राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार जन्मजात राष्ट्रभक्त स्वतंत्रता सेनानी थे. चिर-सनातन हिन्दू-राष्ट्र का परम-वैभव उनके जीवन का लक्ष्य था. अतः अखण्ड भारतवर्ष की सर्वांग स्वतन्त्रता के लिए वे जीवन की अंतिम श्वास तक संघर्षरत रहे. ‘नहीं चाहिए पद-यश-गरिमा’ के आदर्श पर अटल रहते हुए ना तो अपनी आत्मकथा लिखी और ना ही समाचार पत्रों की सुर्खियां बटोरीं. इस अज्ञात स्वतंत्रता सेनानी का समस्त जीवन ही देश की स्वतन्त्रता के लिए समर्पित था. स्वतन्त्रता समर के महानायक महात्मा गांधी के नेतृत्व में आयोजित असहयोग आंदोलन एवं दाण्डी यात्रा में सक्रिय भूमिका निभाने वाले डॉ. हेडगेवार ने दो बार लम्बे कारावास की यातनाएं भोगीं.
अपने और अपने संगठन के नाम से ऊपर उठकर संघ के हजारों स्वयंसेवकों ने प्रत्येक सत्याग्रह एवं आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ कर भारत को स्वतंत्र करवाने के लिए सशस्त्र क्रांति से लेकर अहिंसक सत्याग्रहों तक प्रत्येक संघर्ष में संघ के स्वयंसेवकों का समर्थन, सहयोग एवं भागीदारी निरंतर बनी रही. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सत्तासीन हुए सत्ताधारियों द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आज़ाद हिंद फौज, अनुशीलन समिति, हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना, गदर पार्टी, अभिनव भारत, हिन्दू महासभा, आर्यसमाज जैसी सैंकड़ों राष्ट्रवादी शक्तियों, फांसी के तख्तों पर झूलने वाले हजारों क्रांतिकारियों, देशभक्त लेखकों, कवियों तथा संतों की मुख्य भागीदारी को नकार कर, समस्त स्वतंत्रता संग्राम को एक ही नेता और दल के खाते में डाल देना घोर अन्याय तथा अनैतिकता है. सत्ताधारियों ने डॉक्टर हेडगेवार, सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर इत्यादि स्वतंत्रता सेनानियों को दरकिनार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
जब तक भारत का भूगोल, संविधान, शिक्षा प्रणाली,आर्थिक नीति, संस्कृति, समाज-रचना इत्यादि परसत्ता एवं विदेशी विचारधारा से प्रभावित और पश्चिम के अंधानुकरण पर आधारित रहेंगे, तब तक भारत की पूर्ण स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लगता रहेगा. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी संघ के स्वयंसेवकों ने जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद, गोवा इत्यादि की स्वतंत्रता एवं सुरक्षा के लिए बलिदान दिये हैं. इसी क्रम में गोरक्षा अभियान, श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन तथा अनेक प्रकार के धर्मरक्षा अभियानों में सक्रिय रहकर संघ के स्वयंसेवकों ने भारतवर्ष की सर्वांग स्वतंत्रता के लिए अपनी प्रतिबद्धता का परिचय दिया है.
इस पुस्तक का आर्शीवचन पृष्ठ पू. सरसंघचालक जी ने लिखा है और प्रस्तावना उत्तर भारत के संघचालक डॉ. बजरंग लाल गुप्त जी ने लिखी है.