माता-पिता प्रायः अपने बच्चों के काम, मकान, दुकान, विवाह आदि की चिन्ता करते ही हैं; पर 1 सितम्बर, 1915 को गोंदिया (महाराष्ट्र) में जन्मे केशव नरहरि गोरे ने प्रचारक बनने से पूर्व पिताजी के लिये मकान बनवाकर एक बहिन का विवाह भी किया.
ये लोग मूलतः वाई (महाराष्ट्र) के निवासी थे. केशवराव के पिता श्री नरहरि वामन गोरे तथा माता श्रीमती यशोदा गोरे थीं. रेलवे में तारबाबू होने के कारण श्री नरहरि का स्थानान्तरण होता रहता था. अतः केशवराव की प्रारम्भिक शिक्षा गोंदिया तथा उच्च शिक्षा मिदनापुर (बंगाल) में हुई. मेधावी छात्र होने के कारण उन्होंने मराठी के साथ ही हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, उड़िया और संस्कृत बोलना सीख लिया था. वे नाटकों में अभिनय भी करते थे.
बचपन में वे बहुत क्रोधी थे. एक बार माताजी ने इन्हें किसी बात पर बहुत पीटा और कमरे में बंद कर दिया. उनके लौटने तक केशव ने आल्मारी में रखे सब कीमती वस्त्र फाड़ डाले. एक बार बड़े भाई इनके कपड़े पहन कर विद्यालय चले गये; पर केशव ने बीच रास्ते से उन्हें लौटाकर कपड़े उतरवा लिये. वे अपने को बड़ा अफसर समझते थे. विद्यालय से आने पर उनके जूते उनकी बहनें उतारतीं थीं. वे अत्यधिक सफाई और व्यवस्था प्रिय भी थे.
1938 में उनके पिताजी का स्थानान्तरण बिलासपुर (म.प्र) में हुआ, तो केशवराव ने वहां किराने की दुकान खोल ली. साथ में, जीवन बीमा का कार्य भी किया. कुछ समय में काम जम गया. फिर उन्होंने अपनी छोटी बहिन के लिये वर खोजकर धूमधाम से उसका विवाह किया.
1939-40 में पूज्य श्रीगुरुजी प्रवास के समय इनके घर आये. उन्होंने श्री नरहरि से कहा कि वे अपने चार में से एक बेटे को प्रचारक बनने दें; पर वे तैयार नहीं हुये. लेकिन केशवराव के बड़े भाई श्री यशवंत गोरे के मन को बात लग गयी. एक पैर खराब होने पर भी वे संघ में सक्रिय थे. वे भी रेलवे में कर्मचारी थे. उन्होंने केशव को कहा कि घर की जिम्मेदारी मैं लेता हूं; पर तुम प्रचारक बनो. उनकी प्रेरणा और आज्ञा से अंततः केशवराव प्रचारक बनने को तैयार हो गये.
पर श्री नरहरि के पास कोई निजी मकान नहीं था. उन दिनों पेंशन भी नहीं होती थी. अतः केशवराव ने बिलासपुर में एक भूखंड लेकर उस पर मकान बनवाया. दुकान एक मित्र मधु देशपांडे का सौंप दी और 1942 में प्रचारक बन गये. प्रारम्भ में उन्हें दुर्ग भेजा गया. इसके बाद उन्होंने मुख्यतः मध्यभारत, महाकौशल, छत्तीसगढ़ में विभिन्न दायित्वों पर कार्य किया. बिलासपुर प्रवास के समय वे सदा संघ कार्यालय या किसी कार्यकर्ता के घर पर ही रहते थे. अपने परिजनों से मिलने के लिये वे कुछ देर को ही घर आते थे.
केशवराव की रुचि निर्माण कार्यों में बहुत थी. वे जन्मजात वास्तुकार थे. महाकौशल प्रांत प्रचारक रहते हुए उन्होंने जबलपुर में प्रांतीय कार्यालय ‘केशव कुंज’ का निर्माण कराया. इंदौर कार्यालय के निर्माण में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही. आयु बढ़ने से वे अनेक रोगों के घिरते चले गये. अतः उनका केन्द्र नागपुर बनाकर उन्हें केन्द्रीय कार्यालय एवं व्यवस्था प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी.
धीरे-धीरे उनका शरीर शिथिल होता गया. अक्तूबर, 2001 में स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर उनके भतीजे वामन गोरे उन्हें अपने घर भिलाई ले आये. कुछ सुधार न होने पर उन्हें बिलासपुर और फिर रायपुर के अस्पताल में भर्ती कराया गया; पर हालत बिगड़ती गयी और अंततः वहीं 28 अक्तूबर को उनका शरीरांत हुआ. अगले दिन बिलासपुर में ही उनका दाह संस्कार किया गया. उनकी शव यात्रा उसी मकान से निकली, जिसे उन्होंने अपने परिजनों के लिये स्वयं खड़े होकर बनवाया था.
(संदर्भ : नागपुर वाली बहिन श्रीमती चितले एवं भतीजे के पत्र)