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भारत की आत्मा भारत की संस्कृति में है – डॉ. गुलरेज शेख

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भोपाल (विसंकें). लेखक, स्तंभकार एवं शिक्षाविद् डॉ. गुलरेज शेख ने कहा कि यह हमारा सौभाग्य है कि राष्ट्रवादी पत्रकारिता के विषय पर हम चर्चा कर पा रहे हैं. राष्ट्रवादी पत्रकारिता की आवश्यकता प्रत्येक राष्ट्रवादी व्यक्ति महसूस कर रहा है. पत्रकारिता का स्तर आज गिरता जा रहा है और निम्न से भी नीचे होता जा रहा है वो हम सभी को दिखता है. डॉ. गुलरेज भोपाल में आयोजित पाञ्चजन्य पाठक सम्मेलन में संबोधित कर रहे थे. पाठक सम्मेलन का आयोजन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रचार विभाग द्वारा विश्व संवाद केंद्र भोपाल में किया गया था.

डॉ. गुलरेज शेख ने कहा कि राष्ट्रवादी पत्रकारिता के विषय में बात करने से पहले कई अन्य विषयों पर बात करना जरूरी है. राष्ट्रवाद…..राष्ट्र से बना है, राष्ट्रवाद तो बिना राष्ट्र के राष्टवाद नहीं हो सकता. यदि राष्ट्र को समझना है तो सर्वप्रथम अगर कुछ समझने की आवश्यकता है तो वो ये कि राष्ट्र क्या है? क्या हम एक देश हैं? कि हम एक राष्ट्र हैं ? और इस सभागार में बैठे सभी लोगों का यह जानना धर्म बनता है कि जो हम राष्ट्र की बात करते हैं. वो राष्ट्र क्या होता है? क्या यह जमीन का टुकड़ा होता है? पंडित दीनदयाल जी ने एक बात कही थी कि यदि भारत माता में से माता शब्द हटा लिया जाए तो भारत केवल एक भूखंड मात्र बचेगा. अरे यदि हम राष्ट्रों की गणना करने बैठे कि विश्व में राष्ट्र कितने हैं तो हम ऊंगलियों में गिन लेंगे और जब देशों की बात करने बैठे तो आप पीछे मुड़कर देखेंगे कि लगभग लगभग हर दशक में एक नया देश बना है और सबसे नवीनतम देश है दक्षिणी सूडान. हम देखते हैं कि देशों की संख्या बढ़ती जा रही है और वो स्वयं को भी नेशन बोलते हैं. देश और राष्ट्र में क्या अंतर होता है?

राष्ट्र एक काल्पनिक चीज नहीं है या कोई एक ऐसी वस्तु नहीं है कि कुछ रेखाएं खीच दी जाएं और राष्ट्र का निर्माण हो जाए. हाँ, देश बनते हैं नक्शे में रेखाएं खींचकर. यहां तक कि इतनी अप्राकृतिक रेखाएं खींची गई हैं कि अफ्रीका के कुछ देशों के ऐसे नक्शे हैं, जैसे वर्ग की आकृति बना दी गई हो. स्केल से लाइन खींच दी और देश बन गया. परन्तु एक भी देश आपको ऐसा नहीं मिलेगा, जहां सीधी लाइन खींचकर राष्ट्र का निर्माण हो जाये. राष्ट्र स्वाभाविक रूप से जन्म लेता है. देश बनाए जाते हैं, लेकिन राष्ट्रों का जन्म होता है. राष्ट्र के निर्माण में उसके कारक तत्व बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. भू-भाग, निवासरत लोग, नस्ल और उनकी संस्कृति, यदि आप इन चारों कारक तत्वों का मेल कर लें, जोड़ कर लें तो राष्ट्र का निर्माण होता है. भारत की आत्मा भारत की संस्कृति में है.

राष्ट्रवादी पत्रकारिता पर आगे बढ़ने से पहले यह जरूरी था कि हम राष्ट्र और देशों का अंतर समझें. जहां-जहां देश बने हैं, सब कृत्रिम हैं और वहां हमेशा समस्या बनी रहती है. जहां पन्थ के आधार पर देश बने वो फेल हो गए, क्यूंकि ये प्रकृति के विरुद्ध थे. भारत में सभ्यताओं का जन्म हुआ.

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की जीवन गाथा लिखने में मुझे लगभग 1 वर्ष लगा और जब मैं लिख रहा था तो मैं उनके जीवन से बहुत प्रभावित हुआ, उनके प्रति प्रेम भाव जाग्रत हो गया. जब मैं रात में सोता था तो मुझे लगता था कि दीनदयाल जी मेरे आसपास हैं. ये उनका विचार था और विचार हमेशा जीवित रहता है.

भारत में जो पत्रकारिता हुई है, उसके चार चरण हैं. पहला चरण स्वतंत्रता के पूर्व का है, आप देखेंगे स्वतंत्रता संग्राम के अधिकांश नायक पत्रकारिता करते थे, परन्तु वो पत्रकारिता किसकी थी….वो पत्रकारिता राष्ट्रहित की पत्रकारिता थी ये पहला चरण था. स्वतंत्रता उपरान्त दूसरा चरण आया, जब नेहरु जी की सरकार थी और 1947 में हमारे राष्ट्र में POWER OF TRASFER हुआ और 1948 में कुछ घोटाले हुए और उस समय के कुछ पत्रकार थे, समाचार पत्र थे, जिनका काम था सरकार की गलतियों को दबाना. इसके उपरान्त विभिन्न ऐसे आयाम हुए. नेहरु जी ने पाकिस्तान से एक एग्रीमेंट कर भारत की कुछ भूमि पाकिस्तान को दे दी और किसी जनमानस को यह पता भी नहीं चला. जब पाकिस्तान की असेंबली में इसकी घोषणा हुई, तब रेडियो के माध्यम से भारत की जनता को पता चला कि नेहरु जी ने जगह दे दी. उस समय के बड़े समाचार पत्रों में किसी ने भी इस खबर को नहीं लिखा, किन्तु पाञ्चजन्य ने लिखा था, ऑर्गनाइज़र ने लिखा था और खूब लिखा था. पाञ्चजन्य और ऑर्गनाइज़र धारा के साथ राष्ट्रहित के विषयों पर सारी ख़बरें लिखता था.

तीसरा चरण आया इंदिरा जी के समय जब आपातकाल लगाया गया था और प्रेस की अभिव्यक्ति की, लिखने की स्वतंत्रता को पूर्णतः दबा दिया गया था. एडिटर के सामने अधिकारी बैठता था और जांच करता था कि सरकार के हित में कौन सा समाचार है. जो नकारात्मक होता था उसे हटा दिया जाता था. अगर किसी ने प्रकाशित किया तो उनके कार्यालयों की बिजली काट दी जाती थी और ये हमारे साथ भी हुआ, पाञ्चजन्य और ऑर्गनाइज़र के कार्यालयों की बिजली भी कटी, हमारे लोग जेल भी गए, लेकिन हमने हमेशा सच और राष्ट्रहित पर ही लिखा. जब आपातकाल समाप्त हुआ, तब पत्रकारिता का नया आयाम आ चुका था और वो था सरकार से बदला लेना. उस समय एक कार्य अच्छा हुआ, सरकार की तानाशाही ताश के पत्तों के घर जैसी बिखर गई. चौथा चरण आया – टीवी क्रान्ति के बाद 90 के दशक में जब समाचार पत्रों एवं संस्थाओं का व्यवसायीकरण हुआ और विज्ञापनों की दौड़ चालू हो गई.

यदि आप पाञ्चजन्य-आर्गनाइजर को देखें. सरकारें आती रही और जाती रहीं, एडिटर बदलते रहे. किन्तु राष्ट्रहित के लिए हमेशा पाञ्चजन्य और ऑर्गनाइज़र ने लिखा और धार वही रही, धारा वही रही. भारत चलता है विचार से, इसीलिए मेरा आपसे निवेदन है कि जो भी लिखें तो उसमें भारत को सर्वोपरि मान कर लिखें. पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने भी कहा था कि हम विचार से समझौता नहीं करेंगे. भारत विचार है और भारत की संस्कृति आज भी प्रभावशाली है.

पाञ्चजन्य का उद्देश्य देश और समाज हित के समाचार जन-जन तक पहुंचाकर उनको जागृत करना रहा है. जिसमें राष्ट्रीयता के भाव जगाने वाले लेख, जीवनी, बोध कथा, समसामयिक विषयों पर लेख, भारतीय परम्परा इतिहास की जानकारी एवं प्रबुद्धजनों के विचार प्रकाशित होते हैं. राष्ट्रीय चेतना की जिस भाव-भूमि में पाञ्चजन्य का जन्म हुआ, स्वाधीन भारत की भौगोलिक अखण्डता, सुरक्षा, उसकी सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करते हुये उसे ससम्मान श्रेष्ठ सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के आधार पर युगानुकूल सर्वांगीण पुनर्रचना के पथ पर आगे ले जाने के जिस संकल्प को लेकर पाञ्चजन्य ने अपनी जीवन यात्रा आरम्भ की थी वो आज भी उसी कर्त्तव्य पथ पर डटा हुआ है.

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