नई दिल्ली. हिन्दी में ग्रामीण पृष्ठभूमि पर सामाजिक समस्याओं को जाग्रत करने वाले उपन्यास लिखने के लिए प्रेमचन्द को याद किया जाता है, तो जासूसी उपन्यास विधा को लोकप्रिय करने का श्रेय बाबू देवकीनन्दन खत्री को है. बीसवीं सदी के प्रारम्भ में एक समय ऐसा भी आया था, जब खत्री जी के उपन्यासों को पढ़ने के लिए ही लाखों लोगों ने हिन्दी सीखी थी. बाबू देवकीनन्दन खत्री जी का जन्म अपने ननिहाल पूसा (मुजफ्फरपुर, बिहार) में 18 जून, 1861 को हुआ था. इनके पिता ईश्वरदास जी तथा माता गोविन्दी थीं. इनके पूर्वज मूलतः लाहौर निवासी थे. महाराजा रणजीत सिंह के देहान्त के बाद उनके पुत्र शेरसिंह के राज्य में वहां अराजकता फैल गयी. अतः ये लोग काशी में बस गये. इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने ननिहाल में उर्दू-फारसी में ही हुई. काशी आकर उन्होंने हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी सीखी.
गया के टिकारी राज्य में इनकी पैतृक व्यापारिक कोठी थी. वहां रहकर उन्होंने अच्छा कारोबार किया. टिकारी का प्रबन्ध अंग्रेजों के हाथ में जाने के बाद ये स्थायी रूप से काशी आ गये. काशी नरेश ईश्वरी नारायण सिंह जी से बहुत निकट सम्बन्ध थे. चकिया तथा नौगढ़ के जंगलों के ठेके मिलने पर उन्होंने वहां प्राचीन किले, गुफाओं, झाड़ियों आदि का भ्रमण किया. भावुक प्रवृति के खत्री जी को इन निर्जन और बीहड़ जंगलों में व्याप्त रहस्यों ने ऐसी प्रेरणा दी कि वे ठेकेदारी छोड़कर साहित्य की साधना में लग गये.
उन दिनों सामान्य शिक्षित वर्ग उर्दू तथा फारसी की शिक्षा को ही महत्व देता था. चारों ओर उर्दू शायरी, कहानी, उपन्यास आदि का प्रचलन था, पर इसमें शराब तथा शबाब का प्रचुर वर्णन होता था. इसका नयी पीढ़ी पर बहुत खराब असर पड़ रहा था. ऐसे में वर्ष 1888 में प्रकाशित देवकीनन्दन खत्री जी के उपन्यासों ने साहित्य की दुनिया में प्रवेशकर धूम मचा दी. उन दिनों बंगला उपन्यासों के हिन्दी अनुवाद भी बहुत लोकप्रिय थे, पर हिन्दी में उपन्यास विधा का पहला मौलिक लेखक खत्री जी को ही माना जाता है.
उनके उपन्यासों के ‘गूढ़ पुरुष’ सदा अपने राजा के पक्ष की रक्षा तथा शत्रु-पक्ष को नष्ट करने की चालें चलते रहते हैं. इसकी प्रेरणा उन्हें संस्कृत के नीति साहित्य से मिली. उन्होंने चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता सन्तति के अतिरिक्त नरेन्द्र मोहिनी, वीरेन्द्र वीर, कुसुम कुमारी, कटोरा भर खून, लैला-मजनू, अनूठी बेगम, काजर की कोठरी, नौलखा हार, भूतनाथ, गुप्त गोदना नामक उपन्यास भी लिखे.
चन्द्रकान्ता सन्तति के 24 खण्ड प्रकाशित हुए. भूतनाथ के छह खण्ड उनके सामने तथा 15 उनके बाद प्रकाशित हुए. इनमें रहस्य, जासूसी और कूटनीति के साथ तत्कालीन राजपूती आदर्श और फिर पतनशील राजपूती जीवन का जीवन्त वर्णन है. आगे चलकर उन्होंने सुदर्शन, साहित्य सुधा तथा उपन्यास लहरी नामक साहित्यिक पत्र भी निकाले थे. गत वर्षों में दूरदर्शन ने अनेक साहित्यिक कृतियों को प्रसारित किया. इनमें चन्द्रकान्ता पर बना धारावाहिक बहुत लोकप्रिय हुआ. रामायण और महाभारत के बाद लोकप्रियता के क्रम में चन्द्रकान्ता का ही नाम लिया जाता है. अपनी यशस्वी लेखनी से हिन्दी में रहस्य को जीवित-जाग्रत कर हिन्दी को लोकप्रिय करने वाले अमर उपन्यासकार देवकीनन्दन खत्री जी का एक अगस्त, 1913 को देहावसान हो गया.