत्रकारिता क्षेत्र में कथित शब्द का उपयोग बेहद सामान्य है. खबर का सही समय पर जनता तक पहुंचना बेहद जरूरी होता है. कभी-कभी किसी खबर के किसी तथ्य की पुष्टि के लिए लंबा समय लग जाता है. समय की मांग को ध्यान में रखते हुए तब तक खबर को रोककर भी नहीं रखा जा सकता. इसीलिए खबर के उस तथ्य की पुष्टि हो जाने तक पत्रकारों के पास कथित शब्द का इस्तेमाल करने की सहूलियत रहती है. लेकिन हंदवाड़ा में जिन दरिंदों ने बड़ी बेरहमी के साथ हमारी सेना के पांच जवानों का सीना गालियों से छलनी कर दिया, पीटीआई जैसी न्यूज एजेंसी ने जिनके लिए आतंकी शब्द का इस्तेमाल किया, उसकी पुष्टि के लिए दि वायर को क्या साक्ष्य चाहिए थे. क्या वह खुद पाकिस्तान से इस बात की पुष्टि करवाना चाहता था कि ऐसी कायराना हिमाकत करने वाले दरिंदे कोई और नहीं, बल्कि उसी के द्वारा प्रायोजित आतंकी थे. ध्यान रहे कि पीटीआई की जिस रिपोर्ट का हवाला देकर वायर ने यह खबर छापी थी, उसने भी उनके लिए आतंकी शब्द का ही इस्तेमाल किया था.
तथ्यों के साथ जानबूझकर छेड़छाड़ करके उन्हें पक्षपातपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करके भ्रामक सूचनाएं प्रसारित करने वाली दि वायर पीटीआई की इस रिपोर्ट से छेड़खानी किए बगैर भी नहीं रह सकी. पीटीआई के हवाले से आई इस खबर के साथ कलाकारी करते हुए वायर ने आतंकी शब्द के बजाय ’कथित’ आतंकी शब्द का उपयोग करके पत्रकारीय सिद्धांतों की खिल्ली उड़ाने के साथ-साथ पाठकों को भ्रामक सूचनाएं पहुंचाने का भी अपराध किया है.
हंदवाड़ा मामले में इसकी मंशा को भी पाठकों ने समय पर भांप लिया था और तल्ख प्रतिक्रियाएं दर्ज करवाते हुए इसे आड़े हाथों लिया. इस तरह की पक्षपातपूर्ण एवं राष्ट्रविरोधी ताकतों को बढ़ावा देने वाली नीति के लिए दि वायर की कई बार फजीहत हो चुकी है.
रॉयटर्ज ने भी इस मौके पर आतंकियों के प्रति सहानुभुति पैदा करने का भरसक प्रयास किया. इसके लिए उसने एक दूसरे किस्म का नेरेटिव गढ़ा. रॉयटर्ज ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि भारतीय सेना ने कश्मीर में गणित के अध्यापक से बागी बने कमांडर को मार गिराया. इस संस्थान ने वर्तमान में आतंकियों के मानवता विरोधी चेहरे को छिपाने के लिए उनके अतीत को दिखाकर नाटक रचा. वजह एकदम साफ थी कि बम और बंदूक से नरसंहार करने वाले आतंकी के मारे जाने पर लोगों में एक सुकून भरा संदेश जाता है, जबकि एक गणित के अध्यापक की मौत पर लोगों के मन में मारे जाने वाले के प्रति एक सहानुभुति की भावना पैदा होती है. दूसरी तरफ दिन-रात जान जोखिम में डालकर देश की रक्षा करने वाले सुरक्षाबल जब किसी आतंकी के बजाय गणित के अध्यापक को मारेगा, तो इससे सुरक्षाबलों के प्रति लोगों के मन में नफरत का भाव पैदा होगा. इस प्रकार भारत को वैश्विक बिरादरी में नकारात्मक रूप से पेश करने के लिए सक्रिय ये अंतरराष्ट्रीय शक्तियां एक तीर के साथ दो निशाने लगाने का काम कर रही हैं. आतंकियों के पक्ष में सहानुभुति और भारतीय सुरक्षाबलों के प्रति नफरत पैदा करने के लिए एनडीटीवी ने भी यही लाइन पकड़ी.
कुख्यात आतंकी नायकू को बचाने के लिए इंडियन एक्सप्रेस इन सभी से आगे निकल गई. अपने पेज एक्सप्रेस एक्सप्लेन्ड में इसने बड़ी बारीकी के साथ काम करते हुए अपने पाठकों को समझाया कि किस तरह से एक टेलर के बेटे को गांव की जनता बच्चों के प्रिय शिक्षक के रूप में याद करेगी. आतंकियों को बेकसूर और सुरक्षाबलों को खलनायक साबित करने के लिए शायद ही और किसी तरह की व्याख्या की जरूरत पड़नी थी. बेहतर होता कि इस तरह से आतंकियों के खात्मे पर आहत हुए इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार उसके जनाजे पर जाकर चार आंसू बहा आते. आतंकियों के पक्ष में कलम चलाने के लिए वास्तव में बहुत हिम्मत करनी पड़ी होगी. शायद इसीलिए यह अपनी पंचलाइन के रूप में लिखता है, ’जर्नलिज्म ऑफ करेज’.
यह भारतीय मीडिया का एक रूप है, जिससे एक खास तबके या विचारधारा का बेशक भला होता रहे, लेकिन एक राष्ट्र के रूप में भारत को लाभ नहीं. ऐसी पत्रकारिता केवल और केवल जनता को गुमराह कर सकती है. इस तरह की पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता के जरिए ये संस्थान लोकतंत्र के चौथे स्तंभ वाली भूमिका से भी से दूर हटते हुए ही नजर आ रहे हैं. जिस समाज में जनता सच्ची एवं कल्याणकारी सूचनाओं की अपेक्षा रखती है, वहां इन मीडिया संस्थानों को अपनी संपादकीय नीति की ईमानदारी से पड़ताल करनी होगी. तब गलत को छोड़कर सही राह पर बढ़ते हुए राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए अपने दायित्वों का निष्पक्षता के साथ निर्वहन करना होगा.
लेखक मीडिया विश्लेषक हैं..