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संघ शिक्षा वर्ग में आए स्वयंसेवकों से न मिल पाने की पीड़ा से आहत थे डॉ साहब

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359_07_03_56_dr-hedgewar_H@@IGHT_456_W@@IDTH_500डॉ साहब संघ कार्य, और स्वयंसेवकों को लेकर किस कदर चिंतित रहते थे, उनके जीवन के अंत तक यह व्यवहार से परिलक्षित होता रहा. नागपुर में संघशिक्षा वर्ग के दौरान डॉ साहब अस्वस्थता के कारण स्वयंसेवकों से नहीं मिल पाए थे, जिसकी पीड़ा उनके चेहरे पर स्पष्ट दिख जाती थी और जब बड़े आग्रह के पश्चात स्वयंसेवकों से मिलने का अवसर मिला तो प्रसन्नता भी साफ दिख रही थी. उस घटना का संकलन स्वयंसेवक बंधुओं के लिये दिया जा रहा है………..

डॉक्टर साहब को नागपुर आये एक पखवाड़ा होता जा रहा था, परन्तु उनके रोग में कमी के लक्षण नहीं दिखते थे. अतः उन्हें रह-रहकर यह खटकने लगा कि अब थोड़े ही दिनों में वर्ग की समाप्ति पर सब स्वयंसेवक अपने-अपने घर लौट जायेंगे तथा वे उनसे मिल नहीं सकेंगे. उन्होंने वर्ग के अधिकारियों से इस बात की जिद्द पकड़ ली कि एक बार मुझे वर्ग में ले चलो तथा सब स्वयंसेवकों को आँखे भरकर देख लेने दो. अतः रविवार दिनांक 2 जून को सायंकाल के शान्त समय पर बौद्धिक वर्ग में उन्हें लाया गया. उस दिन श्री गुरुजी का ‘श्री छत्रपति शिवाजी का मिर्जा राजा जयसिंह को पत्र’ इस विषय पर विचार प्रवर्तक एवं ओजस्वी भाषण हुआ. भाषण में व्यक्त आत्मविश्वास तथा हिन्दू राष्ट्र के उद्धार की ज्वलन्त आकांक्षा डॉक्टरजी के लिये उत्साहवर्द्धक थी. वे अति प्रसन्न मुद्रा में घर लौटे. अनेक लोगों से उन्होंने प्रशंसा की कि गुरुजी का भाषण बहुत अच्छा हुआ.

वर्ग समाप्ति पर आ रहा था. प्रत्येक व्यक्ति के मन में यही बात उठ रही थी कि यहाँ आने पर भी डॉक्टरजी के विचार सुनने का सौभाग्य नहीं मिल पाया. संघ की दृष्टि से तो ‘वर्ग’ एक महान् पर्व ही है. ऐसे अवसर पर बिस्तर पकड़ लेने का दुःख डॉक्टरजी को बहुत व्यथित कर रहा था. दिनांक 8 जून को जब वर्ग का सार्वजनिक समारोप हुआ तो डॉक्टरजी ने श्री गुरुजी से तथा अपने चिकित्सकों से वहाँ जाने की इच्छा आग्रह के साथ प्रकट की. परन्तु उनकी ऐसी हालत नहीं थी कि उन्हें इतनी दूर खुले मैदान में ले जाया जा सके. अतः निरुपाय होकर डॉक्टरों को उनकी इच्छा टालनी पड़ी. डॉक्टरों के इंकार से डॉक्टरजी बहुत अधिक विषण्ण हो गये. उन्हें लगा कि सब कुछ करने पर भी स्वास्थ्य तो ठीक हो नहीं रहा है, फिर व्यर्थ ही स्वयंसेवकों की भेंट से क्यों वंचित रखते हैं ?

समारोप के कार्यक्रम से लौटने के बाद डॉक्टरजी के मन की तड़फड़ाहट लोगों से छिप न सकी. इसलिए यह निश्चित किया गया कि उनके सन्तोष के लिये दूसरे दिन प्रातःकाल निजी समारोप के कार्यक्रम में उन्हें लाया जाये. डॉक्टरजी का मन इस निर्णय से खिल उठा क्योंकि संघकार्य की प्रगति के सम्बन्ध में सन्तोष व्यक्त करने तथा आगे की अपेक्षा व्यक्त करने के लिए वे बहुत ही आकुल थे.

दूसरे दिन प्रातः उन्हें वर्ग में लाया गया. लगभग डेढ़-दो हजार व्यक्तियों को उनका भाषण अच्छी तरह सुनायी दे सके तथा उन्हें भाषण देते हुए कम-से-कम कष्ट हो इसलिए ध्वनिवर्धक यंत्र की व्यवस्था की गयी थी तथा उनके बैठने की कुर्सी पर नीचे तथा दोनों ओर नरम तकिये लगा दिये गये थे. ठीक समय पर डॉक्टरजी वहाँ आये. तकियों को देखकर उन्होंने स्वयं उठाकर उन्हें नीचे रख दिया, मानो उन्हें शरीर के लिए इतने चोचले पसन्द नहीं थे. इसके उपरान्त विभिन्न प्रान्तों के कुछ चुने हुए स्वयंसेवकों ने वर्ग से वे क्या ग्रहण कर पाये तथा अपने कार्यक्षेत्र में संघ का कार्य कैसे करेंगे, इस सम्बन्ध में विचार रखे. उन सबके विचारों में वृद्धिगत आशावाद ही व्यक्त होता था. इसके उपरान्त डॉक्टरजी ने भाषण किया जो सदा अविस्मरणीय रहेगा.

उन्होंने कहा……

मान्यवर सर्वाधिकारी जी, प्रान्त संघ संचालक महोदय, अधिकारी वर्ग तथा स्वयंसेवक बन्धुओं.

मैं यह नहीं जान सकता कि मैं आज आपके सम्मुख दो शब्दों को भी ठीक तरह से कह सकूंगा. आप तो जानते ही हैं कि गत 24 दिनों से मैं रुग्णावस्था पर पड़ा हुआ हूं. सच की दृष्टि से यह वर्ष बड़े सौभाग्य का है. आज मेरे सामने हिन्दू राष्ट्र की छोटी सी प्रतिमा देख रहा हूं, किन्तु मेरी शारीरिक अस्वस्थता के कारण इतने दिन नागपुर में रहते हुए भी आपका परिचय प्राप्त कर लेने की मेरी इच्छा को मैं फलीभूत नहीं कर सका. पूना के ओटीसी में मैं 15 दिन तक था और वहां मैंने हर एक स्वयंसेवक से स्वयं परिचय कर लिया. मैं समझता था कि नागपुर के ओटीसी में भी मैं वैसा ही कर सकूंगा, किन्तु मैं आपकी सेवा तनिक भी नहीं कर सका. यही कारण है कि मैं आज यहां पर आपके दर्शन करने आया हूं.

‘मेरा और आपका कुछ भी परिचय न होने पर भी ऐसी कौन सी बात है कि जिसके कारण मेरा अंतःकरण आपकी ओर और आपका मेरी ओर दौड़ रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा ही ऐसी प्रभावशालिनी है कि जिन स्वयंसेवकों का आपस में परिचय तक नहीं है, उनमें भी पहली ही नजर में एक दूसरे पर प्रेम उत्पन्न हो जाता है. बातचीत होते न होते वे परस्पर मित्र हो जाते हैं. चेहरे पर मुस्कुराहट मात्र से एक दूसरे को पहचान लेते हैं. पिछले दिनों जब मैं पूना में था, तब एक बार मैं और सांगली के श्री काशीनाथ जी लिमये ‘लकड़ी पुल’ पर से जा रहे थे. उसी समय हमारे ही ओर नौ-दस वर्ष की आवस्था के दो बालक आ रहे थे. हमारे पास से जाते समय किंचित मुस्करा कर वे आगे बढ़ने लगे. तब मैंने श्री काशीनाथराव जी से कहा, ‘ये लड़के संघ के स्वयंसेवक हैं.’ मेरी इस बात पर श्री काशीनाथ राव जी ने आश्चर्य प्रकट किया. बिना किसी तरह की जान पहचान के मैंने इन बालकों को असंदिग्ध स्वर में स्वयंसेवक कैसे बतलाया? यह जानने के लिये एक समस्या हो गयी. उन्होंने मुझ से पूछा, ‘यह आप कैसे कहते हैं कि ये हमारे स्वयंसेवक हैं?’ कारण उन दोनों की वेष-भूशा में स्वयंसेवकत्व का निदर्शक कोई भी बाहरी चिन्ह नहीं था. मैंने कहा, ‘केवल मैं कहता हूँ इसीलिये. क्या आप को इस बात की सत्यता आजमानी है? कुछ दूर चले गये हुए उन बालकों को मैंने वापिस बुलाया और पूछा, ‘क्यों, हमें पहचानते हो?’ उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया ‘जी हाँ, दो साल पहले आप शिवाजी मन्दिर में लगने वाली बाल शाखा में आये थे. आप हमारे सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार जी हैं. आप के साथ के सज्जन सांगली के श्री काशीनाथ राव लिमये हैं.’ यह संघ की तपश्चर्या का फल है. केवल किसी एक व्यक्ति का यह काम नहीं. अभी वहां पर जिन्होंने भाषण दिया वे मद्रास के श्री संजीव कामथ यहां एक अपरिचित के रूप में आये थे और अब चार रोज से ही हमारे भाई बन वापिस जा रहे हैं. इसका श्रेय किसी मनुष्य को नहीं, संघ को है. भाषा भिन्नता अथवा आचार भिन्नता होते हुये भी पंजाब, बंगाल, मद्रास, बंबई, सिंध आदि प्रान्तों के स्वयंसेवक परस्पर क्यों इतना प्रेम करते हैं? केवल इसलिये कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घटक हैं. हमारे संघ का प्रत्येक घटक दूसरे स्वयंसेवक पर अपने भाई से भी अधिक प्रेम करता है. सगे भाई भी कभी कभी घर बार के लिये आपस में लड़ते हैं, किन्तु स्वयंसेवकों में वैसी बात नहीं हो सकती.

मैं आज 24 दिन से घर में पड़ा हूं. परन्तु मेरा हृदय तो था यहां ही, आप लोगों के पास. मेरा शरीर घर में था, किन्तु मन कँप में आप लोगों के बीच में ही रहा करता था. कल शाम को कम से कम पांच मिनट के लिये, केवल प्रार्थना के लिये ही संघस्थान पर जाने के लिये जी बहुत तड़प रहा था. किन्तु डॉक्टर लोगों के सख्त मना करने पर मुझे चुप बैठना पड़ा. आज आप अपने अपने स्थान वापिस जा रहे हैं. मैं आपको प्रेम से विदाई देता हूँ. यह अवसर यद्यपि बिछोह का है, फिर भी दुःख का कदापि नहीं. जिस कार्य को सम्पन्न करने के निश्चय से आप यहां आये उसी कार्य की पूर्ति के लिये आप अपने स्थान पर वापिस जा रहे हैं. प्रतिज्ञा कर लो कि जब तक तन में प्राण हैं, संघ को नहीं भूलेंगे. किसी भी मोह से आपको विचलित नहीं होना चाहिये. अपने जीवन में ऐसा कहने का कुअवसर न आने दीजिये कि पांच साल के पहले मैं संघ का सदस्य था. हम लोग जब तक जीवित हैं, तब तक स्वयंसेवक रहेंगे. तन मन धन से संघ का कार्य करने के लिये अपने दृढ़ निश्चय को अखण्डित रूप से जगृत रखिये. रोज सोते समय यह सोचिये कि आज मैंने क्या काम किया है. यह ध्यान में रखिये कि केवल संघ का कार्य-क्रम ठीक रूप से करने या प्रतिदिन  नियमित रूप से संघ स्थान पर उपस्थित रहने से ही संघ-कार्य पूरा नहीं हो सकता. हमें तो आसेतु-हिमाचल फैले हुये इस विराट हिन्दू समाज को संगठित करना है. सच्चा महत्वपूर्ण कार्य क्षेत्र तो संघ के बाहर से बसने वाला हिन्दू जगत ही है. संघ केवल स्वयंसेवकों के लिये ही नहीं, संघ के बाहर के जो लोग हैं उनके लिये भी है. हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि इन लोगों को हम राष्ट्र के उद्धार का सच्चा मार्ग बतायें और यह मार्ग है केवल संगठन का. हिन्दू जाति का अन्तिम कल्याण संगठन के ही द्वारा हो सकता है. दूसरा कोई भी काम करना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं चाहता. यह प्रश्न कि आगे चलकर संघ क्या करने वाला है, निरर्थक है. संघ इसी संगठन कार्य को कई गुना तेजी से आगे बढ़ाएगा. यों ही बढ़ते बढ़ते एक ऐसा स्वर्ण दिन अवश्य आएगा, जिस दिन सारा भारतवर्ष दिखाई देगा. फिर हिन्दू जाति की ओर वक्र दृश्टि से देखने का सामर्थ्य संसार की किसी भी शक्ति में न हो सकेगा. हम किसी पर आक्रमण करने नहीं चले हैं, पर इस बात के लिये सदा सचेश्ट रहेंगे कि हम पर भी कोई आक्रमण न कर सके.

मैं आपको आज कोई नई बात तो नहीं बता रहा हूँ. हम में से हर एक स्वयंसेवक को चाहिये कि वह संघ के कार्य को ही अपने जीवन का प्रधान कार्य समझे. मैं आज आपको इस दृढ़ विश्वास के साथ विदाई दे रहा हूं कि आप अब इस मंत्र को अपने हृदय पर अच्छी तरह अंकित कर यहां से विदा लेंगे कि एक मात्र संघ कार्य ही मेरे जीवन का कार्य है.

21 जून 1940 को डॉ साहब का निधन हो गया.

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