
31 अक्तूबर 1984 को देश की तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उन्हीं की सुरक्षा में नियुक्त दो पुलिस कर्मचारियों (एक सब इंस्पेक्टर व एक सिपाही) ने प्रधानमंत्री आवास पर ही कर दी. किसी भी देश में प्रधानमंत्री व उसका निवास सबसे सुरक्षित स्थान होता है. जो भी व्यक्ति सेना, अर्धसैनिक दस्ते या पुलिस की वर्दी पहनता है, वह केवल देश के कानून व नागरिकों की सुरक्षा तक ही समर्पित होता है. उसका व्यक्तिगत धर्म/जाति का बंधन उसे अपनी ड्यूटी निर्पेक्षता से करने में रुकावट नहीं होना चाहिए. यदि सुरक्षा कर्मचारी अनुशासन की अवहेलना करे व रखवाले बनने की जगह कातिल, हत्यारे बन जाएं, तब जरूर कुछ बड़े मानसिक कारणों की संभावना होती है.
इंदिरा गांधी जी पर हमला 31 अक्तूबर 1984 को सुबह तकरीबन 9:20 पर हुआ. तुरंत उन्हें ‘ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस’ दिल्ली में ले जाया गया. जहां डॉक्टरों ने 10:50 पर उन्हें मृत घोषित कर दिया. 11:00 बजे प्रातः ऑल इंडिया रेडियो प्रधानमंत्री जी को उन्हीं के दो सिक्ख शस्त्रधारी अंगरक्षकों द्वारा कत्ल करने की घोषणा करता है. साधारणत: ‘ग्रेव एंड सडन प्रोवोकेशन’ जो जुर्म की गंभीरता को नहीं, बल्कि सजा को कम करने की प्रक्रिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि दोषी की भावनाओं को ठेस पहुंची तो उसने जुर्म कर दिया. पर, दिल्ली सिक्ख कत्लेआम की कहानी तो कुछ अलग ही है.
भावनाएं तो कुछ मिनटों के बाद ही शांत हो जाती हैं. परंतु दिल्ली में सिक्खों का कत्लेआम कुछ मिनटों बाद नहीं, बल्कि कई घंटों की विचार मंथन से उत्पन्न हुई घटना प्रतीत होता है. राजीव गांधी शाम 4:00 बजे वापस एम्स पहुंचते हैं. पहली पत्थरबाजी की घटना शाम 5:30 बजे तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी के एम्स पहुंचने पर होती है. रात में अकबर रोड दिल्ली के एक बंगले पर ऐसे कुछ मुख्य लोग इकट्ठे होते हैं, जिनमें से अधिकतर पर सिक्ख कत्लेआम करवाने का दोष आज भी लगाया जाता है.
01 नवंबर 1984 को सुबह केवल दिल्ली ही नहीं भारत के कई राज्यों में सिक्खों का नरसंहार आरंभ होता है. जिन्होंने प्रधानमंत्री जी की हत्या की थी. उनमें से एक को तो गिरफ्तार कर लिया गया व दूसरे को मौके पर ही मार गिराया गया. परंतु नरसंहार उन हजारों निर्दोष सिक्खों का हुआ, जिनका कोई जुर्म ही नहीं था.
निर्दोष सिक्खों का बर्बरता से नरसंहार किया गया, सरेराह गले में टायर डालकर उन्हें जलाया गया, सामूहिक कत्ल किए गए, बलात्कार किए गए, लूट की गई और गुरुद्वारों को तोड़ दिया गया. अच्छे भले लोग भी ‘खून का बदला खून’, ‘खून के छींटे सिक्खों के घर तक पहुंचने चाहिए’ और ‘जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है’ की बातें करने लगे. 03 नवंबर तक देश की पुलिस, फौज और अदालतें खामोश रहीं, इंसानियत उनके ह्रदय में नहीं जागी. सरकारी आंकड़ों के अनुसार इन 3 दिनों में करीब 2800 सिक्ख दिल्ली में और 3350 सिक्ख भारत के दूसरे राज्यों में कत्लेआम की भेंट चढ़े. लूट खसोट और नुकसान का तो कोई हिसाब ही नहीं. सरकारी तंत्र चाहे अराजकता की तस्वीर बना रहा, परंतु आम आदमी के ह्रदय में इंसानियत जरूर कचोटती रही. उन्होंने मजलूमों को अपनी छाती से लगाकर, अपने घर में छिपाकर भी रखा, कई जगह बचाने वाले भी भीड़ तंत्र के शिकार बने और यह भले लोग शरणार्थी कैंपों में भी उनका सहारा बने. ये हमला एक धर्म को मानने वालों के द्वारा दूसरे पंथ पर नहीं था, बल्कि बदला लेने की नीयत से अपराधियों और राजनीतिक दल के नापाक गठबंधन का घिनौना कृत्य था.
इस कत्लेआम की पड़ताल तो क्या होनी थी, पुलिस ने कोई मुकदमा भी दर्ज नहीं किया और न ही किसी अदालत ने कानून के पालन हेतु, स्वयं ही कोई कार्रवाई की. दुनिया भर में बदनामी के दाग से बचने हेतु तात्कालिक सरकार ने नवंबर 1984 में एक एडिशनल कमिश्नर पुलिस वेद मरवाह की अध्यक्षता में कमेटी बनाई. जिसे 1985 में बंद कर दिया गया. उस रिपोर्ट का भी कुछ पता नहीं. अगला कमीशन जस्टिस रंगनाथ मिश्रा का बना. जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने कहा कि दोषियों की शिनाख्त करनी उसकी जिम्मेदारी का हिस्सा ही नहीं थी. इसी क्रम में अब तक 10 से अधिक कमीशन और कमेटियां बन चुकी हैं. परंतु पूर्ण इंसाफ की प्रक्रिया अभी देश की राजधानी दिल्ली में ही अधूरी है. देश के अन्य राज्यों में 35 साल पूरे होने के बाद भी सरकार इंसाफ की निष्पक्ष जांच, मुआवजा व दोषियों को सजा दिलाने हेतु पूरी तरह सजग नहीं है.
सन् 1993 में मदन लाल खुराना जी की तरफ से बनाई गई ‘जस्टिस नरूला कमेटी’ को भी उस समय की केंद्र सरकार ने मान्यता नहीं दी थी. पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेई जी की सरकार ने सन् 2000 में ‘जस्टिस जी. टी. नानावती कमीशन’ का गठन करके इस नरसंहार की जांच को आगे बढ़ाया. जो आज भी कभी तेज ओर कभी धीमी गति से चल रही है.
बेगुनाह लोगों के कत्लेआम, लूटमार और औरतों के साथ बलात्कार करने वाले दोषियों को सजा करवाने की प्रक्रिया यदि 35 साल में पूरी नहीं हो सकी तो लगता है कि पूरी न्यायिक प्रक्रिया की भी जांच आवश्यक है.
आज जब सारा विश्व और विशेषकर भारत सरकार श्री गुरु नानक देव जी का 550 साला प्रकाश उत्सव मना रही है. प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी की तरफ से सिक्ख भाईचारे के हरे जख्मों पर मरहम लगाने का प्रयास हो रहा है. तो अच्छा हो, कि समय निश्चित करके 1984 के अपराधियों को सजा दिलवाने के कार्य को भी प्रमुखता से किया जाए.
स. इकबाल सिंह लालपुरा
(लेखक पंजाब पुलिस से सेवानिवृत्त डीआईजी हैं)