नई दिल्ली. भारत में अंग्रेजी सत्ता के आने के साथ ही गांव-गांव में उनके विरुद्ध विद्रोह होने लगा था, पर व्यक्तिगत या बहुत छोटे स्तर पर होने के कारण संघर्षों को सफलता नहीं मिलती. अंग्रेजों के विरुद्ध पहला संगठित संग्राम सन् 1857 में हुआ. इसमें जिन वीरों ने अपने साहस से अंग्रेजी सेनानायकों के दांत खट्टे किये, उनमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम भी प्रमुख है.
19 नवम्बर, 1835 को वाराणसी में जन्मी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु था. प्यार से लोग उसे मणिकर्णिका तथा छबीली भी कहते थे. इनके पिता मोरोपन्त तांबे तथा मां भागीरथी बाई थीं. गुड़ियों से खेलने की अवस्था से ही मनु को घुड़सवारी, तीरन्दाजी, तलवार चलाना, युद्ध करना जैसे पुरुषोचित कामों में बहुत आनन्द आता था. नाना साहब पेशवा उसके बचपन के साथियों में थे.
उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन था. अतः सात वर्ष की अवस्था में ही मनु का विवाह झांसी के महाराजा गंगाधरराव से हो गया. विवाह के बाद वह लक्ष्मीबाई कहलायीं. उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा. जब वह 18 वर्ष की ही थीं, तब राजा का देहान्त हो गया. दुःख की बात यह भी थी कि वे तब तक निःसन्तान थे. युवावस्था के सुख देखने से पूर्व ही रानी विधवा हो गयीं.
उन दिनों अंग्रेज शासक ऐसी बिना वारिस की जागीरों तथा राज्यों को अपने कब्जे में कर लेते थे. इसी भय से राजा ने मृत्यु से पूर्व ब्रिटिश शासन तथा अपने राज्य के प्रमुख लोगों के सम्मुख दामोदर राव को दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया था, पर उनके परलोक सिधारते ही अंग्रेजों की लार टपकने लगी. उन्होंने दामोदर राव को मान्यता देने से मनाकर झांसी राज्य को ब्रिटिश शासन में मिलाने की घोषणा कर दी. यह सुनते ही लक्ष्मीबाई सिंहनी के समान गरज उठी – मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी.
अंग्रेजों ने रानी के ही एक सरदार सदाशिव को आगे कर विद्रोह करा दिया. उसने झांसी से 50 किमी. दूर स्थित करोरा किले पर अधिकार कर लिया, पर रानी ने उसे परास्त कर दिया. इसी बीच ओरछा का दीवान नत्थे खां झांसी पर चढ़ आया. उसके पास साठ हजार की सेना थी, पर रानी ने अपने शौर्य व पराक्रम से उसे भी दिन में तारे दिखा दिये.
इधर देश में जगह-जगह सेना में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गये. झांसी में स्थित सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों ने भी चुन-चुनकर अंग्रेज अधिकारियों को मारना शुरू कर दिया. रानी ने अब राज्य की बागडोर पूरी तरह अपने हाथ में ले ली, पर अंग्रेज उधर नयी गोटियां बैठा रहे थे. जनरल ह्यू रोज ने एक बड़ी सेना लेकर झांसी पर हमला कर दिया. रानी दामोदर राव को पीठ पर बांधकर 22 मार्च, 1858 को युद्धक्षेत्र में उतर गयी. आठ दिन तक युद्ध चलता रहा, पर अंग्रेज आगे नहीं बढ़ सके. नौवें दिन अपने बीस हजार सैनिकों के साथ तात्या टोपे रानी की सहायता को आ गये, पर अंग्रेजों ने भी नयी कुमुक मंगा ली. रानी पीछे हटकर कालपी जा पहुंची. कालपी से वह ग्वालियर आयीं. वहां 17 जून, 1858 को ब्रिगेडियर स्मिथ के साथ हुए युद्ध में उन्होंने वीरगति पायी. रानी के विश्वासपात्र बाबा गंगादास ने उनका शव अपनी झोंपड़ी में रखकर आग लगा दी. रानी केवल 22 वर्ष और सात महीने ही जीवित रहीं. सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘‘खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी…..’’ गाकर उन्हें सदा याद किया जाता रहेगा.