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मर्यादा, विज्ञान और पुरातन ज्ञान, परंपरा का समन्वय बने विकास का आधार – डॉ. मोहन भागवत जी

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1नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि भारत के पुरातन ज्ञान और परंपरा को नकार कर किया गया विकास न तो पूरी तरह जनहित में होगा और न ही प्रकृति का पोषक होगा. पुरातन ज्ञान और परंपरा को नजरअंदाज कर किये विकास का ही परिणाम आज देखने को मिल रहा है. इस विकास के दुष्परिणामों से चौतरफा चिंता हो रही है और प्रकृति को बचाने की गुहार लगायी जा रही है. इसलिए इन तीनों का समन्वय कर विकास की आधारशिला रखनी चाहिए. सरसंघचालक जी अखिल भारतीय उत्तराखंड त्रासदी पीड़ित मंच के तत्वाधान में आयोजित श्रद्धांजली कार्यक्रम एवं प्राकृतिक आपदा, पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन विषय पर परिचर्चा में संबोधित कर रहे थे. उत्तराखंड के केदारनाथ में 2013 में आई प्राकृतिक आपदा की तीसरी बरसी पर मावलंकर सभागार में हुतात्माओं को श्रद्धांजलि अर्पित की गई.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि जिन कारणों से इतने सारे श्रद्धालु उस आपदा में मारे गए उन कारणों पर विचार कर उनसे सीख लेने की आवश्यकता है. सदियों से हिमालय की गोद में हमारा समाज फलता-फूलता रहा है. पहले भी वहां प्राकृतिक आपदाएं आती रही हैं, परन्तु मन को उद्वेलित करने लायक कोई प्रसंग किसी प्राकृतिक आपदा में इससे पूर्व नहीं मिलता है. ऐसी भौगोलिक स्थिति होने पर भी इतने वर्षों तक वहां लगातार समाज का जीवन चलता रहा, ऐसी कौन सी विधा हमने अपनाई, जिसके कारण ऐसा हम कर सके. हिमालय का भूगोल तो पहले से वही है, नया पर्वत है, बढ़ रहा है, इसलिए वहां मिट्टी खिसकती है. एक टकराहट से हिमालय उत्पन्न हुआ है, इसलिए प्लेट टैक्टोनिक की सब तरह की सम्भावनाएं भी वहां हैं. यह सारी बातें पहले से हैं और 4पहले से कुछ न कुछ तो ऐसा होता ही होगा. लगातार ऐसी बातें होती होने के बाद भी वहां पर मनुष्यों की बस्ती रही, फलीं-फूलीं और वो हमारी यात्रा का स्थान बन गया. हमारी तपस्याओं का स्थान बन गया, हमारी देव भूमि बन गया. तो हमारे पूर्वजों ने यह सारी बातें कैसे साधी.  इसके लिए हमारे प्राचीन ग्रंथ, पुराण और लोक श्रुति- जन श्रुतियों, परम्पराओं में प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहना बताया गया है, जिसका पालन हम सदियों से करते रहे थे. हमको यह ध्यान रखना चाहिए कि जहां जो विकास करना है, उसके लिए वहां के जनमानस में परम्पराएं क्या हैं, जन श्रुतियां क्या हैं, उसका महत्व क्या है, विकास नीति में इसका भी हिसाब होना चाहिए. परीक्षा पर खरी उतरने वाली अपनी पारंपरिक बातों को विकास नीति में शामिल करना कुछ गलत नहीं है.

सरसंघचालक जी ने कहा कि विकास की हमारी परम्परागत दृष्टि सम्पूर्ण सृष्टि के चैतन्य को मानती है. इसलिए हम सृष्टी के कण-कण को आपस में सम्बन्धित मानते हैं. इसलिए नदियों की स्वच्छता हमारे यहां कभी सरकारी नीति का विषय नहीं रहा, बल्कि स्थानीय स्तर पर यहां समाज तथा व्यक्तियों ने स्वयं अपने लिए नदियों को स्वच्छ रखने के नियम तय कर रखे थे. हमारी जो विकास की अवधारणा की दृष्टि है, वह परस्पर सम्बन्धों का विचार करती है, इसलिए उसमें हर बात की मर्यादा है. मनुष्य का विकास होना चाहिए, लेकिन हमें अमर्यादित नहीं होना है. प्रकृति के प्रति हमने अपनी मर्यादा को लांघा तो मनुष्य के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न होता है, यह वैश्विक सच है. क्षमता है इसलिए निर्माण करना यह निर्माण करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं है. क्षमता को विवेक की मर्यादा भी होनी चाहिए. विकास, पर्यावरण, विज्ञान और नीति के सारे झगड़े की जड़ ही इसमें है कि सबको मर्यादा में चलना है. विज्ञान की भी मर्यादा है, अध्यात्म की भी मर्यादा है. दोनों धर्म के पूरक 1होने चाहिए. यह मर्यादा का विवेक नीतियों के साथ ही हमारे-आपके आचरण में भी होना चाहिए. उचित नीतियों के द्वारा, आने वाले संकटों की कल्पना करते हुए आने वाले संकटों को प्रतिबन्धित कर सकें, ऐसी व्यवस्थाएं बिल्कुल ठीक बात है. परन्तु किसी भी संकट का सामना करना है तो मनुष्य की जीवट और मनुष्यों का मनुष्यों के प्रति कर्तव्य बोध जो आत्मीयता से उत्पन्न होता है, उसे पैदा करना आवश्यक है.

समाज को स्वार्थ प्रवृत करने वाला काम कभी नहीं होना चाहिए. मनुष्य को सेवा परायण, परोपकार प्रवण बनाने वाली, संस्कार देने वाली सब नीतियां होनी चाहिए. उत्तराखण्ड की त्रासदी का स्मरण करने के बाद अपने सामने जो बातें खड़ी होती हैं, उन सबका निदान इन बातों में है. मर्यादाओं को जानकर इन नीतियों का निर्माण होना चाहिए. परम्परा से आए हुए ज्ञान की समीक्षा, विश्लेषण करके, उसमें जो सिद्ध है उसको स्वीकार करना चाहिए. आधुनिक ज्ञान और पुराने ज्ञान की परीक्षा के बाद स्वीकृति और अस्वीकृति होनी चाहिए. मर्यादा का आचरण सब जगह होना चाहिए. मुख्य बात है कि अगर हम सब लोग एक दूसरे के सुख दुख की संवेदना के साथ तन्मय हैं तो ऐसा कोई संकट नहीं है जो प्रकृतिक हो या मानव निर्मित हो, ऐसा कोई संकट नहीं है जो हम लोगों को नामो हरम कर सकता है, हम लोगों को समाप्त कर सकता है. मुम्बई में विस्फोट का समय, लोग तुरन्त वहां से भागे नहीं लोग सहायता करने स्थल पर पहुंच गए और अस्पतालों में खून देने के लिए पहुंच गए. हम को विचार करना चाहिए कि हमारे समाज का यह स्वभाव कैसे बना. क्यों यहां लोग अपने परिवार के सदस्यों की हानि को न देखते हुए उनकी सुरक्षितता निश्चित कर तुरन्त बाकी लोगों के इलाज में सुरक्षा में लग जाते हैं. संघ के तो संस्कार हैं ही, लेकिन संघ के यह संस्कार भारत में नए नहीं हैं. संघ केवल अपनी परंपरा में आत्मीयता और संबंधों का जो संस्कार है जो हमको विरासत में मिला है, उसको आदमी के हृदय में और बड़ा करने के सिवाय और कुछ नहीं करता. हम सब लोग इसको जानें और इसको करने में लग जाएं तो हमको ऐसे कारणों से बार-बार श्रद्धान्जलि सभा का आयोजन नहीं करना पड़ेगा.

01हम मर्यादा, विज्ञान और पुरातन ज्ञान इनके साथ समन्वय साध कर चलें. मनुष्यों के सम्बन्धों का ध्यान रखकर अपना आचरण स्वार्थ परख न करते हुए उसको सेवा परायण बनाएं. हमारे उपनिषदों में जो आदेश है कि त्यागपूर्वक जियो, उसका अपने जीवन मे आचरण करो. हम सब सामान्य लोगों के लिए उस सबक को सीखना, उसके अनुसार चलना उस त्रासदी में हमसे विदा हुए हमारे समाज के आत्मजनों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी. उसका संकल्प मन में लेकर आप सब लोग यहां से जाएं.

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि अगर यह धरती हमारी माता है तो हिमालय हमारा पिता है. हम सब इन दोनों की संतान हैं. इनकी रक्षा करना हम सभी बच्चों का परम कर्तव्य है. इसलिए आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हिमालय को बचाने के बारे में चिंता करने की जरूरत है. हिमालय हमारी सुरक्षा की प्राचीर है. अगर वह हिला तो हम सुरक्षित बैठ नहीं सकते. इसलिए उसका ध्यान रखना हमारी विवशता है, साथ ही कर्तव्य भी. हिमालय की रक्षा के लिए विशेष दृष्टिकोण वाला संस्थान चाहिए.

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि हिमालय आठ देशों की सीमाओं को कवर करता है. प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी का ध्यान इस ओर गया और 150 करोड़ की योजना बनी. इस योजना के तहत सभी आठ देशों की बैठक भी हो गयी है. इसमें सभी देशों ने इस बात पर विचार किया कि विकास का खाका बनाते समय हिमालय को कैसे नुकसान न पहुंचे, इस बात पर गंभीरता से मंथन किया गया. इस संबंध में रिपोर्ट आने के बाद ऐसा कार्यक्रम बनाया जाएगा, जिससे हिमालय प्रभावित न हो और 2013 जैसा केदारनाथ हादसा न हो.

4केंद्रीय मंत्री वीके सिंह और निर्मला सीतारमन ने भी हिमालय में तीर्थाटन को बढ़ाना देने की बात कही. लेकिन चेतावनी दी कि उसे पर्यटन स्थल न बनने दिया जाए. पर्यटन स्थल बनने के काऱण ही अंधाधुंध विकास हुआ. इसी से केदारनाथ जैसा हादसा हुआ. उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने हिमालयी इलाकों के लिए केंद्र सरकार से अलग मंत्रालय गठित करने का आग्रह किया. दंडी स्वामी श्री जीतेन्द्र स्वामी ने बताया कि मनुष्य प्रकृति से ऊपर नहीं है. हमें पर्यटन और तीर्थांटन में अंतर करना होगा. तीर्थांटन को पर्यटन के रूप में देखने का नतीजा दैवीय आपदा के रूप में केदारनाथ, पशुपतिनाथ और महाकालेश्वर में देखने को मिला.

आपदा के भुक्तभोगी बिहार से सांसद अश्वनी चौबे जी जो परिवार सहित केदारनाथ में मौत के मुँह से बचकर आए. उन्होंने बताया कि ऐसी प्राकृतिक आपदा में क्या होना चाहिए, इस पर विचार होना चाहिए. सरकार की ओर से वहां कोई व्यवस्था नहीं थी. लाखों श्रद्धालुओं की ईश्वर में श्रद्धा तब टूट जाती है, जब ऐसे समय में कोई देखनहारा नहीं होता. बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने विद्या भारती के विद्यालयों में शरण देकर उनके जैसे सैकड़ों तीर्थयात्रियों को बचाया.

 

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