नई दिल्ली. सामाजिक कार्यकर्ता गीता गुंडे जी ने कहा कि केवल कानूनों में बदलाव करने से महिलाओं की स्थिति नहीं सुधरेगी, बल्कि इसके लिए व्यापक सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता है. गीता ताई ‘महिलाओं के लिए बने संपत्ति व विवाह कानूनों की प्रभावशीलता’ विषय़ पर आयोजित संगोष्ठी में संबोधित कर रही थीं. संगोष्ठी का आयोजन ‘चेतना’ तथा ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ द्वारा संयुक्त रूप से किया गया था.
उन्होंने कहा कि मनुष्य ने जब समूह में रहना आरम्भ किया, तब से ही उन्होंने अपने लिए उचित, अनुचित के नियम बना लिये थे. परम्परा के ज्ञान के आधार पर दंड व्यवस्था के भी नियम बने. भारतीय शास्त्रों में सती प्रथा जैसी रूढ़ियां नहीं थीं. कालांतर में महिलाओं का पक्ष कमजोर पड़ता गया. वर्तमान में खाप पंचायतों के फैसलों पर चिंता जताते हुए कहा कि आज ऑनर किलिंग जैसी घटनाएं हो रही हैं, वह पिछले 50-60 साल पहले सुनने को नहीं मिलती थीं. जैसे समाज की अवनति हुई, उससे ज्यादा महिलाओं की अवनति हुई है. इस पर विचार करने की आवश्यकता है. भारतीय दृष्टिकोण में जहां अधिकारों की बात कही गई है, वहीं कर्तव्य को भी प्रमुखता से बताया है. कर्तव्य को धर्म से जोड़ा गया है, किन्तु यह धर्म यहां उपासना नहीं, बल्कि परिवार, समाज एवं देश के प्रति कर्तव्यों के पालन को कहा गया है. एक मनुष्य के नाते जो हमको करना चाहिए वह धर्म है. उन्होंने कहा कि वंचित व समाज से ठुकराई महिलाओं के लिए भी हमारे समाज में व्यवस्थाएं थी. कुंआरी मांओं के लिए भी हमारा धर्म उदारता भाव बताता है. उसके बच्चे को अनाथाश्रम नहीं भेज कर नाना-नानी अथवा समाज के लोग संभालते हैं. अपने यहां यह व्यवस्थाएं थीं, मानसिक उदारता का एक धर्म हमें सिखाया जाता था. कानूनों में बदलाव भी इसी उदारता को ध्यान में रखकर होते रहते हैं. विकृतियों को दूर करने के भी प्रयास होने चाहिए. इसके लिए सर्वव्यापी विचार करने की आवश्यकता है. समाज में टुकड़ों-टुकड़ों पर विचार न करते हुए, इन विषयों पर एक समग्र विचार करेंगे तो मानवता के आधार पर, समाज को एक अच्छी दिशा की ओर अग्रसर कर सकते हैं.
कार्यक्रम की अध्यक्षता कानूनविद् ज्योतिका कालरा जी ने की. उन्होंने कहा कि समाज में बदलाव के लिए केवल कानून बना लेने अथवा सरकार के प्रयास ही पर्याप्त नहीं होते, अपितु उसके लिए एक-एक व्यक्ति को तैयार करने की जरूरत होती है. ऐसे सम्मेलनों में व्यक्ति निर्माण के ऐसे ही प्रयास किए जा रहे हैं. कानून होने के बाद भी आज भी 50 प्रतिशत शादियां तय सीमा से कम उम्र में हो रही हैं. महिला-पुरुष के समानाधिकार कानून बने हैं, आवश्यकता उनको सही से लागू करने की है.
इससे पूर्व चेतना की महासचिव प्रज्ञा परांडे जी ने कहा कि हम सभी के अन्दर अनेक क्षमताएं हैं, चेतना संस्था इसे एकत्र कर महिलाओं व बच्चों के लिए अनेक उपक्रम चला रही है, जिसमें लिंग समानता, महिला सुरक्षा, आत्मरक्षा प्रशिक्षण संबंधित गतिविधियां सम्मिलित हैं.