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कश्मीर समस्या के समाधान के लिये वहां के समाज को गहराई से समझना आवश्यक – प्रो. कुलदीप चंद्र अग्निहोत्री जी

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भोपाल (विसंकें). हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति एवं हिमालय क्षेत्र के विशेषज्ञ प्रो. कुलदीप चंद्र अग्निहोत्री जी ने कहा कि जम्मू-कश्मीर की समस्या को समझने के लिए वहाँ के समाज को गहराई से समझना जरूरी है. हमें जम्मू-कश्मीर के इतिहास और आतंरिक व्यवस्था को समझना चाहिए. एक बहुत छोटा समुदाय कश्मीर के मूल लोगों पर अधिपत्य जमाना चाहता है, जिसके कारण वहाँ समस्या पैदा हुई है. वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से माखनलाल चतुर्वेदी की जयंती पर आयोजित व्याख्यान में मुख्य वक्ता के रूप में संबोधित कर रहे थे. कार्यक्रम में विवि के कुलपति जगदीश उपासने जी भी उपस्थित रहे.

‘कश्मीर समस्या और समाधान’ विषय पर प्रो. कुलदीप अग्निहोत्री जी ने कहा कि जम्मू-कश्मीर के हालात अब सुधर रहे हैं. कश्मीर के युवाओं को यह बात समझ आ रही है कि अरब से आए गिलानी और सैय्यद जम्मू-कश्मीर के नेतृत्व पर कब्जा जमाना चाहते हैं. सरकारों ने भी अभी तक कश्मीर के मूल लोगों से चर्चा नहीं की है. जब भी कश्मीर के भीतर की समस्या को समझने के लिए संवाद किया जाता है, तब गिलानी और सैय्यदों से ही बात की जाती है. वास्तव में जम्मू-कश्मीर में जो समस्या है, उसे समझने और समाधान के लिए वहाँ के मूल नागरिकों से संवाद करना चाहिए. उन्होंने कहा कि यह बात गलत है कि महाराजा हरि सिंह भारत में जम्मू-कश्मीर का विलय नहीं चाहते थे. ऐतिहासिक तथ्यों को रेखांकित करते हुए प्रो. अग्निहोत्री जी ने कहा कि भारत के अंतिम वायसराय के लगातार प्रयासों के बावजूद भी महाराजा ने पाकिस्तान में शामिल होना स्वीकार नहीं किया. भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में ही हो. किंतु, उन्होंने इसके लिए शर्त यह रख दी थी कि शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर राज्य का प्रधानमंत्री बनाया जाए और विलय का प्रस्ताव भी उन्हीं के माध्यम से आए. जबकि देश की सभी रियासतों के राजे-महाराजाओं ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे.

उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर पाँच हिस्सों में है – जम्मू, लद्दाख, कश्मीर घाटी, गिलगित और बाल्टिस्तान. इनमें से गिलगित और बाल्टिस्तान पाकिस्तान के कब्जे में है. जम्मू और लद्दाख में कोई समस्या नहीं है. कश्मीर घाटी में भी गुर्जर, हिन्दू. सिख और कश्मीर मूल के मुस्लिम भारत के समर्थन में रहते हैं. भारतीय सेना का सहयोग भी करते हैं. किंतु, यहाँ मात्र दो प्रतिशत समुदाय ऐसा है, जो विदेशी मूल का है और राज्य में अशांति फैला रहा है. इनका मूल अरब है. इन्हें बकरों के रूप में जम्मू-कश्मीर में जाना जाता है. जबकि कश्मीर मूल के लोगों को शेर कहा जाता है. हमारी सरकारें बकरों से बात करती रही हैं, किंतु शेरों से नहीं.

प्रो. अग्निहोत्री जी ने कहा कि अंग्रेजों ने एक रणनीति के तहत भारत-पाकिस्तान का विभाजन किया. अंग्रेजों को डर था कि भारत ताकतवर न हो जाए, इसलिए उन्होंने लैंडरूट समाप्त करने के लिए पाकिस्तान बनाया और अंतिम समय तक प्रयास किया कि जम्मू-कश्मीर भी पाकिस्तान का हिस्सा बने. पाकिस्तान न बनाया गया होता तो भारत लैंडरूट के जरिए अफगानिस्तान, इरान और तुर्क से जुड़ा होता.

विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश उपासने जी ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि पत्रकारिता एक जिम्मेदारी का कार्य है. हमारा प्रयास रहेगा कि विश्वविद्यालय के विद्यार्थी पत्रकार के साथ-साथ अच्छे नागरिक भी बनें. ताकि वह राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी को ठीक से निभा सकें. उन्होंने विद्यार्थियों से कहा कि माखनलाल चतुर्वेदी को पढ़ें और उनकी दिखाई राह पर चलें.

इस अवसर पर रतौना आंदोलन और कर्मवीर की पत्रकारिता पर केंद्रित शोधपूर्ण पुस्तक ‘रतौना आंदोलन : हिन्दू-मुस्लिम एकता का सेतुबंध’ पुस्तक का विमोचन भी किया गया. पुस्तक का प्रकाशन विश्वविद्यालय ने किया है. विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव एवं पुस्तक के संपादक लाजपत आहूजा ने पुस्तक का परिचय देते हुए कहा कि माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने समाचार-पत्र ‘कर्मवीर’ के माध्यम से पत्रकारिता को एक दिशा दी थी. पत्रकारिता को उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का हथियार बनाया. सन् 1920 में सागर के निकट रतौना में अंग्रेजों ने वृहद कसाईखाना खोलने की योजना बनाई थी. इस कत्लखाने में सिर्फ गायें नहीं काटी जानी थी, बल्कि हिन्दू-मुस्लिम समाज को बाँटने का भी षड्यंत्र अंग्रेजों ने रचा था. किंतु, माखनलाल चतुर्वेदी ने कर्मवीर में रतौना के विरुद्ध लगातार अभियान चला कर अंग्रेजों के विरुद्ध देश व्यापी आंदोलन खड़ा कर दिया था. इस आंदोलन में उन्हें जबलपुर के पत्रकार मौलवी ताजुद्दीन और सागर के पत्रकार भाई अब्दुल गनी का भी भरपूर साथ मिला. अंतत: इस आंदोलन के कारण मध्यभारत में पहली बार अंग्रेज परास्त हुए थे. उन्हें कत्लखाना खोलने का अपना निर्णय तीन महीने के अंदर वापस लेना पड़ा. पराधीन भारत में इसे पत्रकारिता की सबसे बड़ी जीतों में से एक जीत माना जाता है. इस अवसर पर विश्वविद्यालय के आंतरिक समाचार पत्र ‘एमसीयू समाचार’ का विमोचन भी किया गया.

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