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11 दिसम्बर/जन्म-दिवस; कर्मठ कार्यकर्ता बालासाहब देवरस

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Bala saheb Deorasराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यपद्धति के निर्माण एवं विकास में जिनकी प्रमुख भूमिका रही है, उन श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस का जन्म 11 दिसम्बर, 1915 को नागपुर में हुआ था. वे बालासाहब के नाम से अधिक परिचित हैं. वे ही आगे चलकर संघ के तृतीय सरसंघचालक बने.

बालासाहब ने 1927 में शाखा जाना शुरू किया. धीरे-धीरे उनका सम्पर्क डा0 हेडगेवार से बढ़ता गया. उन्हें मोहिते के बाड़े में लगने वाली सायं शाखा के ‘कुश पथक’ में शामिल किया गया. इसमें विशेष प्रतिभावान छात्रों को ही रखा जाता था. बालासाहब खेल में बहुत निपुण थे. कबड्डी में उन्हें विशेष मजा आता था; पर वे सदा प्रथम श्रेणी पाकर उत्तीर्ण भी होते थे.

बालासाहब देवरस बचपन से ही खुले विचारों के थे. वे कुरीतियों तथा कालबाह्य हो चुकी परम्पराओं के घोर विरोधी थे. उनके घर पर उनके सभी जातियों के मित्र आते थे. वे सब एक साथ खाते-पीते थे. प्रारम्भ में उनकी माताजी ने इस पर आपत्ति की; पर बालासाहब के आग्रह पर वे मान गयीं.

कानून की पढ़ाई पूरी कर उन्होंने नागपुर के ‘अनाथ विद्यार्थी वसतिगृह’ में दो वर्ष अध्यापन किया. इन दिनों वे नागपुर के नगर कार्यवाह रहे. 1939 में वे प्रचारक बने, तो उन्हें कोलकाता भेजा गया; पर 1940 में डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद उन्हें वापस नागपुर बुला लिया गया. 1948 में जब गांधी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया, तो उसके विरुद्ध सत्याग्रह के संचालन तथा फिर समाज के अनेक प्रतिष्ठित लोगों से सम्पर्क कर उनके माध्यम से प्रतिबन्ध निरस्त कराने में बालासाहब की प्रमुख भूमिका रही.

1940 के बाद लगभग 30-32 साल तक उनकी गतिविधियों का केन्द्र मुख्यतः नागपुर ही रहा. इस दौरान उन्होंने नागपुर के काम को आदर्श रूप में खड़ा किया. देश भर के संघ शिक्षा वर्गों में नागपुर से शिक्षक जाते थे. नागपुर से निकले प्रचारकों ने देश के हर प्रान्त में जाकर संघ कार्य खड़ा किया.

1965 में वे सरकार्यवाह बने. शाखा पर होने वाले गणगीत, प्रश्नोत्तर आदि उन्होंने ही शुरू कराये. संघ के कार्यक्रमों में डा0 हेडगेवार तथा श्री गुरुजी के चित्र लगते हैं. बालासाहब के सरसंघचालक बनने पर कुछ लोग उनका चित्र भी लगाने लगे; पर उन्होंने इसे रोक दिया. यह उनकी प्रसिद्धि से दूर रहने की वृत्ति का ज्वलन्त उदाहरण है.

1973 में श्री गुरुजी के देहान्त के बाद वे सरसंघचालक बने. 1975 में संघ पर लगे प्रतिबन्ध का सामना उन्होंने धैर्य से किया. वे आपातकाल के पूरे समय पुणे की जेल में रहे; पर सत्याग्रह और फिर चुनाव के माध्यम से देश को इन्दिरा गांधी की तानाशाही से मुक्त कराने की इस चुनौती में संघ सफल हुआ. मधुमेह रोग के बावजूद 1994 तक उन्होंने यह दायित्व निभाया.

इस दौरान उन्होंने संघ कार्य में अनेक नये आयाम जोड़े. इनमें सबसे महत्वपूर्ण निर्धन बस्तियों में चलने वाले सेवा के कार्य हैं. इससे वहाँ चल रही धर्मान्तरण की प्रक्रिया पर रोक लगी. स्वयंसेवकों द्वारा प्रान्तीय स्तर पर अनेक संगठनों की स्थापना की गयी थी. बालासाहब ने वरिष्ठ प्रचारक देकर उन सबको अखिल भारतीय रूप दे दिया. मीनाक्षीपुरम् कांड के बाद एकात्मता यात्रा तथा फिर श्रीराम मंदिर आंदोलन के दौरान हिन्दू शक्ति का जो भव्य रूप प्रकट हुआ, उसमें इन सब संगठनों के काम और प्रभाव की व्यापक भूमिका है.

जब उनका शरीर प्रवास योग्य नहीं रहा, तो उन्होंने प्रमुख कार्यकर्ताओं से परामर्श कर यह दायित्व मा0 रज्जू भैया को सौंप दिया. 17 जून, 1996 को उन्होंने अन्तिम श्वास ली. उनकी इच्छानुसार उनका दाहसंस्कार रेशमबाग की बजाय नागपुर में सामान्य नागरिकों के श्मशान घाट में किया गया.

 

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