नई दिल्ली. इन दिनों कविता के नाम पर प्रायः चुटकुले और फूहड़ता को ही मंचों पर अधिक स्थान मिल रहा है. यद्यपि श्रेष्ठ काव्य के श्रोताओं की कमी नहीं है, पर फिल्मों और दूरदर्शन के स्तरहीन कार्यक्रमों ने काव्य जैसी दैवी विधा को भी बाजार की वस्तु बना दिया है. वरिष्ठ कवि डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ अपने ओजस्वी स्वर से आजीवन इस प्रवृत्ति के विरुद्ध गरजते रहे.
पांच अगस्त, 1916 को ग्राम झगरपुर (जिला उन्नाव, उ.प्र.) में जन्मे मेधावी छात्र शिवमंगल सिंह ने प्रारम्भिक शिक्षा अपने जन्मक्षेत्र में ही पाकर वर्ष 1937 में ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बीए किया. इसके बाद वर्ष 1940 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एमए तथा 1950 में डीलिट की उपाधियां प्राप्त कर उन्होंने अध्यापन को अपनी आजीविका बनाया. वे अच्छे सुघढ़ शरीर के साथ ही तेजस्वी स्वर के भी स्वामी थे. फिर भी उन्होंने अपना उपनाम ‘सुमन’ रखा, जो सुंदरता और कोमलता का प्रतीक है.
जिन दिनों वे ग्वालियर में अध्यापक थे, उन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी जी भी वहां पढ़ते थे, जो आगे चलकर देश के प्रधानमंत्री बने. अटल जी स्वयं भी बहुत अच्छे कवि हैं. उन्होंने अपनी कविताओं पर सुमन जी के प्रभाव को कई बार स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है. ग्वालियर के बाद इंदौर और उज्जैन में अध्यापन करते हुए वे विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति बने.
स्वाधीनता के संघर्ष में सहभागी बनने के कारण उनके विरुद्ध वारंट भी जारी हुआ. एक बार आंखों पर पट्टी बांधकर उन्हें किसी अज्ञात स्थान पर ले जाया गया. जब पट्टी खोली गयी, तो सामने क्रांतिवीर चंद्रशेखर आजाद खड़े थे. आजाद ने उन्हें एक रिवाल्वर देकर पूछा कि क्या इसे दिल्ली ले जा सकते हो ? सुमन जी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर रिवाल्वर दिल्ली पहुंचा दी.
सुमन जी का अध्ययन गहन और बहुआयामी था. इसलिए उनके भाषण में तथ्य और तर्क के साथ ही इतिहास और परम्परा का समुचित समन्वय होता था. उन्होंने गद्य और नाटक के क्षेत्र में भी काम किया, पर मूलतः वे कवि थे. जब वे अपने ओजस्वी स्वर से काव्यपाठ करते थे, तो मंच का वातावरण बदल जाता था. वे नये रचनाकारों तथा अपने सहयोगियों की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे. इस प्रकार उन्होंने कई नये लेखक व कवि तैयार किये.
जिन दिनों सुमन जी युवा थे, उन दिनों वामपंथ की तूती बोल रही थी. अतः वे भी प्रगतिशीलता की इस तथाकथित दौड़ में शामिल हो गये, पर उन्होंने अंतरराष्ट्रीयता के आडम्बर और वाद की गठरी को अपने सिर पर बोझ नहीं बनने दिया. इसलिए उनकी रचनाओं में भारत और भारतीयता के प्रति गौरव की भावना के साथ ही निर्धन और निर्बल वर्ग की पीड़ा सदा मुखर होती थी.
वराष 1956 से 1961 तक नेपाल के भारतीय दूतावास में संस्कृति सचिव रहते हुए उन्होंने नेपाल तथा विश्व के अन्य देशों में भारतीय साहित्य के प्रचार व प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें साहित्य अकादमी, पद्मश्री, पद्मभूषण, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार आदि अनेक प्रतिष्ठित सम्मान मिले. वर्ष 1981 से 1983 तक वे ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान’ के उपाध्यक्ष भी रहे.
हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय-सृजन, विश्वास बढ़ता ही गया, पर आंखें नहीं भरीं, विंध्य-हिमालय, मिट्टी की बारात, वाणी की व्यथा, कटे अंगूठों की वंदनवारें उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं. गद्य में महादेवी की काव्य साधना, गीति काव्य: उद्यम और विकास उल्लेखनीय हैं. प्रकृति पुरुष कालिदास उनका प्रसिद्ध नाटक है. उनकी हर रचना में अनूठी मौलिकता के दर्शन होते हैं.
27 नवम्बर, 2002 को 86 वर्ष की आयु में हिन्दी मंचों के वरिष्ठ कवि तथा समालोचक शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का उज्जैन में ही निधन हुआ.