20 अक्तूबर 1962 चीन और भारत बूम ला मोर्चे पर आमने सामने आ गए. चीनी फौजें तवांग की ओर बढ़ रही थीं. चीनी फौज की पूरी डिवीजन के सामने भारत की केवल 1 सिख कम्पनी थी. कम्पनी का नेतृत्व सूबेदार जोगिन्दर सिंह कर रहे थे. सूबेदार जोगिन्दर सिंह रिज नामक स्थान के पास नेफा (उत्तर-पूर्व सीमांत प्रदेश) में अपनी टुकड़ी के साथ तैनात थे.
सुबह साढ़े पांच बजे चीन की फौजों ने बूम ला पर धावा बोल दिया. उनका इरादा तवांग तक पहुंचने का था. दुश्मन की फौज ने तीन बार इस मोर्चे पर हमला किया. पहला हमला सूबेदार जोगिंदर सिंह की कम्पनी बहादुरी से झेल गई, और चीन को कामयाबी नहीं मिली. उसका काफी नुकसान हुआ, और उसे रुकना पड़ा.
कुछ ही देर बाद दुश्मन ने फिर धावा बोला. उसका भी सामना जोगिन्दर सिंह ने बहादुरी से किया. ‘जो बोले सो निहाल…’ का नारा लगाते और दुश्मन के हौसले पस्त कर देते. लेकिन दूसरा हमला जोगिन्दर सिंह की आधी फौज साफ कर गया. सूबेदार जोगिन्दर सिंह खुद भी घायल थे. उनकी जांघ में गोली लगी थी, फिर भी उन्होंने रण क्षेत्र छोड़ने से मना कर दिया. उनके नेतृत्व में उनकी टुकड़ी भी पूरे हौसले के साथ जमी हुई थी.
तभी दुश्मन की ओर से तीसरा हमला किया गया. अब तो सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने स्वयं मशीनगन लेकर गोलियां दागनी शुरू कर दीं. चीन की फौज का भी इस हमले में काफ़ी नुकसान हो चुका था, लेकिन वह लगातार बढ़ते जा रहे थे. जोगिंदर सिंह के पास गोलियां समाप्त हो गईं, तो उन्हें पीछे हटने को कहा गया. लेकिन सूबेदार और उनके बचे हुए सैनिक अपनी बंदूक में लगी संगीन हाथ में लेकर दुश्मन पर टूट पड़े और आगे बढ़ रहे दुश्मन का डटकर सामना किया. सूबेदार घायल हो गये और युद्धबंदी बना लिये गये. बाद में दुश्मन की हिरासत में ही सूबेदार जोगिंदर सिंह बलिदान हो गए.