अनेकों बार कई कार्यकर्ताओं ने श्रीगुरुजी से वर्ण तथा जातिव्यवस्था के बारे में प्रश्न पूछे हैं. इन प्रश्नों के उत्तर में श्रीगुरुजी का वर्ण तथा जातिव्यवस्था के बारे में दृष्टिकोण बिल्कुल साफ हो जाता है. कुछ प्रश्न और श्रीगुरुजी द्वारा दिए गए उनके उत्तर इस प्रकार हैं –
प्रश्न – यह हिंदू राष्ट्र है. इस सिद्धांत पर जो आपत्ति करते हैं, वे समझते हैं कि पुराने जमाने में जाति और वर्ण – व्यवस्था थी उसी को लाकर, उसके आधार पर छुआछूत बढ़ाकर ब्राह्मणों का वर्चस्व प्रस्थापित किया जाएगा. ऐसे विकृत विचारों और विपरीत अर्थ का वे हम पर आरोप करते हैंऔर कहते हैं कि यह विचार देश के लिए संकटकारी और घातक है?
उत्तर – अपने यहां कहा गया है कि इस कलियुग में सब वर्ण समाप्त होकर एक ही वर्ण रहेगा. इसको मानो. वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था का नाम सुनते ही अपने मन में हिचकिचाहट उत्पन्न होकर हम अपोलोजेटिक हो जाते हैं. हम दृढ़तापूर्वक कहें कि एक समय ऐसी व्यवस्था थी. उसने समाज पर उस समय उपकार किया. आज उपकार नहीं दिखता, तो हम उसको तोड़कर नई व्यवस्था बनाएंगे.
जीवशास्त्र में विकास बिल्कुल सादी रचना से जटिलता की ओर होता है. जीव की सबसे प्राथमिक अवस्था में हाथ, पैर कुछ नहीं होते. मांस का लोथ रहता है. उसी से खाना, पीना, निकालना आदि सब काम वह करता है. जैसे-जैसे उसका विकास होता है, वैसे-वैसे ‘फंक्शनल ऑर्गन्स’ प्रकट होने लगते हैं. यह इव्होल्यूशनरी प्रोसेस सामाजिक जीवन में है. जिन में ऐसा नहीं है, वे प्रिमिटिव सोसायटीज हैं. केवल मारक अस्त्र बना लेना विकास नहीं. हम तो समाज को ही भगवान मानते हैं. दूसरा हम जानते नहीं. उसका कोई अंग अछूत नहीं, हेय नहीं. एक-एक अंग पवित्र है, यह हमारी धारणा है. इसमें तर तम भाव अंगों के बारे में उत्पन्न नहीं हो सकता. हम इस धारणा पर समाज बनाएंगे. भूतकाल के बारे में अपोलॉजेटिक होने की कोई बात नहीं. दूसरों से कहें कि तुम क्या हो? मानव सभ्यता की शताब्दियों लंबे कालखंड में तुम्हारा योगदान कितना रहा? आज भी तुम्हारे प्रयोगों में मानव – कल्याण की कोई गारंटी नहीं. तुम हमें क्या उपदेश देते हो? यह हमारा समाज है. अपना समाज हम एकरस बनाएंगे. उसका अनेक प्रकार का कर्तृत्व, उसकी बुद्धिमत्ता सामने लाएंगे, उसका विकास करेंगे.
प्रश्न – जाति के विषय में आपका निश्चित दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर – संघ किसी जाति को मान्यता नहीं देता. उसके समक्ष प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है. जाति अपने समय में एक महान संस्था थी, किंतु आज वह देश – कालबाह्य है. जो लचीला न हो वह शीघ्र ही प्रस्तरित (विपस) वस्तु बन जाता है. मैं चाहता हूँ कि अस्पृश्यता कानूनी रूप से ही नहीं प्रत्यक्ष रूप से भी समाप्त हो. इस दृष्टि से मेरी बहुत इच्छा है कि धार्मिक नेता अस्पृश्यता – निवारण को धार्मिक मान्यता प्रदान करें. मेरा यह भी मत है कि मनुष्य का सच्चा धर्म यही है कि उसका जो भी कर्तव्य हो, उसे बिना ऊँच – नीच का विचार किए, उसकी श्रेष्ठतम योग्यता के साथ वहन करें. सभी कार्य पूजास्वरूप हैं और उन्हें पूजा की भावना से ही करना चाहिए. मैं जाति को प्राचीन कवच के रूप में देखता हूं. अपने समय में उसने अपना कर्तव्य किया, किंतु आज वह असंगत है. अन्य क्षेत्रों की तुलना में पश्चिम पंजाब व पूर्व बंगाल में जाति – व्यवस्था दुर्बल थी. यही कारण है कि ये क्षेत्र इस्लाम के सामने परास्त हुए. यह स्वार्थी लोगों द्वारा थोपी गई अनिष्ट बात है कि जाति – व्यवस्था के कारण हम पराभूत हुए. ऐसी अज्ञानमूलक भर्त्सना के लिए मैं तैयार नहीं हूँ. अपने समय में वह एक महान संस्था थी तथा जिस समय चारों ओर अन्य सभी कुछ ढहता-सा दिखाई दे रहा था, उस समय वह समाज को संगठित रखने में लाभप्रद सिद्ध हुई.
प्रश्न – क्या हिंदू संस्कृति के संवर्धन में वर्णव्यवस्था की पुनः स्थापना निहित है?
उत्तर – नहीं. हम न जातिप्रथा के पक्ष में हैं और न ही उसके विरोधक हैं. उसके बारे में हम इतना ही जानते हैं कि संकट के कालखंड में वह बहुत उपयोगी सिद्ध हुई थी और यदि आज समाज उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करता, तो वह स्वयं समाप्त हो जाएगी. उसके लिए किसी को दुखी होने का कारण भी नहीं.
प्रश्न – क्या वर्णव्यवस्था हिंदू समाज के लिए अनिवार्य नहीं है?
उत्तर – वह समाज की अवस्था या उसका आधार नहीं है. वह केवल व्यवस्था या एक पद्धति है. वह उद्देश्य की पूर्ति में सहायक है अथवा नहीं, इस आधार पर उसे बनाए रख सकते हैं अथवा समाप्त कर सकते हैं.