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12 फरवरी-स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती- भारत देश ही वह पारस पत्थर है

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MAHARISHI-DAYANAND-SARASWATIकलकत्ता में लार्ड नार्थ ब्रुक और स्वामी दयानंद सरस्वती की भेंट हुई. लार्ड ब्रुक ने स्वामी जी से आग्रह किया कि वे अपने प्रवचनों से श्रोताओं के अंदर ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति निष्ठा जगाने में सहयोग करें. उत्तर मिला- ”लेकिन मैं तो हमेशा भारत की स्वतंत्रता और अंग्रेजी राज की समाप्ति की चर्चा किया करता हूं.” मुलाकात वहीं समाप्त हो गई. उसी दिन से अंग्रजों के गुप्तचर स्वामी जी का पीछा करने लगे.

उक्त घटना से कई दशक पहले, 19 वीं सदी का पूर्वार्ध चल रहा था. काठियावाड़ क्षेत्र के एक राजस्व अधिकारी कर्षनजी लालजी तिवारी के निवास पर शिवरात्रि का उत्सव चल रहा था. उनका बालक मूलशंकर भी उत्साह के साथ रात्रि जागरण कर रहा था. पूजन निर्विघ्न चल रहा था. अचानक मूलशंकर की नजर एक चूहे पर पड़ी, जो महादेव को अर्पित किये गये नैवेद्य को कुतर रहा था. बाल मन को आघात पहुंचा कि संसार का पालनकर्ता अपनी रक्षा करने में समर्थ नहीं है? चिरविद्रोही मन सुलग उठा. हिंदू जीवन दर्शन में प्रचलित उपासना पद्धतियां मानव मनों पर ही आधारित हैं. उपासना के विभिन्न मार्ग दरअसल साधकों के विभिन्न प्रकार ही हैं. रामकृष्ण परमहंस या मीरा ने इसी घटना को भिन्न ढंग से देखा होता, और बिल्कुल अलग निष्कर्ष पर पहुंचे होते. छोटे से मूलशंकर के तर्कपूर्ण मस्तिष्क में नवरोपित विग्रह उपासना खंडित हो गई. समय के साथ संस्कृत और वेदों की शिक्षा प्रारंभ हुई. बालक मेधावी था. माता पिता को लगा कि युवा होकर वह एक नामी पुरोहित बनेगा, लेकिन जब प्यारी छोटी बहन और स्नेही काका हैजा से ग्रस्त हो चल बसे, तो मूलशंकर के हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो गया और इसीलिये जब उसके वैरागी स्वभाव से आशंकित मां बाप ने वधु की खोज प्रारंभ की तो मूलशंकर ने चुपचाप घर त्याग दिया. उस दिन प्रारंभ हुआ परिव्राजक जीवन कभी समाप्त नहीं हुआ. मूलशंकर ने संन्यास ग्रहण किया. नया नाम मिला दयानंद सरस्वती. वर्षों भ्रमण करते रहे. देशवासियों की निर्धनता से हृदय दग्ध हो उठा तो सामाजिक कुरीतियों ने मन में प्रश्नों का तूफान खड़ा कर दिया. अंतत: मथुरा के नेत्रहीन संत स्वामी विरजानंद के पास जाकर दयानंद को दृष्टि मिली. वे उनके शिष्य बन गये.

जब दयानंद पहली बार स्वामी विरजानंद के द्वार पर पहुंचे थे, तब उनकी उम्र 36 वर्ष थी. गुरु ने दयानंद को पहला आदेश दिया कि वे अपने पूर्व अर्जित ज्ञान और पाण्डित्य को यमुना में विसर्जित कर दें. इस प्रकार छोटी आयु में बालक जैसा निष्कलंक हृदय लेकर दयानंद की साधना प्रारंभ हुई. गोला-फेंक खिलाड़ी देह की विशिष्ट मांसपेशियों पर अधिक कार्य करता है. जिमनास्ट और भारोत्तोलक अपने शरीरों को अलग-अलग ढंग से विकसित करते है. मैराथन धावक और सूमो पहलवान के भोजन के सिद्घांत पूर्णत: अलग हैं. भोजन की मात्रा में भी जमीन-आसमान का अंतर है. ऐसे ही अंतत: एक ही सर्वोच्च चेतना की ओर जाने वाले विभिन्न साधकों के मार्ग और साधन भी अलग-अलग हैं. कई बार तो इतने अलग कि बाह्म स्वरूप में एक दूसरे के विरोधी जान पड़ते हैं. हिंदू जीवन दर्शन ने इन विभिन्न मार्गों में समन्वय स्थापित किया है, लेकिन उन्हें आपस में मिलाया नहीं है, बल्कि उनकी विशिष्टताओं को बनाये रखा. दयानंद ने निराकार साधना का मार्ग अपनाया, वेदों को अपना वैचारिक आधार बनाया और मूर्तिपूजा तथा प्रचलित कर्म-कांडों का त्याग कर दिया, वैसे ही जैसे संन्यास लेने के बाद संन्यासी शिखा और सूत्र का त्याग कर देता है. लेकिन साधना के इस कठोर मार्ग पर चलते हुये भी स्वामी दयानंद के हृदय में संसार के हर मनुष्य के लिये स्थान था. गुरुदक्षिणा देने का अवसर आया तो गुरु को देने के लिये दयानंद के पास मुट्ठी भर लौंग थीं. वही अर्पित कीं. गुरु ने कहा कि वेदों को समाज के हर व्यक्ति तक ले जाओ, यही मेरी गुरुदक्षिणा है. शिष्य ने इस गुरुदक्षिणा को अपने जीवन का ध्येय बना लिया.

परिव्राजक के रूप में भटकते हुये स्वामी जी ने देखा था कि किस प्रकार दरिद्र भारतवासी अपने मृत परिजनों की देह पर कफन का वस्त्र तक छोड़ने में असमर्थ हो रहे थे. जिन वेदों की रचना में स्त्रियों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था उन्हीं वेदों की शिक्षा से स्त्रियों को वंचित किया जा रहा था. वैदिक शिक्षा और वैदिक संस्कारों को जाति की दीवारें घेरे हुईं थीं. कर्मकांड ‘नाक से भारी नथ’ साबित हो रहे थे. इसका लाभ उठाकर बड़े पैमाने पर हिन्दुओं का इस्लाम और ईसाईयत में कन्वर्जन किया जा रहा था. उन्होंने पहले अपना घर ठीक करने का निश्चय किया. आग जैसी आंच लिये उनके वचन भ्रमों और कुरीतियों पर कठोर प्रहार करने लगे. जिनके स्वार्थ प्रभावित हो रहे थे, उन्होंने स्वामी जी पर सब प्रकार के आक्रमण प्रारंभ किये. कार्य दिन दूना-रात चौगुना बढ़ता गया. उनके प्रखर प्रहारों के बारे में दिनकर ने लिखा है कि ”सामाजिक विडंबनाओं की एक-एक पपड़ी (परत) को तोड़ने के स्थान पर स्वामी जी ने एक ही धक्के में कठोर आघात किया. दयानंद के अन्य समकालीन सुधारक केवल सुधारक मात्र थे, लेकिन दयानंद क्रांति के वेग से आये.” उन्होंने समाज जिन्हें अस्पृश्य मानता था, उनके सहित सभी स्त्री पुरुषों को सूत्र पहनाना प्रारंभ किया एवं वेदों के द्वार सबके लिये खोल दिये. कल्पना कीजिये कि आज से 150 वर्ष पहले स्त्री शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, विभिन्न जातियों का सहभोज जैसे कार्यों को करने तथा समाज में प्रतिष्ठित करने जैसे कितने नैतिक साहस और सामर्थ्य की आवश्यकता पड़ी होगी! धीरे-धीरे समाज ने उनकी शिक्षाओं को स्वीकार करना शुरू किया.

भारत की सांस्कृतिक चेतना को जागृत करने के लिये 19 वीं शताब्दी में तीन कदम बढ़ाये गये. पहला था ब्रह्म समाज, जिनका प्रयास था कि बदलते समय के अनुसार अपने समाज के दोषों का परिष्कार करके समाज की रक्षा की जा सकती है. दूसरा कदम स्वामी दयानंद सरस्वती ने उठाया, जिन्होंने समाज के दोषों का निराकरण करने के साथ हिंदू संस्कृति पर हमला करने वालों पर अत्यंत शक्तिशाली जवाबी आक्रमण किया. तीसरा कदम रखा स्वामी विवेकानंद ने जिन्होंने सार्वभौमिक हिंदू दर्शन को स्वर देकर जन-जन तक पहुंचाया एवं हिंदुत्व के अमृत से पाश्चात्य धरती को भी सींचा. 7 अप्रैल, 1875 को स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की. आर्य समाज ने पीडि़त मानवता की सेवा, सामाजिक सुधार के साथ घरवापसी या शुद्घि आंदोलन प्रारंभ किया.

ईसाई मिशनरियों एवं मौलवियों को पहली बार लगा कि उनके विश्वासों की भी बिना संकोच आलोचना हो सकती है. शुद्धि आंदोलन ने उन लाखों हिंदुओं के लिये अपने पूर्वजों के घर में वापस लौटने का रास्ता खोला, जिन्हें छल अथवा बल से मुस्लिम अथवा ईसाई बना दिया गया था. रूढि़यों की सांकलें टूटीं और समाज के दरवाजे खुले तो शुद्घि आंदोलन जनज्वार बन गया. दिनकर ने लिखा है कि ‘यह केवल सुधार की वाणी नहीं थी, यह तो जागृत हिंदुत्व का समरनाद था.’ दि थियोसोफिस्ट ने उनके बारे में लिखा था कि उन्होंने जर्जर हिंदुत्व के गतिहीन जनसमूह पर भारी बम प्रहार किया और लोगों के हृदयों में आग लगा दी. मैक्समूलर ने उन्हें हिंदू धर्म का महान सुधारक बताया तो रोम्यां रोला ने उन्हें ऋषि की उपाधि देते हुये उच्चतम व्यक्तित्व का पुरुष बताया. रोम्यां रोला ने आगे कहा कि दयानंद इलियट अथवा गीता के वक्ता के समान थे, जिन्होंने हरक्युलिस की शक्ति के साथ कुरीतियों पर प्रबल प्रहार किया. शंकराचार्य के बाद इतनी महानबुद्घि का संत दूसरा नहीं जन्मा.

कम ही लोग जानते हैं, दासता के उन दुर्दिनों में स्वामी दयानंद स्वराज के प्रथम उद्घोषक थे. इन्द्रविद्या वाचस्पति के अनुसार ‘सन् 1857 की क्रांति के पश्चात् उन महापुरुषों की सूची में, जिन्हें हम उस क्रांति के मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्तराधिकारी कह सकते हैं, पहला नाम स्वामी दयानंद सरस्वती का है. राजनीति में स्वामी दयानंद को नवीन राष्ट्रीयता का अग्रदूत कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी.

ऐनी बेसन्ट ने कहा है कि दयानंद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने लिखा कि भारत भारतीयों के लिये है. 1855 में हरिद्वार में विशाल कुंभ लगा था. देश में अंग्रेजों के विरुद्ध असंतोष व्याप्त था. नाना साहब पेशवा, अजीमुल्ला खां, तांत्या टोपे, कुंवर सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई आदि कुंभ स्नान करने हरिद्वार पहुंचे. वहां हुई एक गुप्त बैठक में स्वामीजी ने इन सभी को क्रांति के लिये प्रेरित किया. मूलत: वे गुजराती थे, लेकिन सबसे पहले उन्होंने हिन्दी को भारत की संपर्क भाषा बनाने पर जोर दिया. संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, अंग्रेजी नहीं जानते थे. केशवचंद्र सेन ने उनसे कहा कि महाराज आपसे बड़ी भूल हुई जो अंग्रेजी नहीं पढ़ी. यदि आप अंग्रेजी जानते तो वेदों का संदेश अमरीका, इंग्लैंड और जर्मनी में जाकर देते. स्वामी जी ने हंसकर उत्तर दिया. बोले, केशव बाबू एक भूल आप से भी हुई, आपने संस्कृत नहीं पढ़ी. यदि आप संस्कृत जानते तो पहले हम दोनों मिलकर अपने घर का सुधार करते, फिर समय मिलता तो बाहर भी जाते.

आज बोलचाल की भाषा में जिसे ‘रफ-टफ’ कहा जाता है, स्वामी दयानंद सरस्वती को उसका आदर्श सितारा कहा जा सकता है. 24 में से 18 घण्टे काम करने वाले स्वामी जी की दिनचर्या तड़के 3 बजे शुरू हो जाती थी. दिनभर कठोर श्रम करते थे, कौपीन मात्र पहने रहते थे और उत्तर भारत के जाड़े में बिना किसी छत के, किसी नदी किनारे, किसी पेड़ के नीचे सिर के नीचे ईंट रखकर सो लेते थे. एक बार जालंधर के सरदार विक्रम सिंह ने उनसे कोई चमत्कार दिखाने को कहा. स्वामी जी ने चमत्कारों की व्यर्थता समझाते हुये बात को टाल दिया, लेकिन फिर अभिभावक सा वात्सल्य दिखाते हुये उनकी इच्छा को पूरा भी किया. हुआ यूं कि जब स्वामी जी से विदा लेकर विक्रम सिंह अपने तांगे पर बैठकर जाने लगे तो दो घोड़े जुता वह तांगा अपने स्थान से रत्ती भर भी सरक नहीं सका. गाड़ीवान चाबुक फटकारता रहा, घोड़े जोर लगाते रहे. विक्रम सिंह ने पलटकर देखा तो स्वामी जी अपने एक हाथ से तांगे का एक पहिया थामे चुपचाप खड़े थे.

जोधपुर के महाराज ने स्वामी जी के आदेश पर भोग-विलासिता का जीवन त्याग दिया. इससे कभी महाराजा की प्रिय रही, नन्हीं जान नामक वेश्या स्वामी जी की शत्रु बन गई. उसने कलिया नामक रसोइये को लालच देकर स्वामी जी को विष दिलवा दिया. हालत बिगड़ गई. कलिया आत्मग्लानि से भर उठा. उसने मृत्यु शैय्या पर पड़े स्वामीजी से सच बताकर क्षमा मांगी. स्वामी जी ने उसे क्षमा किया और काफी सारा धन देकर उसे वहां से चलता कर दिया ताकि महाराजा के क्रोध से उसे बचाया जा सके.

स्वामी जी गोरक्षा के आग्रही थे. 1857 के बाद उन्होंने गोकरुणानिधि नामक पुस्तक लिखी. अपनी तीक्ष्ण व्यावहारिक बुद्धि का प्रयोग करते हुये उन्होंने गोवध बंद करवाने हेतु महारानी विक्टोरिया को पत्र भिजवाया था. भारत के इतिहास में स्वामी जी वे गोमुख हैं, जहां से क्रांतिकारियों और समाज सुधारकों का विशाल प्रवाह निकला है. देशवासियों को झकझोरते हुए स्वामी जी लिखते हैं, ‘हमने सुना है, पारस पत्थर नाम का कोई पत्थर होता है, जिसके स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है, परन्तु आज तक यह पत्थर किसी के देखने में नहीं आया. हमारा तो अनुमान यह है कि भारत देश ही वह पारस पत्थर है, जिसमें बाहर से जो भी दरिद्र विदेशी लोहा बनकर आये, वे यहां से सोना बनकर ही गये. यही कारण है कि जिन लोकमान्य तिलक को अंग्रेजों ने भारतीय असंतोष का जनक कहा उन लोकमान्य तिलक ने स्वामी जी को स्वराज्य का प्रथम संदेशवाहक कहा. वीर सुभाष ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता माना.
साभार पाञ्चजन्य

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