निशिगंधा कल्लेद
यह अनुभव मुझे अपने पूरे जीवन में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर लगता है. हमें यह जानना ही होगा, कि हमें उस समाज को कुछ देना होगा, जिसमें हम रहते हैं. दूसरे हमारे लिए क्या करते हैं, इसकी बजाय मैं दूसरों के लिए क्या करता हूं, इसका विचार करना आवश्यक है. हम प्रतिदिन टीवी पर देखते हैं कि डॉक्टर, नर्स, पुलिस अथक काम करते हैं, लेकिन बहुत कम लोग खुद आगे आकर इसे करना चाहते हैं. हमारा यह रवैया होता है कि यह उनका काम है, उन्हें इसके पैसे मिलते हैं. लेकिन क्या इन लोगों का सहभाग वास्तव में केवल पैसे तक सीमित है? हमारा अपना जीवन और पैसा क्या समान हो सकता है? इस आपदा के दौरान कई लोगों ने जान गंवाई है. कुछ ने आपदा के कारण और कुछ ने इस स्थिति से लड़ते हुए. जीव सारे समान, यातना भी समान है, लेकिन जीवन का उद्देश्य अलग है…और इस उद्देश्य को जानना सच्चे अर्थों में जीना है.
यद्यपि मैं यह बचपन से कहती आया हूं, कि भारत मेरा देश है और सभी भारतीय मेरे भाई-बहन हैं. यह बहुत देर से महसूस किया कि यह एक केवल पाठशाला में आने के बाद कहने की चीज है. हालांकि, 26 जनवरी और 15 अगस्त को पहले मेरे और मेरी बेटी की पाठशाला में बिना चूके जाती रही. आज भी राष्ट्रगीत सुनने के बाद आंखों से पानी आता ही है और उस “क्यों?” का न मिलने वाला उत्तर मुझे अब मिला.
हमारे एक वाट्सएप ग्रुप पर एक संदेश आया कि कोरोना से शीत युद्ध में लड़ने के लिए स्वयंसेवकों की आवश्यकता है. हो सकता है कि अन्य किसी क होता मैंने सोचा नहीं होता, लेकिन यह संदेश RSS की ओर से था. इसलिए मैंने अपनी आँखें बंद करके फॉर्म भर दिया और भूल भी गई. कभी कभार याद आता, लेकिन फिर भूल भी जाती. मैं यह सोचकर चुप रह जाती कि शायद हमें यह मौका नहीं मिलेगा.
ऐसे में एक दिन मुग्धा मैडम का फोन आया और उन्होंने कहा, “क्या कर रही हो? कुछ नहीं ना, फिर उठो, अपना बैग भरो और कल सुबह 8 बजे गरवारे हॉस्टल पहुंचो.” बस इतना ही!! मैंने केवल अपने माता-पिता, बेटी और अपनी सहेली प्राजक्ता को बताया और तैयारी की.
मैं ठीक सुबह 8 बजे पहुंची. पहुंचते ही बिना कोई सवाल किए हम सभी से कहा गया कि ‘पहले नाश्ता करें, फिर बातें करेंगे’. हमने नाश्ता किया, बैग रूम में गई और फिर हम सब एक साथ मिले. सभी युवा वर्ग के थे और हम में से बहुत कम अधिक उम्र के थे. उनमें से ज्यादातर मेडिकल बैकग्राउंड से थे और बाकी विभिन्न क्षेत्रों से आए थे. आयु अलग, पृष्ठभूमि भी अलग, अनुभव अलग, स्थान भी अलग.
लेकिन सब कुछ समायोजित किया गया…क्योंकि उद्देश्य समान था!
हमें पूरी जानकारी देने के लिए 2 डॉक्टर खड़े थे. क्या-क्या करना है, अपना ख्याल कैसे रखें? खतरे कहां हैं? और गलतियाँ कहां हो सकती हैं…बल्कि वे कैसे होती हैं? और उनसे कैसे बचें? यह बताया गया. हमारे 2-2 लोगों के गट बनाए गए. हर कोई एक दूसरे के लिए नया था, इसलिए समन्वय कैसे होगा? यह एक सवाल था, लेकिन सभी ने इसे चुटकी में हल किया. चूंकि चेहरे पर मास्क था, इसलिए पहचान परेड की कोई जरूरत नहीं थी, केवल नामों को याद रखना था. प्रशिक्षण के बाद हम काम के लिये निकल पड़े. निकलते समय PPE किट, लिखने का सामान, दवाईयां, शरबत की बोतलें.
हमारा काफिला निकला, जाते समय किसी ने भी रास्ते में कहीं नहीं रोका, कोई पूछताछ नहीं, कोई पास नहीं मांगा. क्या बताएं कितना अच्छा लग रहा था…क्योंकि अब तक एंबुलेंस केवल मरीजों को ले जाते हुए दिखती थी, दुःख से भरी होती थी. लेकिन आज वे ‘अच्छे’ काम के लिए निकल पड़ी थी.
जिस क्षेत्र में हमें ले जाया गया, वह पूरी तरह से ‘रेड जोन’ था. कहीं भी हाथ नहीं लगाना, थूकना नहीं है, पानी नहीं पीना है, किसी के भी घर में नहीं जाना है, कहीं भी बैठना नहीं है, किसी को छूना नहीं है, प्राकृतिक विधि भी नहीं, आप केवल बात कर सकते हैं…सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए.
….. फिर हम अपनी जगह पर पहुँच गए.
अब आरंभ असली काम और कसौटी का. PPE किट निकालकर पहनना. इसे कैसे पहनना है, यह सिखाया गया था. लेकिन सीखना, देखना और वास्तव में करना बहुत अलग है. औरों ने इसे पहनना शुरू कर दिया, तो मैं केवल देखती रह गई. मेरे माथे पर पसीने की बूंदें, बहुत ही बेतरतीब. फिर कानों के पीछे से नीचे धारा. दिमाग में विचारों का रेला, मन में डर, डॉक्टरों और नर्सों के न्यूज और एफबी पर देखे हुए वीडियो, समाचार सारे एक ही बार में याद आने लगे और एक पल में सारा धीरज समाप्त हुआ. पीछे दीवार से सटकर मैं खड़ी रही, एक पल के लिए ही. लेकिन उस पल में मैंने सारी आशा खो दी थी, वह पल मेरे लिए अनंत जैसा लग रहा था…उस पल में मैंने प्राजक्ता को याद किया, मुझे उसका वाक्य याद आया, “मैं बहुत जेलस हूं हां, तुम जा रही हो और और मैं नहीं जा सकती.” और मैं यह सोचकर फिर से आगे आई कि मेरे बजाय वही यहां खड़ी है. किट निकाली और पहनना शुरू किया. पहले ग्लव्स और उस पर सेनेटाइजर लगाना, फिर एन 95 मास्क, पुनः सेनेटाइजर, दूसरा ग्लव्स, पुनः सेनेटाइजर. अब पूरा किट जंप सूट जैसे पहनना. पुनः सेनेटाइजर, अब ओटी कैप, सेनेटाइजर, किट की टोपी, पुनः सेनेटाइजर, उस पर और एक मास्क, गॉगल, और एक ग्लव्स और सबसे आखिर में फेस शील्ड और पुनः सेनेटाइजर. बीच बीच में सेनेटाइजर का उपयोग आवश्यक है…मैं खुद को इससे अधिक नहीं ढंक सकती थी. मैं कैसी दिख रही थी, यह बात मामूली बात थी, क्योंकि सब एक समान ही दिख रहे थे – पुरुष और महिलाएं भी.
शरीर पर किट पहनना तो हो चुका, लेकिन मन में भय से छुटकारा कैसे पाएं? बंद स्थान के फोबिया लेकर जीने वाली मैं स्वयं ही हर तरफ से बंद हो चुकी थी. बाकी सब कुछ खुला, लेकिन मैं बंद थी. पहले से ही पसीने से तर बतर थी, विचार तो इतनी तेजी से चल रहे थे, कि पूछिए मत. लेकिन फिर से ढांढस बांधकर स्वयं को शांत कर लिया और इस दृढ़ सोच के साथ 12वीं मंजिल के लिए निकल पड़ी, कि यहां आकर पीछे नहीं हटूंगी.
पहला चरण पूर्ण!
अब दूसरा कदम है डोर टू डोर जाकर स्क्रीनिंग करना. एक डॉक्टर और दो स्वयंसेवक ऐसे हम निकले. एक नाम लिखे, दूसरा गोलियां दे, उन्हें समझाए. इस तरह एक दिन में पूरे 70 घर जांचे. प्रत्येक घर में कम से कम 6 लोग और अधिकतम 15 लोग, किस प्रकार सोशल distancing का पालन हो? हर मंजिल पर औरतों का कुंडली मारकर बातें करना, बच्चों का खेलना और बीच की उम्र के बच्चों के हाथों में मोबाइल. क्या और कैसे समझाएं? स्वच्छता रखें, अंतर रखें, कैसे कहें? फिर भी उन्हें जानकारी देना, अपनी और अपने परिवार की देखभाल करने का तरीका हम लगातार बताते थे. लोगों के अनगिनत प्रश्न और उन प्रश्नों के उन्हें भाने वाले उत्तर, इस तरह यह यात्रा 4 घंटे से अधिक समय तक चली.
अब अपने बेस पर वापस आकर किट निकालना…किट पहनना जितना आसान, उतना ही उसे निकालना मुश्किल था. इसे बाहर की तरफ छूए बिना निकालना था और बांधकर इसे एक डस्टबिन बैग में रखना था. सभी दस्ताने, मास्क और सेनेटाइज़र अलग से उतारना और पुनः सेनेटाइजर…अब गला सूख चुका था, पानी जरूरी था. लेकिन कंपल्सरी पहले शरबत और फिर पानी. लेकिन जब यह पेट में चला गया, तो मुझे एहसास हुआ कि वास्तव में सूखे इलाकों में लोग कैसे प्यासे और बिना पानी के रहते होंगे और मुझे एहसास हुआ कि हम कितने भाग्यशाली हैं.
बाकी बचे किट और पूरी जानकारी के साथ हम पुनः अपने स्थान पर वापस आ गए. जब हम पहुंचे, तो अन्य सभी स्वयंसेवकों ने तालियाँ बजाकर हमारा स्वागत किया. वास्तव में, हम रोमांचित थे और हमारी आँखों में आँसू थे. क्या हमने बहुत कुछ किया था? नहीं, लेकिन जो कुछ हमने किया उसके प्रति यह एक वंदन था. दो हाथों से बजने वाली मामूली सी तालियां और उनका महत्त्व आज महसूस हुआ. हमारे अपने ही लोगों को जीवन में उनका महत्त्व जताने के लिए यह एक रसीद थी. यहां एक अलग वातावरण, एक अलग ऊर्जा का अनुभव किया. मुझे यह शायद दुनिया में कहीं भी नहीं मिली होती.
इसी तरह हम अगले 2 दिन स्क्रीनिंग के लिए गए और और अगले 4 दिन क्वारेंटाइन, इस तरह की यह यात्रा थी. इन आठ दिनों के दौरान हमारा अपने घर के लोगों की तुलना में अधिक ध्यान रखा गया. सब कुछ समय पर, अच्छा भोजन, दवा और पूर्ण विश्राम. अपने पूरे जीवन में इतना आराम मैंने कभी महसूस नहीं किया.
यह अनुभव मुझे अपने पूरे जीवन में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर लगता है. हमें यह जानना ही होगा, कि हमें उस समाज को कुछ देना होगा, जिसमें हम रहते हैं. दूसरे हमारे लिए क्या करते हैं, इसकी बजाय मैं दूसरों के लिए क्या करता हूं, इसका विचार करना आवश्यक है. हम प्रतिदिन टीवी पर देखते हैं कि डॉक्टर, नर्स, पुलिस अथक काम करते हैं, लेकिन बहुत कम लोग खुद आगे आकर इसे करना चाहते हैं. हमारा यह रवैया होता है कि यह उनका काम है, उन्हें इसके पैसे मिलते हैं. लेकिन क्या इन लोगों का सहभाग वास्तव में केवल पैसे तक सीमित है? हमारा अपना जीवन और पैसा क्या समान हो सकता है? इस आपदा के दौरान कई लोगों ने जान गंवाई है. कुछ ने आपदा के कारण और कुछ ने इस स्थिति से लड़ते हुए. जीव सारे समान, यातना भी समान है, लेकिन जीवन का उद्देश्य अलग है…और इस उद्देश्य को जानना सच्चे अर्थों में जीना है.
इन 3 दिनों में बहुत अच्छे, बुरे अनुभव मैंने लिए. जब हम द्वार पर खड़े होते थे, तो हम उन छोटी सी आँखों के लिए कभी डोरेमॉन होते, युवाओं के लिए एलियंस थे, मध्यम आयु वर्ग के लोगों के लिए कर्तव्य और पुराने लोगों के लिए सराहना का विषय थे. भले ही हमने किसी को भी नहीं छुआ, लेकिन वे झुर्रियों वाले बूढ़े चेहरे प्रशंसा से हम पर न्यौछावर करते थे. वैसे तो हम किसी के कोई नहीं थे, लेकिन इस स्थिति में व्यक्ति से व्यक्ति को जोड़ रहे थे.
ये अविस्मरणीय, ये दिन मैं केवल संघ के कारण अनुभव कर सकी. हमसे पहले और साथ में काम करने वाले संघ के तथा अब संघ से नए जुड़ने वाले सभी स्वयंसेवकों को मेरा सलाम…. !!!
(पुणे में स्क्रीनिंग अभियान में शामिल स्वयंसेवी)