बरसात के सुख, दु:ख और संताप के अनेक पहलू हैं. छह ऋतुओं वाले हिन्दुस्तान में दूसरी ऋतुएं किसी एक तरह प्रभावित करती हो, लेकिन बरसात कई तरह से प्रभावित करती है. यही वजह है कि साहित्य में चाहे जो रहा हो, लोकगीतों में जितना महत्व बरसात को मिला है, किसी और ऋतु को नहीं मिला. उन कवियों के यहां भी जो लोक जीवन के करीब हैं.
प्रकृति ने हमारे सांस्कृतिक जीवन में अति के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी. आषाढ़ बीतते-बीतते बरसात घनी होने लगती है. घरेलू बादलों को छकाता हुआ और परे धकेलता हुआ मानसून का दल हिंद महासागर से हिमालय की दूरी लांघकर पूर्व-पश्चिम यात्रा शुरू कर चुका होता है और शहर-गांव को लांघता हुआ सब तरफ पानी-पानी करता चला जाता है.
जिस देश में बरसारत खेती के तीन चौथाई हिस्से को सीधे और नदियों तथा उनके छोटे-बड़े नालों के माध्यम से सींचने का आसरा हो, उसमें आसमान के पानी को धरती पर चारों तरफ बिखरने और अतिवृष्टि के पानी को नदियों में बांधे रखने के लिए जी-जान लगा दिया जाना मामूली बात है. हमारा सिंचाई का ढांचा पिछले ढाई हजार वर्ष से चला आ रहा है. खासतौर पर तालाबों और नदियों-नहरों के जरिए पानी को बांधने का इंतजाम. लेकिन बरसाती नदियों को क्या कोई कभी बांध पाया है?
तुलसीदास जी ने लिखा है –
छुद्र नदी भरि चली उतराई
जिमि थोरे धन खल बौराई.
भूमि परत भा ढाबर पानी
जिमि जीवहिं माया लपटानी….
हां, तुलसीदास जी ने आदमी के प्रत्यनों को भी प्रशंसा से देखा है. लेकिन यह तब कि बात है जब धरती से ज्यादा छेड़छाड़ नहीं हुई थी और सिंचाई के इंतजामों को अपनी क्षमता और पर्यावरण की मर्यादा से बाहर नहीं होने दिया गया था, लेकिन अब ऐसा नहीं रहा.
दक्षिण-पश्चिम मानसून आते ही दु:ख और संताप का सिलसिला शुरू हो जाता है. शुरू में ही केरल से लेकर पश्चिम बंगाल़ तक के तटवर्ती इलाके छोटी-बड़ी नदियों या बरसात के पानी से जगह-जगह डूब जाते हैं. जन, धन और मिट्टी के उपजाऊपन की क्षति के हर साल नए रिकॉर्ड बन रहे हैं.
पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि जमीन के एक तिहाई पर वनस्पति का कवच होना चाहिए, ताकि जब बरसात का तेज झला आए तो वनस्पति से मजबूत मिट्टी उसे थामे रहे और धीरे-धीरे रिसने दे. न पानी मिट्टी को नदी-नालों में बहाकर किनारे तोड़, आसपास के खेत-खलिहानों और गांवों को चौपट कर सके और न वायुमंडल इतना शुष्क हो जाए कि हवा का दबाव चारों तरफ एक सा न रह सके और बरसात सब तरफ बौछार न फेंक सके. लेकिन पैंसों के लोभ ने वनस्पति के कवच को नष्ट कर दिया है. देश के दस फीसदी हिस्से पर भी अब वनस्पति का कवच नहीं है. नदियां तो मनौतियों, मेलों और तीर्थों का केंद्र थी, अब महाकाल का दूत होती जा रही हैं.
सिंचाई के पूरे तानेबाने में हमारी इंजीनियरी की बुद्धि का तमाशा निकला हुआ है. जगह-जगह सड़कों, रेल की पटरियों, नहरों के तटबंधों और नदियों की बाढ़ रोकने के बंधों के कारण धरती की ढलान इतनी गड़बड़ हो गई है कि पानी साल के अधिकांश महीने में तमाम निचले हिस्सों में जमा रहता है. अगर बरसात के पानी के जमाव को समाप्त करने के उचित इंतजाम हो सके तो पैदावार बिना हल्दी की एक गांठ खर्च किए दोगुना हो सकती है. जंगल कटने के कारण पहाड़ों पर नमी सोख कर सूखे दिनों में भी पानी नदियों के जरिए मैदानों तक पहुंचाने का प्राकृतिक इंतजाम तो छिन्न-भिन्न हो ही गया है क्योंकि बारहों महीनों नदियों में पानी नहीं आता, इसलिए उसका बहाव बरसात के दिनों में जमा हुई मिट्टी-गाद सूख जाने के कारण बाधित ही रहता है. इन सब बदइंतजामियों ने बरसात को साधनहीन लोगों के ही नहीं सभी के कष्टों के दिनों में बदल दिया है.
बरसात के दिनों में तटीय इलाकों में आने वाले चक्रवात और तूफान बढ़े न हों पर तटवर्ती जंगलों के कट जाने के कारण अब बस्तियां उनकी सीधी मार में आ गई है. आंध्र के या तमिलनाडु के तटवर्तीय इलाकों में धान के व्यापारियों ने लंबे चौड़े फार्म बना रखे हैं. जंगलों की जमीन पाकर वे अपने लिए सोना उगा रहे हैं और वहां रहने वाले मजदूरों और छोटे किसानों के लिए काल को न्यौता दे रहे हैं.
ये सब हमारे लोभ और बदनीयत का नतीजा है. प्रकृति अपने नियमों के भीतर जितनी सुखद हो सकती है नियम टूटने पर उतनी ही दु:खकारी भी हो सकती है. यह हमारा ही दोष है कि लोभ और बदइंतजामी की शक्तियों को ही लगाम नहीं लगा पा रहे हैं.
बरसात की केवल एक ही ध्वनि प्रमुख होती जा रही है- गरजते और डराते हुए बादलों की. हमारे लगभग सब पुराने देवता बरसात में प्रसन्न दिखते हैं. आज वरुण की प्रचंड शक्तियां ही जैसे प्रमुख होती जा रही हैं. तुलसीदास ने कहा है- घन घमंड नभ गरजता घोरा. बरसात का अर्थ बादलों का आसमान में उमड़-घुमड़ कर घोर गर्जन ही रह जाएगा तो उससे हम संपन्न कम होंगे, छीज अधिक रहे होंगे.
लेखक – बनवारी