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नव सृजन की प्रसव पीड़ा है – ‘कोरोना महामारी’

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नरेंद्र सहगल

दिशाहीन भौतिकवाद के दुष्परिणाम

विश्वगुरू भारत का पुनर्जन्म

आध्यात्मिक क्रांति की शुभ बेला

निष्ठुर भौतिकवाद की अंधी दौड़ में एक दूसरे को पीछे छोड़ने की प्रतिस्पर्धा में पागल हो चुके विश्व को कोरोना महामारी ने झकझोर कर रख दिया है. समस्त संसार की संचालक दिव्य शक्ति ‘प्रकृति’ के विनाश के कारण ही कोरोना जैसी भयंकर बीमारियां मानवता को पुन: प्रकृति माता की गोद में लौट आने का आह्वान कर रही है.

वास्तव में कोरोना एक ऐसा विश्वयुद्ध है, जिसे प्रत्येक देश अपनी धरती पर स्वयं ही लड़ रहा है. पल भर में सारे संसार को समाप्त कर देने वाले हथियारों के जखीरे, अनियंत्रित आर्थिक संपन्नता, गगनचुंबी ऊंची अट्टालिकांए, अद्भुत सूचना तकनीक, बड़े-बड़े अस्पताल, विश्व विख्यात वैज्ञानिक, प्रतिष्ठित नेता और मार्शल योद्धा सभी ने ‘कोरोना राक्षस’ के आगे घुटने टेक दिए हैं.

इस अंतर्राष्ट्रीय शत्रु ने मजहब, जाति, क्षेत्र, देश और भाषा की संकीर्ण दीवारों को तोड़कर समस्त मानवता को एक ही पंक्ति में खड़ा कर दिया है. संघ की भाषा में इसे ’एकश: संपत’ कहते हैं. ’कोरोना राक्षस’ मनुष्य को सिखा रहा है – ’मानव की जाति सबै एकबो पहचानबो’ सारा विश्व एक ही है ’वसुधैव कुटुंबकम’.  हम सभी एक ही धरती माता अथवा प्रकृति माता के पुत्र हैं.

वास्तव में ’कोरोना’ सारी मानवता के लिए एक वरदान सिद्ध होता हुआ दिखाई दे रहा है. यह ठीक है कि इस रोग का शिकार होने वाले लोग अच्छे दिनों के लिए छटपटा रहे हैं. यह वायरस खतरनाक गति से बढ़ता जा रहा है. अनेक लोगों के कारोबार समाप्त होने के कगार पर आ चुके हैं. गरीब लोगों के लिए रोजी-रोटी कमाना कठिन हो गया है. श्रमिक समाज सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है. यही स्थिति भारत समेत पूरे विश्व की है.

वर्तमान और भावी जीवन की रक्षा के लिए तड़प रही मानवता की स्थिति उस माता जैसी हो रही है जो प्रसव पीड़ा के दौरान अपनी और अपने होने वाले शिशु के जीवन की रक्षा के लिए तड़प रही होती है. किसी नवसृजन की प्रतीक्षा ही एकमात्र संजीवनी है जो इस अस्थाई कष्ट को सहन करने की प्रेरणा देती है. अर्थात् नवसृजन ही वर्तमान के कष्टों का एकमात्र समाधान है.

अगर अपने देश के संदर्भ में देखें तो भविष्य में होने वाले नवसृजन अर्थात नूतन जीवन रचना की तैयारी भारतीयों ने ’लॉकडाउन’ के दिनों में कर ली है. वास्तव में यह भारत की सनातन परंपरा का पुनर्जन्म ही है. भौतिकवाद, अहं, स्वार्थ और स्पर्धा के पीछे भाग कर हम अपनी प्राकृतिक जीवन पद्धति को भूलते जा रहे थे. ‘लॉकडाउन’ ने हमें संयम, अनुशासन, सादा रहन-सहन, सादा खान-पान जैसी दिनचर्या को स्थाई रूप से अपना लेने की आवश्यकता समझा दी है. जिंदा रहना है तो इसे अपनाना होगा. कोरोना का कहर लम्बे समय तक रहने वाला है. धैर्य रखते हुए अपने रहन सहन को इसके अनुसार ढालना होगा.

इस समय पूरे विश्व के पास कोरोना से बचने के दो ही उपाय हैं. ‘घरवास’ और शारीरिक दूरी. पिछले दिनों इन दोनों नियमों के पालन करने से बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिला है. ऐसी किसी कानून या सजा के डर से नहीं हुआ. यह स्वयं प्रेरित अनुशासन ही भविष्य में हमारी जीवन रेखा होगी. इस परिवर्तन अर्थात नवसृजन का अवलोकन जरूर करें.

– यातायात बंद अथवा नियंत्रित होने से वायुमंडल बहुत शुद्ध हुआ है. जीने के लिए अधिक वाहनों की आवश्यकता नहीं है.

– बड़े-बड़े कारखानों, उद्योग-धंधों के गंदे कचरे और गंदे पानी के नदियों में ना गिरने से गंगा समेत कई नदियां निर्मल हुई हैं. अर्थात जल भी शुद्ध हुआ है.

– होटल, रेस्टोरेंट एवं मॉल इत्यादि के ‘लॉकडाउन’ के दिनों में बंद रहने से लोगों को घर की दाल रोटी का महत्व समझ में आया है. पैसे की बर्बादी का आभास भी हुआ है.

– हमें यह भी समझ में आया है कि भगवान केवल मंदिरों, गुरुद्वारों, चर्चों एवं मस्जिदों में ही नहीं होते, घर पर रहकर भी भगवान का नाम स्मरण किया जा सकता है.

– एक समय था जब ‘वनवास’ को वृद्धावस्था अथवा सन्यस्त जीवन का आश्रय स्थल समझा जाता था, परंतु अब समझ में आया कि ‘घरवास’ ही वर्तमान समय में वृद्ध जनों का शांति स्थल है.

– भारत की सनातन परंपराओं की आवश्यकता एवं महत्व विश्व को समझ में आने लगा है. हाथ जोड़कर नमस्ते करना, जूते घर के बाहर ही उतारना, शौचालय को घर के बाहर अथवा छत के ऊपर बनाना, दाह संस्कार के बाद हाथ मुंह धोकर घर में घुसना और अपने कपड़े धो डालना इत्यादि विज्ञान आधारित परंपराएं हैं.

– किसी पारिवारिक जन की मृत्यु के बाद 13वें दिन तक कोई भी हर्षोल्लास नहीं करना अर्थात परिवार में भी शारीरिक दूरी बनाए रखना और मरने वाले की अस्थियों को चार दिन तक अच्छी तरह भस्म होने के पश्चात उन्हें सीधा किसी नदी में प्रवाह कर देना, यह आज की इस महामारी के समय भी अति प्रासंगिक है.

– रोज एक बार घर में धूप अगरबत्ती एवं गूगल इत्यादि जलाना और तुलसी जैसे औषधीय पौधे गमलों में उगाना इत्यादि परंपराओं को विश्व स्तर पर मान्यता मिलना शुरू हुआ है. हवन की वैज्ञानिकता भी स्वीकृत हो रही है. बाहर से खरीद कर लाई गई प्रत्येक वस्तु को घर आकर पानी से शुद्ध करना हमारे रीति-रिवाजों में था.

– हम तो आज भी पीपल, बेल, आंवला, नीम, नारियल, आम के पत्ते, केला पत्र एवं तुलसी इत्यादि को पूजा की पवित्र सामग्री मानते हैं. इसकी कटाई नहीं करते, इस तरह से पर्यावरण को शुद्ध रखने की परंपरा को जीवित रखने की आवश्यकता है. अर्थात आवश्कता अनुसार ही प्रकृति (पेड-पौधे) का दोहन करना चाहिए.

वर्तमान कोरोना संकट ने भारत सहित समस्त विश्व को प्रकृति का सम्मान करने का आदेश दिया है. भविष्य में भारत विश्व का मार्गदर्शन करने में सक्षम है. वर्तमान प्रसव पीड़ा के पश्चात धरती माता की कोख से विश्व गुरु भारत का पुनर्जन्म होगा और योग आधारित आध्यात्मिक क्रांति का तेज समूचे विश्व पर उद्भासित होगा.                                                   क्रमशः

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)

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