वरिष्ठ अधिवक्ता, सामाजिक-पांथिक एवं वैधानिक मुद्दों को लेकर टी.वी. चैनलों पर होने वाली बहसों में इस्लाम की कुरीतियों पर तीखे प्रहार करने के कारण वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. सैयद रिजवान अहमद कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं. उन्हें ट्विटर पर सच कहने के लिए न केवल कट्टरपंथी धमकाते हैं, बल्कि उनके मौसेरे भाई और फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह भी तक भला-बुरा कहते हैं. पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर के ‘हिन्दू पाकिस्तान’ के विवादास्पद बयान को उन्होंने घृणा फैलाने वाला बताकर मुकदमा दर्ज करने के लिए न्यायालय में अर्जी दी थी, जिसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लखनऊ ने स्वीकार कर मामले को परिवाद के रूप में दर्ज करने का आदेश दिया है. इस्लाम, मुसलमानों और समसामयिक विषयों को केन्द्र में रखते हुए उनके साथ हुई बातचीत के अंश –
ट्विटर पर आपके चाहने और कोसने वाले की तादाद भरपूर है. आप जब इस्लाम की कुरीतियों पर वार करते हैं तो एक वर्ग ऐसा है जो हमलावर होता है. इसे आप कैसे देखते हैं?
देखिए, मुस्लिम समुदाय में अभिव्यक्ति की आजादी को द्रोह माना जाता है और यह मानसिकता नस्ल दर नस्ल चलती आ रही है. चाहे पढ़ा-लिखा मुसलमान हो या फिर सामान्य. ग्रामीण हो या शहरी. सबका नजरिया एक जैसा ही होता है. ऐसे में कोई इन कुरीतियों में बदलाव लाने का प्रयास करता है, उन पर चर्चा करता तो कुछ लोग इसे इस्लाम पर हमला समझकर उस पर हमलावर होते हैं, जबकि इस्लाम एक संविधान है और मुसलमान इस संविधान को मानने वाले का नाम है. मैं ऐसे लोगों को समझाता हूं कि जिस तरह हिन्दुस्थान में हिन्दुस्थानियों की कुरीति पर हमला करना हिन्दुस्थान पर हमला करना नहीं माना जा सकता, उसी तरह मुसलमान की सामाजिक कुरीतियों पर हमला करना इस्लाम पर हमला करना नहीं कहा जा सकता. मैं सदैव कुरीतियों को दूर करने की बात करता हूं और करता रहूंगा.
देश की आजादी के बाद से अब तक मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए किसे जिम्मेदार मानते हैं?
आजादी के बाद मुसलमानों को दो तरह के लोग मिले. एक मौलाना मिले, जिन्होंने उन्हें हर चीज के लिए अल्लाह से डराया. चाहे योग हो, भारत माता की जय, वंदेमातरम बोलना, होली का रंग या फिर भारतीय संस्कृति से नजदीकियां. दूसरे वे दल मिले जिन्होंने मुसलमानों की सोच को कभी सुधारने का प्रयास नहीं किया. इससे हुआ यह कि मुसलमान मुख्यधारा से दूर होते चला गया. मुसलमानों को खुले दिमाग वाले मौलाना आजाद जैसा कोई नेता नहीं मिला. ऐसे में मुसलमानों में जो राजनीतिक विचारधारा का खालीपन आया, उसे मुसलमानों के मजहबी नेता से राजनीतिक नेता बने लोगों ने पूरा किया. इन मजहबी नेताओं ने कथित उदारवादी दलों के साथ मिलकर, सांसद-विधायक का टिकट पाकर-दिलवाकर, ठेका-टेंडर से अंधाधुंध पैसा बटोरकर अपने सगे-संबंधियों के भले के दम पर राजनीतिक दलों के इन मजहबी गुंडों को पाला-पोसा और खुश किया. फिर चाहे इमाम बुखारी हों या आज के मजहबी नेता. इन लोगों ने सदैव कौम को बरगलाया और मुसलमानों को मुख्य धारा से दूर रखा. यही वजह रही कि मुसलमान धीरे-धीरे पिछड़ता गया.
अभी ट्विटर पर भाई-भाई का झगड़ा दिखाई दिया. पूरा वाक्या क्या था?
ले. जनरल (सेनि.) जमीरुद्दीन शाह मेरे मौसी के बेटे हैं. उन्होंने अवकाश के 18 साल बाद एक किताब लिखी-सरकारी मुसलमान. मैंने एक वक्ता के नजरिए से इस पर कुछ सवाल उठाए. जैसे-एक फौजी जिसने देश की सेवा इतने वर्षों तक की, उसकी किताब का नाम सरकारी मुसलमान क्यों? यदि मोदी जी ने 2002 के दंगे को 24 घंटे के अंदर रोकने में मदद नहीं की तो 18 साल बाद ही क्यों सवाल उठाया? बस इन्हीं सच बातों को उन्होंने एवं मौसेरे भाई फिल्म कलाकर नसीरुद्दीन शाह ने व्यक्तिगत आक्षेपों के रूप में ले लिया.
देश में कट्टरपंथी वर्ग अयोध्या में राम मंदिर बनने का विरोध करता है, जबकि तमाम साक्ष्य इस बात की तस्दीक कर चुके हैं कि इस स्थान पर मंदिर था जिसे बाद में तोड़कर नया ढांचा बनाया गया. क्या इस्लाम में ऐसे स्थान पर खुदा की इबादत करना जायज है?
इस देश के मुसलमानों के लिए शर्म की बात है कि वे करोड़ों हिन्दुओं के आस्था केन्द्र श्रीराम के जन्म स्थान पर मंदिर निर्माण का विरोध कर रहे हैं. इससे भी ज्यादा शर्म की बात है कि यह कि मंदिर का मामला सर्वोच्च न्यायालय में लड़ा जा रहा है. मुसलमानों के पास ऐसा सुनहरा अवसर था, जब वे श्रीराम जन्मभूमि मसले में आगे आकर बड़ा दिल दिखा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. मैं मानता हूं कि वह साधारण मंदिर नहीं है. वह भारत के करोड़-करोड़ हिन्दुओं की आस्था का केन्द्र है. इसलिए इसे मजहबी नजरिये से नहीं देखना चाहिए. पुरातत्व विभाग के सर्वे में स्पष्ट हो चुका है कि मस्जिद के नीचे मंदिर जैसा निर्माण था, जिसके ऊपर इस मस्जिद का निर्माण किया गया था. इससे एक बात साबित होती है कि यह स्थान मुसलमानों का नहीं है. इसलिए किसी दूसरे की अमानत पर मस्जिद बनाना गलत है और इस्लाम इसकी बिल्कुल इजाजत नहीं देता.
देश में मोदी सरकार आने के बाद ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी सरकार मुस्लिमों की विरोधी है. कितनी सत्यता है इस बात में?
देखिए, हिन्दुस्थान के मुसलमान का अगर सबसे बड़ा कोई विरोधी है तो वह खुद हैं. इसके अलावा सबसे बड़े दुश्मन देश के नाटकीय राजनीतिक दल हैं, जो आजादी के बाद से मुसलमानों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या जनसंघ का खौफ दिखाते आए हैं. ये राजनीतिक दल कभी नहीं चाहते कि देश के मुसलमान मुख्यधारा में शामिल हों. संघ के साथ उनका मित्रवत संबंध हो और एक विचारधारा को लेकर आगे चलें. इन लोगों ने हमेशा से एक चीज फैलाई कि मुसलमान एक बुद्धिहीन कौम है और इसको खुश करने का एक ही तरीका है कि जो भी उसकी कुरीतियां हैं, उस पर नजर न डालें. बस मुस्लिम इसी बात से खुश हो जाते हैं. इसके एवज में उन्हें न तो पढ़ाई चाहिए, न अच्छा माहौल, न विकास और न ही तरक्की और उन्नति. उन्हें तो सिर्फ इतना चाहिए कि जो वह कर रहे हैं उन्हें करने दिया जाए. बस इसी बात का फायदा नाटकीय दल उठाते हैं. यह मुसलमान के कंधे पर बंदूक रखकर संघ और भाजपा पर गोली चलाते हैं और उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया आती है तो दल तो भाग चुके होते हैं, तब मुसलमानों को वह झेलना पड़ता है. इसलिए मेरा मानना है कि मुसलमानों को अपनी बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए और देश की मुख्यधारा से जुड़कर खुद की उन्नति करनी चाहिए.
दिल्ली की व्याख्यानमाला में सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने हिन्दुत्व की समग्र और उदार समावेशी धारणा लोगों के सामने रखी थी. लेकिन बावजूद इसके संघ के बारे में मुसलमानों में दुराग्रह भरा जाता है. इसके पीछे आप क्या कारण पाते हैं?
मोहन जी ने बिल्कुल सही कहा. हम सब एक दूसरे के अंग हैं. इसलिए मुसलमानों को एक बात समझनी पड़ेगी कि हिन्दुस्थान में अगर हिन्दुओं का अंग बनकर रहना है तो उसे यह मानकर चलना पड़ेगा कि भले ही वह इस्लाम को मानता है, लेकिन यह देश राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर का है. इसलिए उसे इनका तहे दिल से सम्मान करना ही होगा. वह भगवान न माने लेकिन महापुरुष तो मान ही सकता है. जब तक ऐसा नहीं करेगा, तब तक वह इस देश का अंग नहीं बन सकता. दूसरी बात मुसलमानों में संघ के बारे दुराग्रह भरने की तो मैं मानता हूं कि मुसलमानों को एक साजिश के तहत संघ से दूर रखा गया है. उन्हें नहीं बताया जाता कि देश की आजादी की लड़ाई से लेकर देश में आने वाली कोई भी आपदा में संघ के स्वयंसेवक खड़े दिखाई देते हैं. तब वह यह नहीं देखते कि आपदा में फंसा मुसलमान है या हिन्दू. मुसलमानों को चाहिए कि वह संघ के नजदीक आकर उसे समझें और संघ भी मुसलमानों के साथ बैठे. जब यह होगा तो दूरियां कम होंगी और सद्भावपूर्ण वातावरण का निर्माण होगा.
कश्मीर के आतंक को आप कैसे देखते हैं? क्या आप मानते हैं कि कश्मीर में इस्लाम के नाम पर लोगों को बरगलाया जाता रहा है?
बिल्कुल मानता हूं कि कश्मीर में इस्लाम के नाम पर लोगों को बरगलाया जा रहा है. देखिए, कश्मीर की समस्या सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक नजरिये से जो भी देखेगा, वह अपने आपको मूर्ख बनाएगा. सऊदी अरब ने पैट्रो डॉलर के दम पर घाटी में इस्लाम, जिहाद और शरिया के नाम का उपयोग किया और लोगों को भड़काया. जिसका परिणाम आज सामने है. दूसरी बात जहां भी मुसलमान जनसंख्या में 50-60 फीसदी होगा, उसे शरिया चाहिए या शरिया के बहाने लड़ाई का बहाना चाहिए.
साभार – पाञ्चजन्य