नई दिल्ली. संघ के वरिष्ठ प्रचारक राधेश्याम जी का जन्म चार अगस्त, 1949 को उत्तर प्रदेश के हाथरस नगर में राजबहादुर जी एवं द्रौपदी देवी जी के घर में हुआ था. उनके घर में पहले हलवाई का कारोबार था, पर फिर उनके पिताजी ने डेरी के व्यवसाय को अपना लिया. इस कारण तीन भाई और एक बहन वाले परिवार के खानपान में सदा दूध, घी आदि की प्रचुरता रही. राधेश्याम जी वर्ष 1961 में हाथरस में स्वयंसेवक बने. अपने एक कक्षा मित्र सतीश के साथ दुर्ग सायं शाखा पर जाने लगे. धीरे-धीरे संघ के प्रति उनका अनुराग बढ़ता गया. वर्ष 1962, 64, 65 और 71 में उन्होंने क्रमशः प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा फिर तीनों संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया. कक्षा बारह तक की पढ़ाई उन्होंने हाथरस में ही पूर्ण की. इस दौरान सायं शाखा के मुख्य शिक्षक, मंडल कार्यवाह तथा फिर सायं कार्यवाह रहे.
इसके बाद तत्कालीन जिला प्रचारक ज्योति जी के आग्रह पर अलीगढ़ संघ कार्यालय पर रहकर उन्होंने बीए की डिग्री हासिल की. यहां वे खंड कार्यवाह और फिर सायं कार्यवाह रहे. वर्ष 1972 में बीए पूर्ण कर वे प्रचारक बने. दो वर्ष अलीगढ़ नगर में रहने के बाद बरेली नगर, जिला और फिर विभाग प्रचारक रहे. आपातकाल में वे बरेली में ही भूमिगत रहे. वर्ष 1982 से 84 तक वे अलीगढ़ विभाग प्रचारक, वर्ष 1984 में विद्यार्थी परिषद में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संगठन मंत्री और फिर वर्ष 1989 में पूरे उत्तर प्रदेश के संगठन मंत्री बनाये गये. इस दौरान अनेक नये कार्यालय तथा बड़ी संख्या में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने. जिन महाविद्यालयों में कभी परिषद ने छात्रसंघ चुनाव नहीं जीता था, वहां भी भगवा लहराने लगा.
पर, काम की अस्त-व्यस्तता में वे भीषण तनाव के शिकार हो गये. वर्ष 1995 में मथुरा में एक कार्यकर्ता के साथ स्कूटर पर जाते समय हुए भीषण मस्तिष्काघात से वे बेहोश हो गये. कई वर्ष तक उनका इलाज हुआ. दक्षिण की तैल चिकित्सा से काफी ठीक होकर दो वर्ष उन्होंने जबलपुर में वनवासी क्षेत्र में कार्य किया. फिर बृज प्रांत में सायं शाखाओं का काम संभाला.
राधेश्याम जी बहुत साहसी तथा उच्च मनोबल के धनी हैं. वे स्वयं पर ईश्वर की बड़ी कृपा मानते हैं. मस्तिष्काघात के बाद उनके शरीर का एक भाग निष्क्रिय हो गया. मुंह से आवाज निकलनी भी बंद हो गयी. ऐसे में उन्होंने करुण हृदय होकर भगवान से कहा कि या तो वाणी दे दो या फिर प्राण ले लो. भगवान ने उन्हें निराश नहीं किया. एक दिन प्रातः छह बजे उन्हें लगा कि आकाश से कोई ज्योति उनकी तरफ आ रही है. उन्होंने अपना मुंह खोल दिया. वह ज्योति उनके मुंह में प्रविष्ट हो गयी. उनके मुंह से रामनाम निकला और वाणी खुल गयी. तब से वे प्रतिदिन एक घंटा पूजा और राम रक्षास्तोत्र का पाठ करते हैं.
वर्ष 1971 में अलीगढ़ में हुए दंगे में वे हिन्दुओं की रक्षा में लगे थे. उनके हाथ में गोली लगी, जबकि उनका साथी गुलशन मारा गया. वर्ष 1987 में आगरा में विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए दो माह पूर्व तक उनकी जेब खाली थी. इस पर परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री मदनदास जी स्वयं धनसंग्रह के लिए तत्पर हुए, पर राधेश्याम जी ने उन्हें मना कर दिया. अगले ही दिन प्रभु कृपा से दो ऐसे कार्यकर्ता काम में जुड़े कि हर व्यवस्था होती चली गयी. स्व. माधवराव देवड़े, रतन भट्टाचार्य तथा ज्योति जी के प्रति राधेश्याम जी के मन में बहुत आदर है. यद्यपि अब वे काफी ठीक हैं, पर उस भीषण रोग का दुष्प्रभाव उनकी वाणी, चाल और स्मृति पर शेष है. ईश्वर उन्हें शीघ्र पूर्ण स्वस्थ करे, जिससे वे स्वयंस्वीकृत राष्ट्रकार्य को पूरी शक्ति से कर सकें.