नई दिल्ली. अल्लूरि सीताराम राजू आन्ध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले के मोगल्लु ग्राम में 4 जुलाई, 1897 को जन्मे थे. उनकी प्रारम्भिक शिक्षा राजमुन्दरी व राजचन्द्रपुरम में हुई. छात्र जीवन में ही उनका सम्पर्क निकट के वनवासियों से होने लगा था. उनका मन पढ़ाई में विशेष नहीं लगता था. कुछ समय के लिए उनका मन अध्यात्म की ओर झुका. उन्होंने आयुर्वेद और ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन किया, पर उनका मन वहां भी नहीं लगा. अतः निर्धन वनवासियों की सेवा के लिए उन्होंने संन्यास ले लिया और भारत भ्रमण पर निकल पड़े.
भारत भ्रमण के दौरान उन्हें गुलामी की पीड़ा का अनुभव हुआ. अब उन्होंने निर्धन सेवा के साथ स्वतन्त्रता प्राप्ति को भी अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. कृष्णा देवी पेठ के नीलकंठेश्वर मंदिर में उन्होंने अपना डेरा बनाकर साधना प्रारम्भ कर दी. जातिगत भेदों से ऊपर उठकर थोड़े ही समय में उन्होंने आसपास की कोया व चेन्चु जनजातियों में अच्छा सम्पर्क बना लिया. अल्लूरि राजू ने उनके बीच संगठन खड़ा किया तथा नरबलि, शराब, अन्धविश्वास आदि कुरीतियों को दूर करने में सफल हुए.
प्रारम्भिक सफलता के बाद राजू ने उनके मन में गुलामी के विरुद्ध संघर्ष का बीजारोपण किया. लोग अंग्रेजों के अत्याचार से दुःखी तो थे ही, अतः सबने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध शंखनाद कर दिया. वनवासी युवक तीर कमान, भाले, फरसे जैसे अपने परम्परागत शस्त्रों को लेकर अंग्रेज सेना का मुकाबला करने लगे. अगस्त, 1922 में राजू एवं उनके वनवासी क्रान्तिवीरों ने चितापल्ली थाने पर हमलाकर उसे लूट लिया. भारी मात्रा में आधुनिक शस्त्र उनके हाथ लगे. अनेक पुलिस अधिकारी भी हताहत हुए.
अब तो राजू की हिम्मत बढ़ गयी. उन्होंने दिनदहाड़े थानों पर हमले प्रारम्भ कर दिये. वे अपने साथियों को छुड़ाकर शस्त्र लूट लेते थे. यद्यपि यह लड़ाई दीपक और तूफान जैसी थी, फिर भी कई अंग्रेज अधिकारी तथा सैनिक इसमें मारे गये. आन्ध्र के कई क्षेत्रों से अंग्रेज शासन समाप्त होकर राजू का अधिकार हो गया. उन्होंने ग्राम पंचायतों का गठन किया, इससे स्थानीय मुकद्दमे शासन के पास जाने बन्द हो गये. लोगों ने शासन को कर देना भी बन्द कर दिया. अनेक उत्साही युवकों ने तो सेना के शस्त्रागारों को ही लूट लिया.
अंग्रेज अधिकारियों को लगा कि यदि राजू की गतिविधियों पर नियन्त्रण नहीं किया गया, तो बाजी हाथ से बिल्कुल ही निकल जाएगी. उन्होंने राजू का मुकाबला करने के लिए गोदावरी जिले में असम से सेना बुला ली. राजू के साथियों के पास तो परम्परागत शस्त्र थे, जिनसे आमने-सामने का मुकाबला हो सकता था, पर अंग्रेजों के पास आधुनिक हथियार थे. फिर भी राजू ने मुकाबला जारी रखा. पेड्डावलसा के संघर्ष में उनकी भारी क्षति हुई, पर राजू बच निकले. अंग्रेज फिर हाथ मलते रह गये.
जब बहुत समय तक राजू हाथ नहीं आये, तो अंग्रेज उनके समर्थकों और निरपराध ग्रामीणों पर अत्याचार करने लगे. यह देखकर राजू से न रहा गया और उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया. अंग्रेज तो यही चाहते थे. उन्होंने आठ मई, 1924 को राजू को पेड़ से बाँधकर गोली मार दी. इस प्रकार एक क्रान्तिकारी, संन्यासी, प्रभुभक्त और समाज-सुधारक का अन्त हुआ.