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तबलीगी जमात के एजेंडे से अनजान देश….!

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तबलीगी जमात का नाम अभी घर-घर पहुंच जाने के बाद भी उसके काम और उद्देश्य के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. पूछने पर बड़े-बड़े विद्वान और नेता भी बगलें झांकने लगते हैं, जबकि तबलीगी जमात लगभग सौ साल से काम कर रही है. इसका उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है – मुसलमानों को पक्का मुसलमान बनाना. तबलीग (प्रचार) की जमात मुसलमानों के बीच हरेक गैर-इस्लामी चीज छोड़ने का प्रचार करती है. खान-पान, जीवन-शैली, पोशाक, मान्यताएं, संसर्ग, भाषा, आदि सब कुछ.

प्रसिद्ध विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन खान की पुस्तक ‘तबलीगी मूवमेंट’ से इसकी प्रामाणिक जानकारी मिलती है. इस जमात के संस्थापक मौलाना इलियास को यह देख भारी रंज होता था कि दिल्ली के आसपास के मुसलमान सदियों बाद भी बहुत चीजों में हिंदू रंगत लिए हुए थे. वे गोमांस नहीं खाते थे, चचेरी बहनों से शादी नहीं करते थे, कुंडल, कड़ा धारण करते थे, चोटी रखते थे. यहां तक कि अपना नाम भी हिंदुओं जैसे रखते थे. हिंदू त्यौहार मनाते और कुछ तो कलमा पढ़ना भी नहीं जानते थे. वास्तव में मेवाती मुसलमान अपनी परंपराओं में आधे हिंदू थे. इसी से क्षुब्ध होकर मौलाना इलियास ने मुसलमानों को कथित तौर पर सही राह पर लाना तय किया.

मौलाना इलियास ने मुसलमानों में हिंदू प्रभाव का कारण मिल-जुल कर रहना समझा था. उनकी समझ से इसका उपाय उन्हें हिंदुओं से अलग करना था, ताकि मुसलमानों को ‘बुरे प्रभाव से मुक्त किया जाए.’ इस प्रक्रिया के बारे में मौलाना वहीदुद्दीन लिखते हैं कि कुछ दिन तक इस्लामी व्यवहार का प्रशिक्षण देकर उन्हें ‘नया मनुष्य बना दिया गया.’ यानी उन्हें अपनी जड़ से उखाड़ कर, दिमागी धुलाई करके, हर चीज में अलग किया गया. खास पोशाक, खान-पान, खास दाढ़ी, बोल-चाल, आदि अपनाना इसके प्रतीक थे.

तबलीगी जमात में प्रशिक्षित मुसलमानों ने वापस जाकर स्थानीय मेवातियों में वही प्रचार किया. इससे मेवात में मस्जिदों की संख्या तेजी से बढ़ी और मेवात पूरी तरह बदल गया. वास्तव में यही जमात का मिशन है हिंदुओं के साथ मिल-जुल कर रहने वाले मुसलमानों को पूरी तरह अलग करना. उन्हें पूर्णत: शरीयत-पाबंद बनाना. अपने पूर्वजों के रीति-रिवाजों से घृणा करना. दूसरे मुसलमानों को भी वही प्रेरणा देना.

तबलीगी एजेंडे को महात्मा गांधी द्वारा खिलाफत आंदोलन के सक्रिय समर्थन से ताकत मिली. ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ. मुमताज अहमद के अनुसार मौलाना इलियास को खिलाफत आंदोलन का बड़ा लाभ मिला. इससे उपजे आवेश का लाभ उठाकर उन्होंने सही इस्लाम और आम मुसलमानों के बीच दूरी पाटने और उन्हें हिंदू समाज से अलग करने में आसानी हुई.

खिलाफत के बाद जमात का काम इतनी तेजी से बढ़ा कि जमाते उलेमा ने 1926 में बैठक कर तबलीग को स्वतंत्र रूप में चलाने का फैसला किया. इस तरह तबलीगी जमात बनी. मौलाना वहीदुद्दीन के अनुसार, ‘‘आर्य समाज के शुद्धि प्रयासों से नई समस्याएं पैदा हुईं, जो मुसलमानों को अपने पुराने धर्म में वापस ला रहा था.’’ यही स्वामी श्रद्धानंद पर जमात के कोप के कारण का भी संकेत है. स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के बाद ही तबलीगी जमात पहली बार प्रमुखता से (1927) समाचारों में आई.

इलियास के बाद उनके बेटे मुहम्मद यूसुफ ने पूरे भारत और विदेश यात्राएं कीं. इसके असर से अरब और अन्य देशों से भी तबलीगी मुसलमान निजामुद्दीन आने लगे. इस पर हैरानी नहीं कि हाल में उसके मरकज यानी मुख्यालय से मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों के कई मौलाना मिले.

मौलाना यूसुफ ने अपनी मृत्यु से तीन दिन पहले रावलपिंडी में (1965) में कहा था, ‘उम्मत की स्थापना अपने परिवार, दल, राष्ट्र, देश, भाषा, आदि की महान कुर्बानियां देकर ही हुई थी. याद रखो, ‘मेरा देश’, ‘मेरा क्षेत्र’, ‘मेरे लोग’, आदि चीजें एकता तोड़ने की ओर जाती हैं. इन सबको अल्लाह सबसे ज्यादा नामंजूर करता है. राष्ट्र और अन्य समूहों के ऊपर इस्लाम की सामूहिकता सर्वोच्च रहनी चाहिए.’

कुछ लोग तबलीगी जमात के गैर-राजनीतिक रूप और राजनीतिक इस्लाम में अंतर करते हैं, पर यह नहीं परखते कि प्रचार किस चीज का हो रहा है? शांतिपूर्ण प्रचार और जिहाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. इसे जगह, समय और काफिरों की तुलनात्मक स्थिति देखकर तय किया जाता है. जमात के काम ‘शांतिपूर्ण’ हैं, मगर यह शांति माकूल वक्त के इंतजार के लिए है, क्योंकि उनके पास उतनी ताकत नहीं है.

प्रो. बारबरा मेटकाफ के अनुसार, जमात का मॉडल आरंभिक इस्लाम है. उसके प्रमुख की ‘अमीर’ उपाधि भी इसका संकेत है, जो सैनिक-राजनीतिक कमांडर होता था. उसकी टोलियों की यात्रा कोई शिक्षक-दल नहीं, बल्कि गश्ती दस्ते जैसी होती हैं ताकि किसी इलाके की निगरानी कर उसके हिसाब से रणनीति बनाई जा सके.

यह संयोग नहीं कि 1992-93 में भारत, पाक, बांग्लादेश में कई मंदिरों पर हमले में तबलीगी जमात का नाम उभरा था. न्यूयॉर्क में आतंकी हमले के बाद तो वैश्विक अध्ययनों में भी उसका नाम बार-बार आया. अमेरिका के अलावा मोरक्को, फ्रांस, फिलीपींस, उज्बेकिस्तान और पाक में सरकारी एजेंसियों ने जिहादियों और तबलीगियों में गहरे संबंध पाए थे.

तबलीगी जमात की सफलता में उसकी एकनिष्ठता का बड़ा हाथ है. वे पदों-कुर्सियों के फेर में नहीं रहे. वे हिंदू नेताओं, बौद्धिकों के अज्ञान का भी चुपचाप दोहन करते हैं. इसीलिए उनका अंतरराष्ट्रीय केंद्र राजधानी दिल्ली में एक पुलिस स्टेशन के समीप होने पर भी बेखटके चलता रहा.

वस्तुत: हमारी पार्टियों ने ‘राष्ट्रवादी मुसलमान’ कह कर जिन्हें महिमामंडित किया, वे अधिकांश पक्के इस्लामी थे- मौलाना मौदूदी, मशरिकी, इलियास, अब्दुल बारी आदि. उनके द्वारा मुस्लिम लीग के विरोध के पीछे ताकत बढ़ाकर पूरे भारत पर कब्जे की मंशा थी. इसी को कांग्रेसियों ने देशभक्ति कहा. वही परंपरा भाजपा ने भी अपना ली. इस प्रकार, हमारे दल विविध इस्लामी नेताओं, संस्थानों, संगठनों आदि को सम्मान, अनुदान, संरक्षण तो देते रहते हैं, पर उनके काम का आकलन कभी नहीं करते. फलत: दोहरी नैतिकता और छद्म के उपयोग से पूरा देश गाफिल रहता है. इसीलिए भारत में तबलीगी जमात का काम अतिरिक्त सुविधा से चलता रहता है.

शंकर शरण

साभार – दैनिक जागरण

 

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