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हमें ‘इस्लामोफोबिया’ नहीं, ‘देशद्रोहीफोबिया’ और ‘गद्दारोफोबिया’

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मुकेश कुमार सिंह

दो दिन पहले प्रसिद्ध अभिनेता इरफान खान का दुःखद स्वर्गवास हो गया. मुझे नहीं लगता कि पूरे भारत में कोई भी होगा, जिसने शोक नहीं मनाया होगा, चाहे वह किसी भी धर्म का हो.  स्वर्गीय इरफान खान के प्रति बहुसंख्यक समाज के इस अगाध प्रेम ने यह साबित कर दिया कि भारत का बहुसंख्यक समाज किसी का धर्म देखकर नहीं, बल्कि उसका कर्म देखकर उससे प्रेम और नफरत करता है. इसके पूर्व में भी जब कभी किसी अल्पसंख्यक की तथाकथित लिंचिंग हुई है, जिनमें से अधिकतर मामले बाद में झूठे साबित हुए; उसमें भी इस देश की 90% से अधिक जनता ने उन घटनाओं का विरोध किया, चाहे वह किसी भी धर्म का हो. आपको विश्वास ना हो रहा हो तो ट्विटर या फेसबुक या कोई भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म उठाकर देख लीजिए.

फिर ऐसे समय में जब भारत कोरोना वायरस जैसे गंभीर संकट का सामना कर रहा है, यह ‘इस्लामो फोबिया’ की बातें कहां से उठ रही हैं? कौन है जो भारत के खिलाफ़ ऐसा दुष्प्रचार कर रहा है? ध्यान देने वाली बात यह है कि यह सब कुछ ऐसे समय पर हो रहा है, जब भारत समूचे विश्व को त्रस्त कर देने वाली खतरनाक बीमारी कोरोना से सफलतापूर्वक लड़ रहा है. दरअसल भारत की यही सफलता कुछ लोगों को रास नहीं आ रही. भारत में और भारत से बाहर के अनेक लोग ऐसे हैं जो कभी भी भारत की तरक्की नहीं चाहते. जो किसी भी हालत में भारत की सफलता बर्दाश्त नहीं कर सकते, चाहे वह ऐसी खतरनाक बीमारी से लड़ाई में ही क्यों ना हो. और यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि इसमें सभी धर्म के लोग शामिल हैं. ऐसा नहीं है कि सिर्फ अल्पसंख्यक या फिर विदेशी ताकतें ही भारत का बुरा चाहती हैं, भारत में ऐसे गद्दारों की कमी नहीं है और कभी भी नहीं रही जो यहां का नमक खाकर यहीं की बर्बादी की कामना करते रहते हैं. इन लोगों ने यह अनुमान लगाया था कि इस लॉकडाउन में भारत बुरी तरह असफल हो जाएगा. लोग कुछ ही दिनों में सड़कों पर उतर आएंगे, भूख से मरने लगेंगे, बेरोजगार सड़कों पर आकर खून खराबा करेंगे, पूरे देश में अराजकता फैल जाएगी और हजारों लाखों लोग इस बीमारी से मरेंगे. किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ और इन लोगों को इसी बात का दुःख है.

मैं किसी का भी नाम नहीं लूंगा, किंतु यह लोग सबके समक्ष हैं और सब इनके बारे में जानते हैं. जब इन्हें और कुछ नहीं सूझा तो इन्होंने ‘इस्लामोफोबिया’ का नया नारा दे दिया. जबकि हकीकत यह है कि जिन लोगों ने यह बीमारी फैलाई, पुलिस, स्वास्थ्य कर्मी और सरकार ने उनके पत्थर खाकर भी, उनके द्वारा किए गए तरह-तरह के अपमान को बर्दाश्त कर भी उनका इलाज किया. जहां पूरे इस्लामिक वर्ल्ड में और इस्लामिक समाज द्वारा उसकी तारीफ की जानी चाहिए थी, वहां दुश्मन देश और देश के गद्दारों ने भारत में ‘इस्लामोफोबिया’ का दुष्प्रचार किया.

हमें इस दुष्प्रचार से डरना नहीं है, बल्कि इसका सही तरीके से तर्कों द्वारा प्रतिकार करना है. आज का विश्व परसेप्शन अर्थात् अवधारणा पर चलता है. आज दो देशों के बीच लड़ाई शस्त्रों से नहीं, सोशल मीडिया और परसेप्शन के आधार पर लड़ी जाती है. दुश्मन खुलकर सामने नहीं आता, वह पीठ पर वार करता है और वार करने के नए-नए तरीके ढूंढता है. आज जबकि पूरी दुनिया ग्लोबलाईजेशन के कारण एक हो चली है, आर्थिक तौर पर, सामाजिक तौर पर देशों में उतनी दूरी नहीं रही, जितनी पहले हुआ करती थी तो सबसे बड़ा हथियार यह है कि किसी देश को पूरी दुनिया में बदनाम कर दो. उसके बारे में गलत परसेप्शन क्रिएट करो और दुख की बात यह है कि हमारे देश के हमारे अपने लोग उनकी मदद कर रहे हैं. उन्हें सरकार और बहुसंख्यक समाज द्वारा किए जा रहे हजारों अच्छे कर्म दिखाई नहीं देते, वे अच्छे कामों को भी इस तरह से पेश करने की कोशिश करते हैं कि यह बहुत गलत कर रहे हैं. उनके द्वारा बनाए जा रहे इस परसेप्शन का प्रतिकार जरूरी है, भारत में भी और भारत के बाहर भी. अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए जितने कार्य इस सरकार ने किए हैं, उतने शायद किसी भी पूर्ववर्ती सरकार ने नहीं किए, और शायद यही कुछ लोगों को रास नहीं आ रहा. इसलिए वह दिन-रात बहाने ढूंढते रहते हैं कि कैसे इस सरकार को बदनाम किया जाए. झूठे लिंचिंग क्रिएट किए जाते हैं, झूठे आर्टिकल लिखवाये जाते हैं, झूठे हैश टैग बनाए जाते हैं और झूठ की दुकान नहीं, बल्कि बड़ा सा शॉपिंग मॉल खोला जाता है. जहां उसे रंग रोगन से सजाकर, चमकीला बनाकर पूरी दुनिया के सामने पेश किया जाता है. और कहावत भी है कि यदि एक झूठ को सौ बार कहो तो लोगों को संदेह होने लगता है कि यह कहीं सच तो नहीं है? उसी अवधारणा को यह लोग फॉलो कर रहे हैं. इतनी बार बोलो कि यह सरकार मुस्लिम विरोधी है, इतनी बार बोलो कि हिंदू इस्लाम विरोधी हैं कि धीरे-धीरे यहां के लोग भी और पूरी दुनिया मानने लगे कि यही सच है.

अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को मेनुपुलेट किया जाता है, अंतरराष्ट्रीय मैगजीन और अखबारों को खरीद लिया जाता है और उनके माध्यम से कुछ विदेशी और कुछ हमारे अपने लोग भारत विरोधी एजेंडा चलाते हैं.

यह देश ‘सर्वधर्म समभाव का देश है’. यह देश ‘अल्लाह ईश्वर तेरो नाम’ का देश है. यह देश ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ का देश है. यह देश ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का देश है. इतिहास साक्षी है कि इस देश ने हर धर्म को अपनाया है, हर धर्म का सम्मान किया है और हर धर्म इस धरती पर आकर फला-फूला है. इस धरती के मूल निवासियों ने कभी किसी भी धर्म का विरोध नहीं किया, कभी किसी धर्म का अपमान नहीं किया.

अरे, इस देश का बहुसंख्यक तो ’15 करोड़, 100 करोड़ पर भारी पड़ेंगे’ और ’15 मिनट के लिए पुलिस हटा लो, फिर देखो हम कैसे तुम्हारा सफाया कर देते हैं’; जैसी बातें सुनकर भी चुप रहता है. हजार सालों तक क्रूरता की पराकाष्ठा को भी पार कर जाने वाले अत्याचारों को भुला कर उन्हें अपना भाई मान लेता है, अल्पसंख्यकों को राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश, गृहमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर बिठाता है; दुनिया में कोई और ऐसा उदाहरण है?

इस देश में एक नया फैशन बनता जा रहा है, पहले तो कुछ गलत करो और जब पकड़े जाओ तो विक्टिम कार्ड खेलना शुरू कर दो. दरअसल कभी ‘इस्लामोफोबिया’ तो कभी ‘चर्चों पर अटैक’ जैसे झूठे प्रचार इस देश को विभाजित करने के लिए, इस देश के मूल निवासियों के आत्म सम्मान और आत्म गौरव धूमिल करने के लिए किए जाते हैं. यह सब एक भयंकर अंतरराष्ट्रीय साजिश का नतीजा है, और ऐसी साजिशें आज से नहीं, हजारों सालों से होती आ रही हैं. यहां का वैभव, यहां का सांस्कृतिक गौरव, यहां के मानवों का महान उत्थान देखकर हजारों सालों से लोग इस धरती को, इसकी सभ्यता को मलीन करने पर लगे हुए हैं. किंतु इतिहास गवाह है कि हमने हर समस्या का सामना डट कर किया है. आज भी भारत दुनिया की सबसे प्राचीन संस्कृति है. इसके साथ और इसके बाद उत्पन्न होने वाली है सभ्यताएं मिट गई, किंतु भारत और इसकी संस्कृति आज भी फल-फूल रही है. ऐसे कितने ही झूठे फोबिया आए और गए, आगे भी आएंगे और जाएंगे, किंतु हम मजबूती से खड़े थे और खड़े रहेंगे. यह भारत के उत्थान का समय है और जैसे जैसे इसका उत्थान होगा, वैसे वैसे विरोधी भी बढ़ेंगे और उनके प्रयास भी, क्योंकि पत्थर तो फलदार वृक्ष को ही मारा जाता है ना, सूखे वृक्ष को नहीं. लेकिन क्या पत्थर खाकर वृक्ष फल देना बंद कर देता है? कभी नहीं! भारत को बुलंदियों तक पँहुचने से ना कोई रोक पाया था, और ना ही कोई रोक पाएगा.

और हां, एक अंतिम बात! भारत में ‘इस्लामोफोबिया’ नहीं, ‘देशद्रोहीफोबिया’ और ‘गद्दारोफोबिया’ अवश्य है, और होना भी चाहिए.

(लेखक भारत विकास परिषद मुंबई प्रांत के अंतर्गत समर्पण शाखा के सचिव हैं)

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