नई दिल्ली. अनंत गोखले जी का जन्म 23.9.1918 को खंडवा (म.प्र.) में रामचंद्र गोखले जी के घर में हुआ. उस दिन अनंत चतुर्दशी (भाद्रपद शुक्ल 14) थी, इसी से उनका नाम अनंत रामचंद्र गोखले रखा गया. खंडवा में ‘गोखले बाड़ा’ के नाम से उनके पूर्वजों का विख्यात स्थान है. द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के पिताजी सदाशिव गोलवलकर जी जब खंडवा में अध्यापक थे, तब वे ‘गोखले बाड़ा’ में ही रहते थे. बालक माधव के जीवन की वह घटना प्रसिद्ध है, जब विद्यालय में निरीक्षण के समय वह बहुत बीमार था. फिर भी अध्यापकों के निर्देश पर उसके सहपाठी उसे चारपाई सहित उठाकर विद्यालय ले गये. क्योंकि सर्वाधिक मेधावी छात्र होने के कारण बाहर से आये निरीक्षकों को वही संतुष्ट कर सकते थे. यह घटना खंडवा की ही है.
गोखले जी जिन दिनों नागपुर में इंटर के छात्र थे, तब धंतोली सायं शाखा पर उन्होंने जाना प्रारम्भ किया. वहां साइंस कॉलेज, एग्रीकल्चर कॉलेज और मोरिस कॉलेज के छात्रावासों से बड़ी संख्या में छात्र आते थे. एक सितम्बर, 1938 को धंतोली शाखा पर ही गोखले जी ने प्रतिज्ञा ली. धंतोली शाखा पर उन दिनों औसत 130 तरुण, 100 बाल और 90 शिशु आते थे. अधिकतम उपस्थिति दिवस वाले दिन शाखा पर 370 तरुण आये थे. बिहार में क्षेत्र प्रचारक रहे मधुसूदन देव जी उस शाखा के मुख्य शिक्षक और मोरोपंत पिंगले के बड़े भाई गुणाकर मुले (दादा) कार्यवाह थे. शाखा में 24 गट (तरुणों के 12 और बालों के भी 12) थे.
पूज्य डॉ. हेडगेवार जी को स्मरण करते हुए गोखले जी ने बताया था कि फरवरी, 1939 में वे इंटर अंतिम वर्ष की प्रयोगात्मक परीक्षा की तैयारी कर रहे थे. तभी सूचना मिली कि डॉ. जी ने एक घंटे के अंदर सभी स्वयंसेवकों को रेशम बाग संघस्थान पर बुलाया है. आकस्मिक बुलावे का संदेश पाकर वे भी वहां पहुंच गये. डॉ. जी ने उन्हें देखकर कहा कि तुम्हें पूरी सूचना नहीं मिली. जिनकी परीक्षा है, उन्हें छोड़कर बाकी सब तरुणों को बुलाया था. इसलिये तुम वापस जाओ और परीक्षा दो. गोखले जी दौड़े और परीक्षा शुरू होने से दस मिनट पूर्व ही विद्यालय पहुंच गये. इस प्रकार डॉ. जी एक-एक स्वयंसेवक का ध्यान रखते थे.
प्रचारक जीवन के निश्चय की प्रेरणा देने वाला वह क्षण गोखले जी की आंखों में सदा जीवित रहता था. वे तरुणों के एक गट के गटनायक थे. डॉ. जी के देहांत के बाद वर्ष 1940 के दिसम्बर मास में नागपुर के अम्बाझरी तालाब के पास के मैदान में तरुण स्वयंसेवकों का तीन दिन का शिविर लगा था. अंतिम दिन के बौद्धिक में श्री गुरुजी ने आह्वान किया, ‘‘स्वर्गीय डॉ. साहब को आप सबने देखा है. उन्होंने कभी नहीं कहा, पर मैं कहता हूं. संघ कार्य के लिये अपने सम्पूर्ण जीवन को न्यौछावर करते हुए उनके जैसा परिश्रम करने की आवश्यकता है. अपनी पढ़ाई के बाद और कोई उद्योग, धन्धा, नौकरी न करते हुए घर से बाहर निकलो. सारे देश के कोने-कोने में संघ कार्य फैलाने के लिये चल पड़ो.’’
श्री गुरुजी के इस आह्वान ने तरुणों के अंतःकरण को छू लिया. उस समय धंतोली सायं शाखा में 12 गट और उनमें 24 गटनायक थे. वर्ष 1941-42 में इन 24 में से 18 कार्यकर्ता प्रचारक बने. गोखले जी भी उनमें से एक थे. उन्होंने एलएलबी प्रथम वर्ष की परीक्षा दे दी थी, पर गुरुजी ने कहा, ‘‘पढ़ाई बहुत हो गयी, अब प्रचारक बनो.’’ बस उस दिन के बाद गोखले जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
गोखले जी को वर्ष 1942 में सर्वप्रथम उ.प्र. में कानपुर भेजा गया. वहां के संघचालक जी ने भाऊराव से एक प्रचारक की मांग की थी. यह भी कहा था कि उसका व्यय वे वहन करेंगे. कानपुर में पढ़ने वाले नागपुर के छात्र ही उस समय शाखा लगाते थे. आगे चलकर सुंदर सिंह भंडारी ने डीएवी कॉलेज का छात्रावास छोड़कर शहर में कमरा लिया और वहां शाखा लगायी. धीरे-धीरे कानपुर में तीन शाखाएं विधिवत चलने लगीं. प्रत्येक पर प्रायः 25-30 संख्या रहती थी. उस समय कार्यालय तो था नहीं, अतः नागपुर के कुछ छात्रों के साथ मिलकर छह रु. मासिक किराये पर एक कमरा लिया. शाखा खोलने के लिये वे उरई, उन्नाव, कन्नौज, फरुखाबाद, बांदा आदि भी जाते थे. पहले मास में प्रवास, भोजन आदि में उनके 6.75 रु. व्यय हुए. संघचालक जी ने स्पष्ट कह दिया कि वे प्रतिमास पांच रु. से अधिक नहीं दे सकते. इस पर गोखले जी ने अपने घर से 25 रु. मंगाये और उससे साल भर काम चलाया.
विभाजन से पूर्व काशी और भरतपुर में संघ शिक्षा वर्ग लगे थे. भरतपुर के वर्ग में गोखले जी मुख्यशिक्षक थे. वहां केन्द्रीय अधिकारी के नाते तत्कालीन सरकार्यवाह मा. अप्पा जी आये थे. उन्होंने ऐसे स्वयंसेवकों की बैठक ली, जो वर्ग के बाद प्रचारक बन सकते थे. वह बैठक इतनी प्रभावी थी कि अकेले कानपुर नगर से आये शिक्षार्थियों में से 42 शिक्षार्थी प्रचारक बने. इनमें अधिकांश स्नातक और स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे. वर्ष 1948-49 के प्रतिबंध काल में प्रत्यक्ष शाखा लगाना संभव नहीं था. अतः मई-जून के अवकाश में बहुत बड़ी संख्या में छात्रों को ग्रामीण क्षेत्र में ‘साक्षरता प्रसार’ के लिये भेजा गया. इसके लिये अनेक सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों ने भी शुभकामना दी. अतः इन विद्यार्थी विस्तारकों को काम करने में कोई कठिनाई नहीं हुई. कानपुर नगर से 150 छात्र इसके लिये गये.
तब तक ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ की स्थापना हो चुकी थी. ये सब छात्र विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता बन कर गांवों में गये थे. इन छात्रों ने साक्षरता प्रसार के लिये सभी तरह के लोगों से सम्पर्क किया. बच्चों को खेलकूद कराये. बुजुर्गों के लिये भजन मंडलियां चलायीं. इस प्रकार एक घंटे के यह ‘साक्षरता वर्ग’ चलते थे. प्रतिबंध हटने के बाद यही खेलकूद और भजन केन्द्र शाखा में बदल गये. इस प्रकार प्रतिबंध काल की विपरीत परिस्थिति का भी बुद्धिमत्तापूर्वक संघ कार्य के विस्तार में उपयोग कर लिया गया.
गोखले जी वर्ष 1942 से 1951 तक कानपुर, फिर 1954 तक लखनऊ, 1955 से 58 तक कटक (उड़ीसा), 1959-73 तक दिल्ली में रहे. वर्ष 1974-75 के प्रतिबंध काल में उनका केन्द्र नागपुर रहा. उस समय उन पर मध्यभारत, महाकौशल और विदर्भ का काम था. प्रतिबंध समाप्ति के बाद कुछ समय इंदौर केन्द्र बनाकर मध्य भारत प्रांत का काम संभाला. वर्ष 1978 में वे फिर उ.प्र. में आ गये और जयगोपाल जी (प्रांत प्रचारक) के साथ पूर्वी उ.प्र. में सहप्रांत प्रचारक के नाते कार्य किया.
वर्ष 1998 में प्रवास संबंधी कठिनाइयां होने पर उन्हें लोकहित प्रकाशन, लखनऊ के माध्यम से पुस्तक प्रकाशन का कार्य दिया गया. वर्ष 2002 तक उन्होंने यह काम संभाला. इस दौरान 125 नयी पुस्तकें तैयार करायीं. उनके लिए सामग्री जुटाना, लेखक ढूंढकर उससे लिखवाना, फिर उसे सुसज्जित कर छपवाना.., यह सब कार्य बहुत तन्मयता से उन्होंने किया. वर्ष 2002 में स्वास्थ्य संबंधी कारणों से सब दायित्वों से मुक्ति लेकर वे लखनऊ में ‘भारती भवन’ वाले कार्यालय में रहने लगे.
जब तक उनके शरीर ने साथ दिया, वे ‘भारती भवन’ की फुलवाड़ी की सिंचाई और गुड़ाई स्वयं करते थे. प्रातः शाखा में भी पूरे समय वे उपस्थित रहते थे. आग्रहपूर्वक वे अपने कमरे की सफाई से लेकर कपड़े आदि भी स्वयं धोते थे. जीवन के संध्याकाल में उन्हें इस बात पर गर्व था कि उन्होंने लगातार 60 साल तक सक्रिय प्रवासी जीवन बिताया. कुछ समय पूर्व तक वे प्रतिवर्ष साल में एक बार, विजयादशमी से पूर्व चार-पांच दिन के लिये अपने घर (खंडवा) जाते थे.
वर्ष 1991 में उनके परिवार की पुश्तैनी सम्पत्ति का बंटवारा हुआ. उनके हिस्से में स्टेशन के पास की डेढ़ एकड़ जमीन आयी. गोखले जी ने वह संघ को दे दी. तब उसका सरकारी मूल्य 47,20,500 रु. था. वहां संघ कार्यालय बने, यह सबकी इच्छा थी, पर पैसा नहीं था. कुछ साल बाद प्रशासन ने वहां पुल बनाने का निर्णय लिया. उसमें जमीन का 40 प्रतिशत भाग अधिग्रहीत कर उसका 19 लाख रु. मुआवजा दिया गया. उस पैसे से संघ कार्यालय बनाया गया. उसका नाम रखा गया है ‘शिवनेरी’. शिवनेरी पुणे के पास उस दुर्ग का नाम है, जहां शिवाजी का जन्म हुआ था. वहां एक इंटर कॉलेज भी चलता है, जिसमें दो पालियों में 2,500 छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं. डॉ. जी एवं श्री गुरुजी के सान्निध्य से पावन हुए, सैकड़ों प्रचारकों और हजारों स्थानीय कार्यकर्ताओं के निर्माता, श्री अनंत रामचंद्र गोखले का 25 मई, 2014 (ज्येष्ठ कृष्ण 12, रविवार) को प्रातः निधन हो गया. उनकी स्मृति को पावन प्रणाम..