अंडमान और निकोबार द्वीप समूह भारत का अभिन्न अंग है. इस द्वीप समूह में अनेक जनजाति समूह सालों से निवास कर रहे हैं. इन्हीं जनजाति समूहों में से एक है ‘सेंटिनेलिस जनजाति’. बाहरी दुनिया से पूरी तरह दूर रहने वाली यह जनजाति उत्तरी सेंटिनल द्वीप में अपने ही क्षेत्र में पूरी तरह से सीमित रहती है. लेकिन कुछ दिन पूर्व वहाँ एक अमेरिकी नागरिक की मौत हुई. वह अमेरिकी नागरिक वहाँ घूमने नहीं, बल्कि ईसाई धर्म का प्रचार कर उन सेंटिनेलिस जनजाति के लोगों को ईसाई बनाने के उद्देश्य से पहुँचा था और इसी वजह से जनजाति के लोगों ने उसकी तीर मार कर हत्या कर दी.
दरअसल बात यहां हत्या की नहीं है, बात है कि वह अमेरिकी ईसाई धर्म प्रचारक वहां तक पहुंचकर ऐसी जनजाति को निशाना बनाना चाह रहा था, जनजाति का बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं है. ऐसी जनजाति जिसकी अपनी परंपरा है, अपने रीति-रिवाज हैं, अपनी संस्कृति है, उसको खत्म कर ईसाई प्रचारक लगातार इन आदिवासियों को उनकी जड़ों से खत्म करना चाहते हैं.
अंडमान निकोबार का उत्तरी सेंटिनल द्वीप भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित क्षेत्र है. उस क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को जाना वर्जित है. ऐसे में एक ईसाई धर्म प्रचारक धर्मांतरण के उद्देश्य से कुछ स्थानीय मछुआरों को अपनी बातों से मना कर उस प्रतिबंधित क्षेत्र में जाता है और वहाँ उसकी हत्या होती है तो इसका दोषी कौन है? क्या इसके दोषी वो जनजाति समुदाय हैं जो अपनी संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं या भारत की सरकार है जो ईसाई धर्मांतरण करने वाले प्रचारकों पर पैनी नज़र नहीं रख पा रही है? असल में यह भी एक अलग व्यवस्था है. दरअसल धर्म प्रचार के लिए आने वाले कुछ प्रचारक “टूरिस्ट वीज़ा” के जरिए यहाँ पहुँचते हैं, जिसकी वजह से उन पर नज़र नहीं रखी जा सकती. वहीं वीज़ा देने की प्रक्रिया में भी खामियां हैं. जिसकी वजह से प्रचारक किन किन स्थानों पर जा रहे हैं, इसकी पूरी जानकारी नहीं मिल पाती.
अंडमान निकोबार द्वीप के स्थानीय मीडिया से खबर मिली है कि मारा गया ईसाई धर्म प्रचारक पहले भी उस क्षेत्र में जा चुका है. किसी प्रतिबंधित क्षेत्र में कोई ईसाई धर्म प्रचारक बार बार कैसे पहुँच सकता है, इसकी भी जाँच होनी चाहिए.
धर्म प्रचारकों ने कहीं धन के लोभ में तो कहीं झूठे प्रचार से लोगों को दिग्भ्रमित कर अपने जड़ों से काट दिया. भारतीय उपमहाद्वीप और अफ्रीका महाद्वीप के जनजातियों के साथ ईसाई धर्म प्रचारकों ने यही काम किया है. अफ्रीकी मूल निवासी डेस्मंड टूटू ने कहा था कि “जब ईसाई धर्म प्रचारक यहाँ आए तो उनके हाथ में बाइबल था और हमारे पास जमीन. उन्होंने कहा – ‘आओ प्रार्थना करें’, हमने आँखें बंद कर लीं. और जब हमने आँखें खोलीं तो हमारे हाथ में बाइबल थी और उनके पास हमारी जमीन.”
कुछ यही हाल ईसाई धर्म प्रचारकों ने भारत में भी की है. छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश जैसे क्षेत्रों के जनजाति समुदायों के बड़ी संख्या में ईसाई धर्म प्रचारकों ने धर्मांतरण कराया है.
यहां की भी जनजातियों को अपनी स्थानीय परंपरा, संस्कृति और आराध्याओं को पूजने में दखलंदाजी पर रोक लगाने और ईसाई धर्म प्रचारकों को धर्मांतरण के लालच देने पर अहिंसक विरोध करना चाहिए. अहिंसक विरोध जरूरी भी है और सही भी है.