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भारतीय ज्ञान का खजाना – 14, अदृश्य स्याही से लिखा ग्रंथ

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‘अदृश्य स्याही का रहस्य – अग्र भागवत’

आमगांव यह महाराष्ट्र के गोंदिया जिले की एक छोटी सी तहसील, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़ा है. इस गांव के ‘रामगोपाल अग्रवाल’, सराफा व्यापारी हैं. घर से ही सोना, चांदी का व्यापार करते हैं. रामगोपाल जी, ‘बेदिल’ नाम से जाने जाते हैं. एक दिन अचानक उनके मन में आया, ‘आसाम के दक्षिण में स्थित ‘ब्रम्हकुंड’ में स्नान करने जाना है’. अब उनके मन में ‘ब्रम्हकुंड’ ही क्यों आया, इसका कोई कारण उनके पास नहीं था. यह ब्रम्हकुंड (ब्रह्मा सरोवर), ‘परशुराम कुंड’ के नाम से भी जाना जाता है. आसाम सीमा पर स्थित यह कुंड, प्रशासनिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में आता है. मकर संक्रांति के दिन यहां भव्य मेला लगता है.

‘ब्रम्ह्कुंड’ यह स्थान अग्रवाल समाज के आदि पुरुष/प्रथम पुरुष भगवान अग्रसेन महाराज का ससुराल माना जाता है. भगवान अग्रसेन महाराज की पत्नी, माधवी देवी इस नागलोक की राजकन्या थीं. उनका विवाह अग्रसेन महाराज जी के साथ इसी ब्रम्ह्कुंड के तट पर हुआ था, ऐसा बताया जाता है.

हो सकता है, इसी कारण से रामगोपाल जी अग्रवाल ‘बेदिल’ को इच्छा हुई होगी ब्रम्ह्कुंड दर्शन की..! वे अपने 4-5 मित्र-सहयोगियों के साथ ब्रम्ह्कुंड पहुंच गए. दूसरे दिन कुंड पर स्नान करने जाना निश्चित हुआ. रात को अग्रवाल जी को सपने में दिखा कि, ‘ब्रम्ह्सरोवर के तट पर एक वटवृक्ष है, उसकी छाया में एक साधू बैठे हैं. इन्हीं साधू के पास, अग्रवाल जी को जो चाहिये वह मिल जाएगा..!’

दूसरे दिन सुबह राम गोपाल जी ब्रम्ह्सरोवर के तट पर गए तो उनको एक बड़ा सा वटवृक्ष दिखाई दिया और साथ ही दिखाई दिए, लंबी दाढ़ी और जटाओं वाले वो साधू महाराज भी. रामगोपाल जी ने उन्हें प्रणाम किया तो साधू महाराज जी ने अच्छे से कपड़े में लिपटी हुई एक चीज उन्हें दी और कहा, “जाओ, इसे ले जाओ, कल्याण होगा तुम्हारा.”

वह दिन था, 09 अगस्त, 1991.

दिखने में बहुत बड़ी, पर वजन में हलकी वह पोटली जैसी वस्तु लेकर रामगोपाल जी अपने स्थान पर आए, जहां वे रुके थे. उन्होंने वो पोटली खोलकर देखी, तो अंदर साफ–सुथरे ‘भुर्जपत्र’ अच्छे सलीके से बांधकर रखे थे. इन पर कुछ भी नहीं लिखा था. एकदम कोरे..! इन को भुर्जपत्र कहते हैं, इसकी रामगोपाल जी को जानकारी भी नहीं थी. अब इसका क्या करें..? उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था. लेकिन साधू महाराज का प्रसाद मानकर वह उसे अपने गांव, आमगांव, लेकर आए. लगभग ३० ग्राम वजन की उस पोटली में 431 खाली (कोरे) भुर्जपत्र थे.

बालाघाट के पास ‘गुलालपुरा’ गांव में रामगोपाल जी के गुरु रहते थे. रामगोपाल जी ने अपने गुरु को वह पोटली दिखायी और पूछा, “अब मैं इसका क्या करूं..?” गुरु ने जवाब दिया, “तुम्हें ये पोटली और उसके अंदर के ये भुर्जपत्र काम के नहीं लगते हों, तो उन्हें पानी में विसर्जित कर दो.” अब रामगोपाल जी पेशोपेश में पड़ गए. रख भी नहीं सकते और फैंक भी नहीं सकते..! उन्होंने उन भुर्जपत्रों को अपने पूजाघर में रख दिया.

कुछ दिन बीत गए. एक दिन पूजा करते समय सबसे ऊपर रखे भुर्जपत्र पर पानी के कुछ छींटे गिरे, और क्या आश्चर्य..! जहां पर पानी गिरा था, वहां पर कुछ अक्षर उभरकर आए. रामगोपाल जी ने उत्सुकतावश एक पूरा भुर्जपत्र पानी में डुबोकर कुछ देर तक रखा और वह आश्चर्य से देखते ही रह गये..! उस भुर्जपत्र पर लिखा हुआ साफ़ दिखने लगा. अष्टगंध जैसे केसरिया रंग में, स्वच्छ अक्षरों से कुछ लिखा था. कुछ समय बाद जैसे ही पानी सूख गया, अक्षर भी गायब हो गए.

अब रामगोपाल जी ने सभी 431 भुर्जपत्रों को पानी में भिगोकर, सूखने से पहले उन पर दिख रहे अक्षरों को लिखने का प्रयास किया. यह लेखन देवनागरी लिपि में और संस्कृत भाषा में लिखा था. यह काम कुछ वर्षों तक चला. जब इस साहित्य को संस्कृत के विशेषज्ञों को दिखाया गया, तब समझ में आया, कि भुर्जपत्र पर अदृश्य स्याही से लिखा हुआ यह ग्रंथ, अग्रसेन महाराज जी का ‘अग्र भागवत’ नाम का चरित्र है.

लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने ‘जयभारत’ नाम का एक बड़ा ग्रंथ लिखा था. उसका एक हिस्सा था, यह ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ. पांडव वंश में परीक्षित राजा का बेटा था, जनमेजय. इस जनमेजय को लोक साधना, धर्म आदि विषयों में जानकारी देने हेतू जैमिनी ऋषि ने इस ग्रंथ का लेखन किया था, ऐसा माना जाता है.

रामगोपाल जी को मिले इस ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ की अग्रवाल समाज में बहुत चर्चा हुई. इस ग्रंथ का अच्छा स्वागत हुआ. ग्रंथ के भुर्जपत्र अनेकों बार पानी में डुबोकर उस पर लिखे गए श्लोक, लोगों को दिखाए गए. इस ग्रंथ की जानकारी इतनी फैली की इंग्लैंड के प्रख्यात उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल जी ने कुछ करोड़ रुपयों में यह ग्रंथ खरीदने की बात की. यह सुनकर/देखकर अग्रवाल समाज के कुछ लोग साथ आए और उन्होंने नागपुर के जाने माने संस्कृत पंडित रामभाऊ पुजारी जी के सहयोग से एक ट्रस्ट स्थापित किया. इससे ग्रंथ की सुरक्षा तो हो गयी. आज यह ग्रंथ, नागपुर में ‘अग्रविश्व ट्रस्ट’ में सुरक्षित रखा गया है. लगभग 18 भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है.

रामभाऊ पुजारी जी की सलाह से जब उन भुर्जपत्रों की ‘कार्बन डेटिंग’ की गयी, तो वह भुर्जपत्र लगभग दो हजार वर्ष पुराने निकले.

इस कहानी में, बेदिल जी को आया स्वप्न, वो साधू महाराज, यह सब ‘श्रद्धा’ के विषय एक ओर रखे जाएं तो भी कुछ प्रश्न तो मन को कुरेदते ही हैं. जैसे, हजारों वर्ष पूर्व भुर्जपत्रों पर अदृश्य स्याही से लिखने की तकनीक किसकी थी..? इसका उपयोग कैसे किया जाता था..? कहां उपयोग होता था, इस तकनीक का..?

भारत में लिखित साहित्य की परंपरा अति प्राचीन है. ताम्रपत्र, चर्मपत्र, ताडपत्र, भुर्जपत्र… आदि लेखन में उपयोगी साधन थे.

मराठी विश्वकोष में भुर्जपत्र की जानकारी दी गयी है, जो इस प्रकार है –

“भुर्जपत्र यह ‘भुर्ज’ नाम के पेड़ की छाल से बनाया जाता था. यह वुक्ष, ‘बेट्युला’ प्रजाति के हैं और हिमालय में, विशेषतः काश्मीर के हिमालय में, पाए जाते हैं. इस वृक्ष के छाल का गुदा निकालकर, उसे सुखाकर, फिर उसे तेल लगा कर उसे चिकना बनाया जाता था. उसके लंबे रोल बनाकर, उनको समान आकार का बनाया जाता था. उस पर विशेष स्याही से लिखा जाता था. फिर उसको छेद कर के, एक मजबूत धागे से बांधकर, उसकी पुस्तक / ग्रंथ बनाया जाता था. यह भुर्जपत्र, उनकी गुणवत्ता के आधार पर दो-ढाई हजार वर्षों तक अच्छे रहते थे.”

भुर्जपत्र पर लिखने के लिये प्राचीन काल से स्याही का उपयोग किया जाता था. भारत में, ईसा के पूर्व, लगभग ढाई हजार वर्षों से स्याही का प्रयोग किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं. लेकिन यह कब से प्रयोग में आयी, यह अज्ञात ही है. भारत पर हुए अनेक आक्रमणों के चलते यहां का ज्ञान बड़े पैमाने पर नष्ट हुआ है.

परन्तु स्याही तैयार करने के प्राचीन तरीके थे, कुछ पद्धतियां थीं, जिनकी जानकारी मिली है. आम तौर पर ‘काली स्याही’ का ही प्रयोग सब दूर होता था. चीन में मिले प्रमाण भी ‘काली स्याही’ की ओर ही इंगित करते हैं. केवल कुछ ग्रंथों में गेरू से बनायी गयी केसरियां रंग की स्याही का उल्लेख आता है.

मराठी विश्वकोष में स्याही की जानकारी देते हुए लिखा है – ‘भारत में दो प्रकार की स्याही का उपयोग किया जाता था. कच्चे स्याही से व्यापार का आय-व्यय, हिसाब लिखा जाता था तो पक्की स्याही से ग्रंथ लिखे जाते थे. पीपल के पेड़ से निकाले हुए गोंद को पीसकर, उबालकर रखा जाता था. फिर तिल के तेल का काजल तैयार कर उस काजल को कपड़े में लपेटकर, इस गोंद के पानी में उस कपड़े को बहुत देर तक घुमाते थे. और वह गोंद, स्याही बन जाता था, काले रंग की..!’

भुर्जपत्र पर लिखने वाली स्याही अलग प्रकार की रहती थी. बादाम के छिलके और जलाये हुए चावल को इकठ्ठा कर के गोमूत्र में उबालते थे. काली स्याही से लिखा हुआ, सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य तीसरी शताब्दी का है.

आश्चर्य इस बात का है कि जो भी स्याही बनाने की विधि उपलब्ध है, उन सब से पानी में घुलने वाली स्याही बनती है. जब की इस ‘अग्र भागवत’ की स्याही, भुर्जपत्र पर पानी डालने से दिखती है. पानी से मिटती नहीं. उलटे, पानी सूखने पर स्याही भी अदृश्य हो जाती है. इस का अर्थ यह हुआ, कि कम से कम दो–ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे देश में अदृश्य स्याही से लिखने का तंत्र विकसित था. यह तंत्र विकसित करते समय अनेक अनुसंधान हुए होंगे. अनेक प्रकार के रसायनों का इसमें उपयोग किया गया होगा. इसके लिए अनेक प्रकार के परीक्षण करने पड़े होंगे. लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कोई भी जानकारी आज उपलब्ध नहीं है. उपलब्ध है, तो अदृश्य स्याही से लिखा हुआ ‘अग्र भागवत’ यह ग्रंथ. लिखावट के उन्नत आविष्कार का जीता जागता प्रमाण..!

कुल मिलाकर, ‘विज्ञान, या यूं कहे, शास्त्रशुद्ध विज्ञान, पाश्चिमात्य देशों में ही निर्माण हुआ’ इस मिथक को मानने वालों के लिए ‘अग्र भागवत’ अत्यंत आश्चर्य का विषय है. किसी समय इस देश में अत्यधिक प्रगत लेखन शास्त्र विकसित था और अपने पास के विशाल ज्ञान भंडार को, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने की क्षमता इस लेखन शास्त्र में थी, यह अब सिद्ध हो चुका है..!

–  प्रशांत पोळ

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