नई दिल्ली. आजकल सब तरफ क्रिकेट का ही जोर है. पर दो-तीन दशक पूर्व ऐसा नहीं था. तब हॉकी, फुटबाल, वॉलीबाल आदि अधिक खेले जाते थे. हॉकी में तो लम्बे समय तक भारत विश्व विजेता रहा. भारतीय हॉकी की शैली को विश्व भर में विख्यात करने में कुँवर दिग्विजय सिंह ‘बाबू’ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है.
‘बाबू’ का जन्म 02 फरवरी, 1922 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी नगर में हुआ था. उनके पिता रायबहादुर ठाकुर रघुनाथ सिंह प्रसिद्ध वकील, साहित्यकार एवं समाजसेवी थे. वे टेनिस और बैडमिंटन के अच्छे खिलाड़ी थे, लेकिन बाबू को हॉकी का शौक था. उन्होंने खेल जीवन का प्रारम्भ जिले के प्रसिद्ध महादेवा मेले से किया. वे प्रायः हाफ लाइन पर खेलते थे, उनके प्रशिक्षक चौधरी मुश्फिक साहब ने वर्ष 1938 में दिल्ली में हुई प्रतियोगिता में उन्हें अगली पंक्ति (फारवर्ड लाइन) में खेलने को कहा. इसमें बाबू ने विपक्षी दल के ओलम्पिक में खेल चुके प्रसिद्ध खिलाड़ी मुहम्मद हुसैन को चकमा देकर अनेक गोल किये. इससे उनकी प्रसिद्धि रातों रात बढ़ गयी.
बाबू के बड़े भाई भूपेन्द्र सिंह ‘रमेश’, नरेश ‘राजा’ और कुँवर सुखदेव सिंह ‘मोहन’ भी हॉकी के अच्छे खिलाड़ी थे, जो राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में खेलते थे. हॉकी जगत में ध्यानचन्द और रूपसिंह को लोग जानते हैं. इन दोनों भाइयों ने वैश्विक प्रतियोगिताओं में कई बार भारत का प्रतिनिधित्व किया है. द्वितीय विश्व युद्ध के कारण ओलम्पिक खेल स्थगित हो गये, अन्यथा बाबू और मोहन की जोड़ी भी इसी श्रेणी में थी. वर्ष 1947 में बाबू श्रीलंका, इंग्लैण्ड, पूर्वी अफ्रीका, केन्या, युगाण्डा, और टांगानिका गये. इस दौरे में मेजर ध्यानचन्द दल के कप्तान थे. दल ने कुल मिलाकर 200 गोल किये, जिसमें से सर्वाधिक 60 गोल बाबू ने ही किये थे. वर्ष 1948 में वे ओलम्पिक में जाने वाले भारतीय दल के लिए चुने गये. इसके कप्तान किशनलाल तथा बाबू उपकप्तान बनाये गये. दल ने स्वर्ण पदक जीता.
वर्ष 1949 में वे दल के कप्तान बने और अफगानिस्तान गये. वर्ष 1951 में वे अपने दल के साथ पुनः पूर्वी अफ्रीका आदि देशों के दौरे पर गये. इस बार भारतीय दल के 236 में से 99 गोल बाबू ने किये. वर्ष 1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले हॉकी दल के कप्तान बाबू ही थे. वर्ष 1953 में अमरीका की ‘हेल्मस फाउण्डेशन’ ने उन्हें एशिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के नाते ‘हेल्मस ट्राफी’ प्रदान की. इसके बाद वे सक्रिय खेल जीवन से हट गये, पर उन्होंने वर्ष 1960 के ओलम्पिक में जाने वाली टीम को लखनऊ में सघन प्रशिक्षण दिया और उनका चयन भी किया. राष्ट्रपति महोदय ने उनकी खेल सेवाओं को देखते हुए उन्हें ‘पद्मश्री’ से विभूषित किया. उन्हें उत्तर प्रदेश का पहला खेल निदेशक बनाया गया. वर्ष 1970 में वे हॉकी टीम के प्रशिक्षक बनकर हांगकांग भी गये.
वर्ष 1976 में शासन ने बाबू को रेल मन्त्रालय में खेल का अवैतनिक सलाहकार बनाया. उनका जीवन खेल के लिए समर्पित था. उत्तर प्रदेश के हर जिले में स्टेडियम, मण्डल मुख्यालयों पर खेल छात्रावास व विद्यालय उनके ही प्रयास से बने. उनके द्वारा प्रशिक्षित अनेक खिलाड़ियों ने आगे चलकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त की. बाबू खेल में राजनीति, क्षेत्रवाद व पक्षपात के अत्यन्त विरोधी थे. दुर्भाग्य से आज यही हो रहा है, इसी कारण भारतीय हॉकी तथा अन्य खेलों की दुर्दशा है.