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भारत में राष्ट्र की अवधारणा विशिष्ट व अद्भुत है – डॉ. कृष्ण गोपाल जी

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भारत में राष्ट्र की भावना लोक मंगलकारी है यानि सभी प्राणियों के कल्याण की भावना

ज्ञान संगम
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पुणे (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने कहा कि भारत के पूरे साहित्य में भारत का वर्णन है. इसमें वैश्विक भावना तो है, लेकिन यह विचार जहां से आया है उसके प्रति भक्ति भी है. वैश्विक होते हुए भी हम भारतीय हैं, यह अद्वितीय समन्वय है. वैदिक काल से लेकर देश की शिक्षा संस्कृति और उससे विकसित भारतीय समाज का जिक्र करते हुए सह सरकार्यवाह जी ने कहा कि ‘पश्चिमी राष्ट्रवाद और भारतीय विचार में काफी अंतर है, जिसे समझने की आवश्यकता है.

सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में प्रज्ञा प्रवाह तथा प्रबोधन मंच की ओर से आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी ‘ज्ञानसंगम’ का उद्घाटन गुजरात के राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली जी ने किया. ‘भारतीय शैक्षिक परंपरा में राष्ट्रबोध एवं वर्तमान संदर्भ’ विषय पर यह संगोष्ठी आयोजित है. इस अवसर पर सह सरकार्यवाह जी मुख्य वक्ता के रूप में संबोधित कर रहे थे. सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के कुलगुरू नितीन करमलकर, प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार जी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय संपर्क प्रमुख अनिरुद्ध देशपांडे जी, प्रबोधन मंच के हरिभाऊ मिरासदार तथा ज्ञान संगम के संयोजक डॉ. आनंद लेले जी मंच पर उपस्थित थे. डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने कहा कि “पिछले एक हजार वर्षों में भारतीय ज्ञान का प्रवाह अवरुद्ध हुआ था, हम कौन हैं? भारत की दिशा क्या होनी चाहिए? इसका हमें विचार करना होगा. हमें पाश्चात्य ‘नेशन’ की अवधारणा को समझना होगा और छात्रों को ठीक से समझाना होगा. भारत का राष्ट्रभाव समझना होगा.

फ्रांसीसी क्रांति के बाद पश्चिमी जगत में नेशन की अलग ही कल्पना विकसित हुई. भारत के किसी भी शब्दकोश में एक्सक्लुसिव शब्द नहीं है. भारत में अलगता की कल्पना नहीं है. भारत में राष्ट्र की भावना लोक मंगलकारी है. लोक मंगलकारी यानि सभी प्राणियों के कल्याण की भावना. हमने पृथ्वी को मां माना है.

सह सरकार्यवाह जी ने कहा कि भारतीयों में विश्व बंधुत्व और अध्यात्म का जोड़ है. यह विचार देश के हर कोने और हर व्यक्ति तक पहुंच चुका है. हिन्दुओं में वैदिक, अवैदिक, श्रमणों से लेकर वीरशैव तक के पंथों में समाज कल्याण और समाज उद्धार का विचार है जो यूरोपीय राष्ट्रवाद में नहीं दिखता. ‘ब्रिटिश प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल ने कहा था कि भारत स्वतंत्रता के बाद एक नहीं रहेगा. लेकिन भारत में बड़े पैमाने पर विविधता होने के बावजूद केवल सांस्कृतिक बंध के कारण ही भारत अखंड है. इसके विपरीत सोवियत महासंघ, युगोस्लाविया सहित यूरोप के कई देशों का विभाजन हुआ है. आज भी स्पेन के कैटेलोनिया जैसे प्रांत में स्वतंत्रता की मांग ने तूल पकड़ा है.’

प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार जी ने कहा कि “हमारा देश ज्ञानभूमि है. आनंद देते हुए और आनंद लेते हुए जहां ज्ञान दिया जाता है, उस देश का नाम है भारत. हमारे देश पर कई आक्रमण हुए. कुछ वर्ष गुलामी में बीते, शायद इसलिए ज्ञान का आदान प्रदान कम हुआ. स्वतंत्रता के बाद भी इसमें गति नहीं आई. वैचारिक क्षेत्र में उपनिवेशवाद आज भी चल रहा है. आज भी सांस्कृतिक गुलामी जारी है. भारत केंद्रित अध्ययन को बढ़ावा देने के लिए जो सांस्कृतिक प्रयास शुरू हुआ उसका नाम है प्रज्ञा प्रवाह. भारत केंद्रित चिंतन को विश्व के सामने रखना है. ज्ञान संगम का आयोजन इसी उद्देश्य से किया गया है. भारतीय शिक्षा परंपरा और ज्ञान पर काल सुसंगत विचार विनिमय करने हेतु ज्ञान संगम नामक विद्‌वत सभा की अखिल भारतीय स्तर पर आयेाजन किया गया. यही उपक्रम वैचारिक क्षेत्र में आंदोलन का काम करने वाले प्रज्ञा प्रवाह नामक मंच के माध्यम से देश में क्षेत्रीय स्तर पर छह स्थानों पर आयोजित किया जा रहा है.”

राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली जी ने कहा कि “शिक्षा की जड़ें उस देश की संस्कृति में होनी चाहिए. ऐसा न हो तो वह अराजकीय हो जाती है. मुस्लिम और ब्रिटिश काल में हम अपनी शिक्षा की जड़ें अपनी संस्कृति में नहीं रख पाए. मुस्लिम आक्रमण के समय हम राजनैतिक रूप से पराजित हुए, लेकिन मानसिक रूप से अजेय रहे. ब्रिटिशों के 200 वर्ष के राज में हम न केवल राजनैतिक बल्कि मानसिक रूप से पराजित हुए. इस मानसिक पराजय से कैसे उबरना है यह हमारे सामने अहम सवाल है. स्वतंत्र भारत को हमें राष्ट्रबोध से जोड़ना है, इसलिए शिक्षा को भी राष्ट्रबोध से जोड़ना है.” महर्षि अरविन्द जी को उद्धृत करते हुए राज्यपाल जी ने कहा कि “भारतीय लोग सांस्कृतिक भावना से जुड़े हुए हैं.

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भारतीय संस्कृति का मूल भाव अध्यात्म है. सार्वभौमिकता उसका एक गुण है. वह शाश्वत है, यह उसका दूसरा गुण है. कभी – कभी इसमें दुर्बलता आती है. एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में संपदा संक्रमण करना यही परंपरा है. हमें अपनी परंपरा जिंदा रखनी है तो उसमें शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है. अगर शिक्षा इसमें कम पड़ती है तो इसमें सुधार करना होगा और शिक्षा का भारतीयकरण करना होगा. शिक्षा हमारी देश की प्रकृति से जुड़नी चाहिए, साथ ही आधुनिक चुनौतियों से लड़ने में वह सक्षम होनी चाहिए.” उन्होंने दुःख व्यक्त किया कि स्वतंत्र देश में शिक्षा अभी भी परतंत्र है. अपराधबोध निकालने के लिए शिक्षा का भारतीयकरण जरूरी है. हमारे ऋषियों ने जो राष्ट्र की अवधारणा दी है, उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाना होगा. खासकर नवशास्त्र के विषय में राष्ट्रबोध लाना होगा.

कुलुगुरु नितिन करमलकर जी ने कहा कि “गुणवत्ता से समझौता किए बिना सबको शिक्षा प्रदान करना हमारे देश के सम्मुख उपस्थित समस्याओं में से एक है. शिक्षा प्रणाली के सर्वोत्कृष्ट परिणाम पाकर छात्रों को रोजगार मुहैय्या कराने के लिए हम सबको मिलकर विचार विमर्श करना चाहिए. नालंदा और तक्षशिला से लेकर भारत में शिक्षा की प्राचीन परंपरा रही है. हमारे पाठ्यक्रम में प्राचीन शिक्षा प्रणाली और आधुनिक ज्ञान का संगम होना चाहिए.” कार्यक्रम का सूत्रसंचालन प्रसन्न देशपांडे जी ने किया.

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