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महर्षि वाल्मीकि

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हमारे महापुरुष समय-समय पर नीति संबंधी अनेक सूक्ति वाक्यों का प्रयोग करते रहे हैं, जैसा कि नीति एवं नियम जीवन का एक ऐसा मार्ग है जो मानव के हर क्षेत्र के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है. यदि यह कहा जाए कि मानव जीवन का पूर्ण विकास किसी न किसी नीति का ही परिणाम है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. प्रत्येक समाज अपने अंदर शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक विशेष प्रकार की आचार पद्धति निर्धारित करता है, जिससे समाज के अंदर रहने वाले सभी व्यक्तियों के आचरण का निर्देशन व नियंत्रण होता है. इस व्यवस्थित आधार पद्धति को नैतिकता की संज्ञा दी जाती है या यूं कहें कि सामाजिक जीवन में व्यवस्था एवं शांति बनाए रखने वाला आचरण ‘नैतिकता’ कहलाने लगता है. इस प्रकार नैतिकता से अभिप्राय व्यक्ति के आचरण का निर्देशन करने वाली एक नियम व्यवस्था एवं आधार पद्धति से है, जिससे समाज अपने सदस्यों के लिए रचता है. आदि कवि भगवान महर्षि वाल्मीकि ने भी अपने ग्रन्थ ‘रामायण’ में ऐसे ही नैतिक नियमों से संचालित “रामराज्य” की परिकल्पना की है. आदि कवि ने ‘रामराज्य’ की आधार शिला नैतिक नियमों, मूल्यों-मान्यताओं, शुभ परम्पराओं और ज्ञान के साथ-साथ जीवन के अनुभवजन्य ज्ञान पर रखी है, इसलिए आज भी विश्व के अनेक देशों को आदि कवि महर्षि वाल्मीकि का रामायण आदर्श समाज को स्थापित करने की प्रेरणा देता है.

महाकाव्य की कलात्मक अभिव्यंजना में सर्वसमर्थ होने के कारण भगवान महर्षि वाल्मीकि कभी भी उपदेशक या शिक्षक के रूप में अपनी बात नहीं कहते, बल्कि वे अपने पात्रों को अपना प्रवक्ता बना देते हैं.

आदर्श पात्र- जैसे राम, भरत, लक्ष्मण, सीता, सुमित्रा, सुमंत्र, गुह, जटायु, शबरी, हनुमान आदि, ये विभिन्न मानवीय गुणों का आदर्श प्रस्तुत करते हैं. उनका आचरण देखकर पाठक स्वयं सोचने लगते हैं, ‘हां’ आदर्श पुत्र हो तो ऐसा होना चाहिए, पुत्र वत्सल पिता ऐसे ही होते हैं, भाई का प्रेम, पत्नी की पति-भक्ति, स्त्री की सेवा भावना जो कभी किसी की शिकायत नहीं करती है और हमेशा दूसरों की सहायता करने में तत्पर रहती है.

भारतीय समाज में आदि कवि भगवान महर्षि वाल्मीकि जी का स्थान सर्वोपरि है, उनका जन्म त्रेतायुग में हुआ. महर्षि वाल्मीकि जी ने उस समय की परिस्थितियों के अनुरूप समाज को मार्गदर्शन देने के लिए ‘रामायण’ जैसे हाकाव्य की रचना की, आज रामायण ग्रन्थ प्रत्येक हिन्दू के घर में श्रद्धापूर्वक पूजा जाता है. हम भगवान महर्षि वाल्मीकि जी को संस्कृत भाषा के जनक के रूप में भी देखते हैं वे प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने संस्कृत भाषा में श्लोकों के माध्यम से रामायण की रचना की.

आदि महाकाव्य ‘रामायण’ के सृजन के बारे में स्वयं बालकांड में वर्णन मिलता है कि एक बार महर्षि नारद जी महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम पर पधारे, आश्रम में महर्षि वाल्मीकि ने महर्षि नारद जी से पूछा इस संसार में गुणवान, वीर-जवान धर्मज्ञ और उपकार मानने वाला तथा दृढ़ प्रतिज्ञ कौन है? तब देवर्षि नारद जी ने महर्षि वाल्मीकि की जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा कि – ‘अयोध्या निवासी महाराज दशरथ पुत्र श्रीराम को अनेक गुणों से युक्त महान पुरुष कह कर संक्षेप में उनकी समस्त कथा सुनाते हैं. कथा सुनने के उपरान्त महर्षि वाल्मीकि जी स्नान करने के लिए तमसा नदी के तट पर जाते हैं, जहां पर एक बहेलिया प्रेम-क्रीडा में रत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी को अपने बाण से मार डालता है, मादा पक्षी इस शोक से व्याकुल होकर विलाप करने लगती है. इस दृश्य को महर्षि वाल्मीकि जी देख रहे थे, वह इस दृश्य से अत्यंत आहत हुए और उनके मुख से विषाद के रूप में बहेलिया को श्राप देने के लिए अनायास जो शब्द निकलते हैं –

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः

यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम् ॥

इसे संस्कृत का प्रथम श्लोक माना जाता है. इसी दौरान आश्रम में आकर महर्षि वाल्मीकि उस घटना को याद करके बैठे हुए हैं, वहीं पर ब्रह्माजी आ जाते हैं. वे महर्षि वाल्मीकि जी से आग्रह करते हैं कि नारद जी द्वारा जो कथा आपको सुनाई गई है, उसे लिपिबद्ध करें. तब महर्षि वाल्मीकि जी श्लोकबद्ध तरीके से रामायण की रचना करते हैं. रामायण की रचना करते समय महर्षि वाल्मीकि जी के पास एक तो व्यवहारिक अनुभव था और दूसरा महर्षि नारद जी तथा ब्रह्मा जी द्वारा दिए गए विचार. इस तरह महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना आदर्श समाज के लिए एक मूल ग्रंथ के रूप में की.

सामाजिक दर्शन

आदि कवि महर्षि वाल्मीकि रामायण में एक आदर्श समाज की परिकल्पना करते हैं, जिसमें वे एक ऐसे आदर्श परिवार और समाज का निर्माण करते हैं. जिसमें आदर्श पुत्र राम, आदर्श भाई भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न, तो आदर्श पुत्री और पत्नी तथा भाभी के रूप में माता सीता तथा माता के रूप में माता कौशल्या का चित्रण करते हैं. निश्चित रूप से महर्षि महर्षि ने एक आदर्श और प्रेरणादायी समाज का चित्रण किया है. महर्षि वाल्मीकि ने अपने प्रत्येक पात्र पर नैतिक मर्यादा का झीना आवरण डाला हुआ है, इसीलिए स्वयं भगवान श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं. उस समय का समाज अत्यंत मर्यादित एवं सुसंस्कृत था, प्रत्येक व्यक्ति समाज के नियम एवं मर्यादाओं का पालन करता था.

रवीन्द्रनाथ ठाकुर कि कविताभाषा ओ छ्ंदवाल्मीकि नारद से कहते हैंअब तक देवताओं पर काव्य लिखा गया है, मैं अपने काव्य में मनुष्य को अमर करूंगा.

मानवतावादी विचार

महर्षि वाल्मीकि जी का रामायण ग्रन्थ मानवमात्र के कल्याण का मूल मंत्र है, रामायण के श्रीराम एक राजा होते हुए भी प्रजा के साथ कोई भेद-भाव नहीं करते हैं. जैसे जंगल में शबरी के हाथ से झूठे बेर खाते हैं तो जटायु, सुग्रीव और वानरों के साथ-साथ हनुमान जी के साथ मित्रवत व्यवहार करते हैं, निम्न जाति के व्यक्ति निषाद को गले लगाते हैं.

डॉ. शर्मा आगे लिखते हैं, रवीन्द्रनाथ ने बड़े मर्म की बात पकड़ी है. वाल्मीकि परंपरा को जन्म दे रहे थे- उस काव्य को जो देवोपासक नहीं, बड़ी गहरायी से मानवतावादी है. उनके काव्य के आरम्भ में किसी देवता की वन्दना नहीं है. वह घोषित करते हैं कि यह काव्य द्विजों के लिये ही नहीं, शूद्रों के लिये भी है, उनके चरितनायक राम अपने मनुष्य होने की सगर्व घोषणा करते हैं.

एक तरह से जंगल में रहने वाले प्रत्येक प्राणी से मित्रवत भाव रखते हैं, महर्षि ने रामायण में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी आदर्श रूप में राम कथा के माध्यम से प्रस्तुत किया है – कौशल्या, सीता, उर्मिला और मंदोदरी आदि सती-साध्वी और पतिव्रत का पालन करने वाली आदर्श नारी हैं, वे सभी समाज के हित में अपनी इच्छाओं और अधिकारों को त्याग देती हैं. महर्षि वाल्मीकि परिवार की महत्ता पर विशेष महत्व देते हैं, उनका विचार है कि परिवार के सभी सदस्यों में परिवार को चलाने के लिए नैतिक आदर्श का होना जरूरी है.

समन्वयवादी विचार

महर्षि वाल्मीकि के श्रीराम समाज के सभी वर्ग के लोगों को साथ लेकर चलते हैं. उनके राज्य में ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा, सभी समान सम्मान के अधिकारी हैं. राजा दशरथ के शासनकाल का वर्णन करते हुए महर्षि ने वर्णन किया है कि उस समय सभी नागरिक धन्य-धान्य से परिपूर्ण होकर राजा का सम्मान करते थे. महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण में हर स्तर पर समन्वय किया है.

राम राज्य अर्थात् कल्याणकारी राज्य

अयोध्या का राज्य बहुत समृद्ध और सुंदर था, इसका प्रमाण उस समय के सुंदर भवनों और अट्टालिकाओं के वर्णन में मिलता है. इसमें भवनों का निर्माण अनेक प्रकार के रत्नों से हुआ, इससे यह पता चलता है कि राम के राज्य की आर्थिक नीति बड़ी सफल थी. महर्षि वाल्मीकि जी जीवन के चार लक्ष्य – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से अर्थ पर विशेष बल देते हैं. उन्होंने रामायण में मानव के विकास के लिए अर्थ को आवश्यक मानते हुए रामायण में रामराज्य की आर्थिक नीतियों का वर्णन किया है. महर्षि वाल्मीकि धन उपार्जन के साधन और जीवन में धन संग्रह तथा उनका सदुपयोग आदि से संबंधित ज्ञान की विस्तृत चर्चा करते हैं, उनका विचार है कि मानव विकास के लिए धन परम आवश्यक है. आश्रम व्यवस्था के अनुसार गृहस्थ आश्रम का प्रमुख उद्देश्य धन उपार्जन करना है क्योंकि निर्धन व्यक्ति अपने समाज में लज्जा का अनुभव करता है. लज्जित व्यक्ति ग्लानि महसूस करता है और ग्लानि से पीड़ित हो कर वह अपना विवेक खो बैठता है, अविवेक से उसका नाश हो जाता है. इसलिए निर्धनता समस्त आपत्तियों का मूल कारण है. यही नहीं दरिद्र पुरुष का सभी तिरस्कार करते हैं, मित्र भी उससे घृणा करने लगते हैं, स्वयं धनहीन की पत्नी भी उसका तिरस्कार करने लगती है. अत: महर्षि वाल्मीकि रामायण में इस बात पर जोर देते हैं कि व्यक्ति के विकास के लिए अर्थ जरूरी है. लेकिन उन्होंने धन संग्रह के सुसाधनों का ही समर्थन किया है अर्थात् धर्म के आधार पर जो धन संग्रह किया जाए, वही धन शुभ और कल्याणकारी माना जाता है. वे धर्म रहित साधनों से अर्थ संचय का समर्थन नहीं करते हैं.

महर्षि वाल्मीकि धन उपार्जन की अपेक्षा उसके सदुपयोग पर विशेष बल देते हैं, वे कहते हैं कि जो धन गरीबों, दुखियों और लाचारों पर खर्च नहीं होता है, वह धन नष्ट हो जाता है. अयोध्या में प्रजा के कल्याण और विकास पर विशेष ध्यान दिया जाता था. खासतौर पर प्रजा के शिक्षा और स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाता था. भगवान महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है कि शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य की ओर से शुभ कार्य माना है, शिक्षा पर खर्च किया गया धन उनकी दृष्टि में धन का सदुपयोग है.

उनका विचार है शिक्षा के बिना मानव को विकास की दिशा नहीं मिलती है, रामायण से पता चलता है कि राज्य की ओर से शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी.

राज्य में जन स्वास्थ्य सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा जाता था, अयोध्या में राज वैद्य के अलावा अनेक वैद होते थे जो लोगों के स्वाथ्य का ध्यान रखते थे. महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने की बात की है. उनका विचार है कि राज्य अपने नागरिकों को शारीरिक विकास के पूरा अवसर प्रदान करेगा तो वे रोग रहित होंगे. इसीलिए रामराज्य में सभी लोग निरोगी थे.

राज्य की तरफ से कृषकों के कल्याण का विशेष ध्यान रखा जाता था तथा इस के बदले राज्य उन से उपज का 1/6 भाग टैक्स के रूप में लिया जाता था. महर्षि वाल्मीकि का विचार है कि जिस देश में कृषि और कृषकों का विकास होगा. वही देश विकसित होगा. इसीलिए राज्य की ओर से कृषि और वाणिज्य की व्यवस्था की जाती थी. भगवान महर्षि वाल्मीकि ने राज्य की ओर से उद्योग- धंधों की व्यवस्था करने का भी संकेत दिया है, निश्चय ही अयोध्या का राज्य आर्थिक दृष्टि से समृद्ध था.

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में आदर्श राम राज्य की परिकल्पना प्रस्तुत की है. उन्होंने एक राजा के गुणों की चर्चा की है. रामायण में इस बात का उल्लेख करते हैं कि राजा का मुख्य उद्देश्य प्रजा के सुख-दुख का ध्यान रखना होता है. प्रजा के सुख में ही राजा का सुख होता है. अत: राजा को हर प्रकार से प्रजा को सुखी रखना चाहिए. यह एक कल्याणकारी राज्य था, जिसमें कोई भी दीन, हीन, दुःखी नहीं था. राम राज्य में राजा द्वारा साम, दाम, दंड, भेद की नीति का प्रयोग न के बराबर था, अगर वाल्मीकि जी द्वारा रामायण की रचना न की गयी होती तो श्री राम को समाज के सामने कौन लाता और भगवान राम क्या जन-जन तक पहुँच पाते? महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में राजा के लिए सिद्धान्त या संविधान या नियम बनाए हैं. उन नियमों का पालन करना प्रत्येक राजा का राजधर्म था. राजा उन सिद्धांतों का पालन अपने हितों को छोड़कर पालन करता था.

गोस्वामी तुलसी दास, महात्मा गांधी अन्य व्यक्तियों ने राम राज्य के विचार को समाज में अपने कार्यों द्वारा प्रचारित किया तथा समाज में पुन: राम राज्य लाने के लिए प्रयास किये, इसी कड़ी में राम मनोहर लोहिया द्वारा अयोध्या में राम मेला आयोजन की शुरुआत की.

देवराज सिंह

असि॰ प्रो॰ राजनीतिक विज्ञान

गार्गी महाविद्यालय( दिल्ली विश्वविद्यालय)

 

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