नई दिल्ली. गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री रामचरितमानस केवल भारत ही नहीं, विश्व भर के विद्वानों के लिए सदा प्रेरणास्रोत रही है. दुनिया की प्रायः सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है. अंग्रेजी में सर्वप्रथम इसका अनुवाद भारत में नियुक्त अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी एफएस ग्राउस ने किया था. ग्राउस का जन्म वर्ष 1836 ई. में विल्डेस्ट (इपस्विच) में एवर्ट ग्राउस के घर में हुआ था. इनकी पढ़ाई ऑक्सफोर्ड के ओरियल और क्वीन्स कॉलेज में हुई. एमए उत्तीर्ण करने के बाद वर्ष 1860 में इनका चयन बंगाल की सिविल सेवा में हो गया. सन् 1861 में इन्हें ‘एशियाटिक सोसायटी’ का सदस्य चुना गया. इस पद पर रहते हुए इनका परिचय भारतीय इतिहास, साहित्य एवं धर्मग्रन्थों से हुआ. इसके बाद तो ये धीरे-धीरे उन्हीं में रम गये.
ग्राउस का कार्यक्षेत्र मुख्यतः आगरा, मथुरा, मैनपुरी आदि रहा. इन सभी स्थानों पर उन्होंने भारतीय संस्कृति, कला और पुरातत्व का गहन अध्ययन किया. वर्ष 1878-79 में ‘एशियाटिक सोसायटी जनरल’ और ‘इंडियन ऐंटिक्वरी’ में मथुरा के बारे में लिखे इनके लेख बहुत प्रशंसित हुए. बाद में इन्हें ‘मथुरा, ए डिस्ट्रिक्ट मेमोयर’ के नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया. ब्रज की संस्कृति पर यह आज भी एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है.
एक अंग्रेज होते हुए भी उन्होंने भारत को कभी विदेशी शासक की दृष्टि से नहीं देखा. वे भारतीय भाषाओं के बड़े प्रेमी थे. वर्ष 1866 में जब एशियाटिक सोसायटी के एक अन्य वरिष्ठ सदस्य बीम्स न्यायालयों में उर्दू-फारसी मिश्रित भाषा के पक्ष में बहुत बोल और लिख रहे थे, तब ग्राउस ने शुद्ध हिन्दी का समर्थन किया. यद्यपि अंग्रेजों के षड्यन्त्र के कारण उनका यह प्रयास सफल नहीं हो सका. उनकी प्रशंसा में पंडित श्रीधर पाठक ने लिखा है.
अंग्रेजी अरु फरासीस भाषा कौ पंडित
संस्कृत हिन्दी रसिक विविध विद्यागुन मंडित
निज वानी में कीन्हीं तुलसीकृत रामायन
जासु अमी रस पियत आज अंगरेजी बुधगन
ग्राउस द्वारा मानस के अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना ‘एशियाटिक सोसायटी जनरल’ में वर्ष 1876 में तथा वर्ष 1877 में पश्चिमोत्तर शासन के सरकारी प्रेस से इसका पहला खंड (बालकांड) प्रकाशित हुआ. वर्ष 1880 तक मानस का पूरा अनुवाद छपते ही लोकप्रिय हो गया. इसका तीन रु. मूल्य वाला पांचवां संस्करण छोटे आकार में कानपुर से वर्ष 1881 में छपा. इसके आवरण पृष्ठ पर दोनों कोनों में ‘श्री’ तथा चारों ओर मानस की पंक्तियां लिखी थीं. इसका सचित्र संस्करण महाराज काशीराज के खर्च से मुद्रित हुआ.
मानस के इस अंग्रेजी अनुवाद का पहला खंड अर्थात बालकांड पद्य में, जबकि शेष सब गद्यरूप में है. इसमें उन्होंने मानस के मूल भाव और प्रवाह को निभाने का भरपूर प्रयास किया है. इससे उन्होंने दुनिया भर के अंग्रेजी भाषियों का बहुत कल्याण किया. लम्बे समय तक क्षयरोग से ग्रस्त रहने पर भी उनकी साहित्य साधना चलती रही. वर्ष 1891 में फतेहगढ़ में नियुक्ति के समय उन्होंने पेंशन स्वीकार कर ली और इंग्लैंड जाकर सर्रे में रहने लगे. वहीं 17 मई, 1893 को उनकी आत्मा श्रीराम के चरणों में लीन हो गयी. जिस श्रद्धाभाव से ग्राउस ने मानस का अनुवाद किया, वह प्रशंसनीय है. इनके देहांत का समाचार पाकर पंडित श्रीधर पाठक ने लिखा –
हाय गुरु, साहब ठाकुरजी मानन वारे
कहां गये तजि हमें, हमारे परम पियारे।।