सेकुलर पार्टियां, इस्लामिक मौलवी और कथित बुद्धिजीवी तबलीगी जमात की करतूतों पर चुप्पी साधे हुए हैं. भूमिगत जमातियों को निकालने की कोशिश तो दूर, सभी एक सुर से इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश में जुटे हैं.
मलिक असगर हाशमी
ऐसा क्यों होता है कि देश हित में जब सरकारें कोई निर्णय लेती हैं तो कट्टरपंथी मुसलमान अलग खड़ा नजर आता है? हर मामले को मजहबी चश्मे से देखने वाले ऐसे तत्वों को कौन समझाए !
तबलीगी जमात की हठधर्मिता से भारत में कोरोना वायरस (कोविड-19) संक्रमितों की संख्या और इससे होने वाली मौत के आंकड़ों में अचानक तेजी आई है. अपनी करतूतों का खुलासा होते ही अधिकांश जमाती भूमिगत हो गए, जिससे भारत में कोरोना वायरस के तीसरे चरण में पहुंचने का खतरा बढ़ गया है. इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि मजहबी गुरु, मुस्लिम बुद्धिजीवी और तथाकथित सेकुलर पार्टियां भूमिगत जमातियों को निकालने का कोई प्रयास नहीं कर रही हैं, न ही कोई अपील की जा रही है. इसके उलट मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की जा रही है.
जमातियों की करतूत छिपाने की कोशिश
उर्दू अखबारों का आरोप है कि केंद्र और दिल्ली सरकार अपनी नाकामियां छिपाने के लिए तबलीगी जमात के दिल्ली के निजामुद्दीन स्थित मुख्यालय, जिसे मरकज कहा जाता है, में कुछ लोगों के कोरोना संक्रमित पाए जाने पर वायरस के फैलाव के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. इसके विपरीत, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह और इसके बाद दो दिन तक लाखों लोग सड़कों पर निकले तब कोरोना संक्रमण नहीं फैला? क्या ऐसे सवालों से जमातियों या मुसलमानों की जिम्मेदारी कम हो जाती है? ऐसा क्यों होता है कि देशहित में जब सरकारें कोई निर्णय लेती हैं तो भारतीय मुसलमान अलग खड़ा नजर आता है? ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं. ताजा मामले में समझदारी इसी में थी कि जमाती गलती स्वीकार कर सामने आते और इस जानलेवा वायरस के खिलाफ लड़ाई में एकजुटता दिखाते. सवाल यह भी है कि हर मामले को मजहबी चश्मे से देखने वाले ऐसे मुसलमानों को कौन समझाए?
वोटबैंक की चिंता
देश में मुल्ला-मौलवियों के इशारे पर चलने वालों की संख्या अधिक है, इसलिए सब चुप हैं. मुसलमानों का वोट बटोरने वाली पार्टियां भी मरकज मामले में चुप हैं. उन्हें अच्छी तरह पता है कि ऐसे लोगों के विरूद्ध बोलने का मतलब है बड़ा वोटबैंक खो देना. ऐसे कठमुल्लाओं को खुश करने के लिए ये पार्टियां समय-समय उन्हें राज्यसभा, विधान परिषद् में भेजती रहती हैं. 2अप्रैल को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद लॉकडाउन के सवाल पर प्रधानमंत्री नरेंद्री मोदी को दिल खोलकर कोसा. यहां तक कहा कि हड़बड़ी में लॉकडाउन का निर्णय लेने से जगह-जगह मजदूर फंस गए, पर तबलीगी जमात की हिमाकत पर एक शब्द भी नहीं बोलीं. क्यों? केवल इसलिए कि इससे मुस्लिम बिदक सकते हैं. इस मामले में वामदल और तथाकथित सेकुलर पार्टियां भी चुप हैं. मीडिया में दो दिनों पहले ही खबर आ चुकी थी कि मलेशिया की एक मस्जिद में तबलीगी जमात के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के बाद से कोविड-19 लगभग सभी देशों में जोर पकड़ने लगा है.
जमाती कहां गए, पता लगाना मुश्किल
इस आयोजन में मलेशिया, भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, फ्रांस, चीन, बांग्लादेश सहित विभिन्न देशों के 20,000 मुसलमान शामिल हुए थे. इसके तुरंत बाद 27 फरवरी से एक मार्च तक बांग्लादेश, सिंगापुर आदि में तबलीगियों का इजलास हुआ था, जिसमें शामिल होने वाले विभिन्न देशों के जमाती भी कोरोना संक्रमित पाए गए. पिछले महीने तमाम बंदिशों के बावजूद पाकिस्तान के लाहौर में जमात का वार्षिक सम्मेलन हुआ. इसमें काफी संख्या में ऐसे लोग भी शामिल हुए थे, जिनमें कोरोना के लक्षण पाए गए हैं. बड़ी चुनौती यह पता लगाने की है कि ऐसे लोग कहां-कहां गए और किस-किस से मिले, ताकि इनकी पहचान कर वायरस के विस्तार की श्रृंखला को तोड़ा जा सके.
निजामुद्दीन के मरकज को जब पुलिस ने खंगाला तो उसमें 2300 से अधिक लोग लोग पाए गए. इससे पहले यहां एक इस्लामिक कार्यक्रम हुआ था, जिसमें शामिल लोग बाद में देशभर में इस्लाम का प्रचार करने निकल गए थे. उनमें से कुछ को देश के विभिन्न शहरों एवं कस्बों की मस्जिदों, मदरसों से खोज निकाला गया है, पर अभी भी बहुतेरे भूमिगत हैं. यहां तक कि तबलीगी जमात के मुखिया मोहम्मद साद भी भेद खुलने के बाद भूमिगत हो गए थे. जमातियों के इस रवैये से देश पर कितनी बड़ी आपदा आने वाली है, इस्लामिक संगठनों एवं सेकुलर जमातों ने इसकी भी अनदेखी की. एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जैनुल हैरिश कहते हैं कि देशहित और अपने परिवार-समाजहित में भूमिगत जमातियों को खुद ही आगे आ जाना चाहिए था.
नाजुक मौके पर भी बंटे इस्लामिक संगठन
दूसरी तरफ, विभिन्न फिरकों के इस्लामिक संगठन भी ऐसे मौके पर बंटे नजर आ रहे हैं. वे सरकार को जानलेवा लोग से लड़ने में सहयोग करने की बजाए मरकज विवाद में एक-दूसरे की टांग खिंचाई में लगे हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य खालिद रशीद फिरंगी महली भी ऐसे ही लोगों में शामिल हैं. भूमिगत जमातियों को आगे लाने की पहल करने की बजाए ऐसे बयान देकर उन्हें डराते रहे कि जिम्मेदार लोगों को जवाबदेही तय कर इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए. प्राथमिकता तो ऐसे लोगों को चिन्हित कर क्वारेंटाइन करना है. जमियत उलेमा-ए-हिंद के सदर मौलाना सैयद अरशद मदनी भी मुसलमानों को भड़का कर रहे हैं. उन्होंने बयान जारी कर कहा है कि मरकज मामले को सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है. इससे कोराना के विरूद्ध जंग कमजोर होगी. उन्होंने तबलीगी जमात की हिमायत करते हुए कहा कि अचानक लॉकडाउन होने से वहां कई लोग फंस गए थे. देश की मीडिया एकतरफा तस्वीर पेश कर रही है. इस मामले में एआईएमआईएम मुखिया असदुद्दीन ओवैसी भी जमात की हिमायत करते दिखे. उनसे जब पूछा गया कि प्रतिबंध के बावजूद विदेशियों सहित हजारों लोग मरकज में इकट्ठा किए गए? उन्होंने इसका जवाब देने की बजाए यह बताना शुरू कर दिया कि वे सरकार के साथ मिलकर तेलंगाना में किस तरह गरीबों की सेवा कर रहे हैं. बैरिस्टर होने के नाते उन्हें अच्छी तरह पता है कि तबलीगी जमात का रवैया गैर जिम्मेदाराना है.
टुकड़ियों में बंटे मानव बम
कोराना वायरस के चलते विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूरी दुनिया में जलसा-जुलूस पर चेतावनी जारी कर रखी है. इसके बावजूद तबलीगी जमात के लोग विश्व के अलग-अलग देशों में इजतमा करते रहे. इस क्रम में मरकज में भी कार्यक्रम आयोजित किया गया. फिर छोटी-छोटी टुकड़ियों में वे देशभर में फैल गए. अब ऐसे लोगों को मानव बम न कहा जाए तो और क्या कहा जाए? कहने को तबलीगी जमात में ईमान और इस्लाम के बताए रास्ते पर चलने की सीख दी जाती है. मगर इस मामले में तबलीगी जमात के सदर साद और इनके लोग झूठ पर झूठ बोलते रहे. पहले कुछ कागजात मीडिया में जारी कर कहा कि उन्होंने पुलिस प्रशासन से मरकज में फंसे लोगों को निकल जाने के लिए वाहन की मांग की है. लेकिन पुलिस ने वीडियो जारी कर स्पष्ट कर दिया कि मरकज के लोग झूठ बोल रहे हैं. सच तो यह है कि 23 मार्च को ही उन्हें मरकज खाली करने के आदेश दे दिए गए थे.
मरकज पहले से कहता रहा है कि उसके यहां 700-800 लोग हैं, लेकिन इनकी संख्या 2300 से अधिक निकली. बसों से अस्पताल ले जाते समय जमाती अमानवीयता की सारी हदें पार कर गए. वे पूरे रास्ते थूकते गए ताकि दूसरे लोगों में भी संक्रमण फैले. क्या इस्लाम यही सिखाता है? तबलीगी जमात मुसलमानों को क्या यही शिक्षा देती है? केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी कहते हैं कि जमातियों का यह मामला तालिबानी है, इसलिए इनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई जरूरी है ताकि उन्हें सीख मिल सके.
कब सुधरेंगे!
हालांकि तबलीगी जमात के लोगों के खिलाफ कार्रवाई से भारतीय मुसलमान और मुस्लिम संगठन सुधर जाएंगे, इसमें संदेह है. कनाडा के नागरिक तारेक फतेह कहते हैं कि आजादी के बाद से भारत का मुसलमान मौलानाओं के चंगुल में फंसा हुआ है. वे अपने हिसाब से इन्हें इस्तेमाल करते हैं. यह हाल राजनीतिक दलों का है. मजहबी कठमुल्लाओं के षड्यंत्र के चलते ही आजादी से लेकर अब तक कोई ऐसा मुस्लिम नेता उभर कर सामने नहीं आया जो मस्जिद, तलाक और उर्दू के विवाद से ऊपर उठकर उनकी शिक्षा, सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक मसले को लेकर संघर्ष कर सके. इन्हीं मौलानाओं ने पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम के बारे में झूठ फैलाकर मुसलमानों में गलतफहमी पैदा करने की कोशिश की थी कि वे इस्लाम के विरूद्ध वीणा बजाते हैं और साधु-संतों की संगत में रहते हैं, जबकि जिन्होंने भी कलाम की या कलाम पर लिखी पुस्तकें पढ़ी हैं, उन्हें पता है कि वे रोजा-नमाज किया करते थे. उनकी बुनियादी तालीम मदरसे में हुई थी. आज क्या कोई मदरसा दावे के साथ कह सकता है कि उसके यहां से पढ़कर वैज्ञानिक, चिकित्सक निकलते हैं.
भारत के अधिकांश मदरसों से निकलने वाले इस्लाम की आधी-अधूरी जानकारी लेकर या तो किसी मस्जिद में सौ-हजार रूपल्ली पर मुअज्जिन या इमाम बन जाते हैं या अपना मदरसा खोल लेते हैं. यही वजह है कि आज देश में जितने फिरकों में मुसलमान बंटें हैं, सबके अपने-अपने इस्लामी रहनुमा हैं. इनमें से कोई एक-दूसरे की नहीं सुनता. इस्लाम के जानकार और पेशे से इंजीनियर मोहम्मद खुर्शीद अकरम तबलीगी जमात के मुद्दे पर कहते हैं कि हमारे इस्लामिक लीडर खुदापरस्त नहीं, शख्सियत परस्त होकर रह गए हैं. इसका बेहतर उदाहरण तबलीगी जमात के अमीर मोहम्मद साद का वह वायरल बयान है, जिसमें वह कहते सुनाई दे रहे हैं कि मस्जिद से बेहतर मौत की जगह और क्या हो सकती है.
तारेक फतेह एक इस्लामिक घटना का हवाला देते हुए कहते हैं कि एक बार जब प्लेग फैला था, तब मोहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों को घरों में रहने का आदेश दिया था. अब उनके मानने वाले ही उल्टी सीधी बातें करते हैं. दुख की बात यह है कि देश का पढ़ा-लिखा तबका सब कुछ जानते हुए घर में इसकी आलोचना तो करता है, पर सर्वाजनिक तौर पर कुछ बोलने से कतराता है. उसे डर है कि सार्वजनिक तौर पर कुछ भी बोलने पर मौलानाओं के गुर्गे उन पर हमला कर सकते हैं या उनके खिलाफ फतवा जारी कर उन्हें और उनके परिवार को नुकसान पहुंचा सकते हैं. मरकज मामले में भी सोशल मीडिया पर तो लोग गुस्सा निकाल रहे हैं, आगे बढ़कर कोई नहीं कह रहा है कि भूमिगत जमाती यदि जल्द प्रशासन के सामने नहीं आए तो उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा.
(लेखक दैनिक पायनियर, हरियाणा संस्करण के सम्पादक हैं)