नई दिल्ली. यह इतिहास की विडम्बना है कि अनेक क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता के युद्ध में सर्वस्व अर्पण करने के बाद भी अज्ञात या अल्पज्ञात ही रहे. ऐसे ही एक क्रान्तिवीर बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर, 1910 को ग्राम ओएरी खंडा घोष (जिला बर्दमान, बंगाल) में गोष्ठा बिहारी दत्त के घर में हुआ था. वे एक दवा कंपनी में काम करते थे, जो बाद में कानपुर (उ.प्र.) में रहने लगे. इसलिए बटुकेश्वर दत्त की प्रारम्भिक शिक्षा पीपीएन हाईस्कूल कानपुर में हुई. उन्होंने अपने मित्रों के साथ ‘कानपुर जिमनास्टिक क्लब’ की स्थापना भी की थी. उन दिनों कानपुर क्रान्तिकारियों का एक बड़ा केन्द्र था. बटुकेश्वर अपने मित्रों में मोहन के नाम से प्रसिद्ध थे. भगतसिंह के साथ 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली के संसद भवन में बम फेंकने के बाद वे चाहते, तो भाग सकते थे, पर क्रान्तिकारी दल के निर्णय के अनुसार दोनों ने गिरफ्तारी दी.
छह जून, 1929 को न्यायालय में दोनों ने एक लिखित वक्तव्य दिया, जिसमें क्रान्तिकारी दल की कल्पना, इन्कलाब जिन्दाबाद का अर्थ तथा देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की बातें कही गयी थीं 25 जुलाई, 1929 को उन्होंने गृहमन्त्री के नाम एक पत्र भी लिखा, जिसमें जेल में राजनीतिक बन्दियों पर हो रहे अत्याचार एवं उनके अधिकारों की चर्चा की गयी है. उन्होंने अन्य साथियों के साथ इस विषय पर 114 दिन तक भूख हड़ताल भी की. भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी घोषित हुई, जबकि दत्त को आजीवन कारावास. इस पर भगतसिंह ने उन्हें एक पत्र लिखा. उसमें कहा गया कि हम तो मर जायेंगे, पर तुम जीवित रहकर दिखा दो कि क्रान्तिकारी जैसे हंस कर फांसी चढ़ता है, वैसे ही वह अपने आदर्शों के लिए हंसते हुए जेल की अन्धकारपूर्ण कोठरियों में यातनाएं और उत्पीड़न भी सह सकता है.
23 मार्च, 1931 को लाहौर जेल में भगतसिंह आदि को फांसी हुई और बटुकेश्वर दत्त को पहले अंदमान और फिर वर्ष 1938 में पटना जेल में रखा गया. जेल में वे क्षय रोग तथा पेट दर्द से पीड़ित हो गये. आठ सितम्बर, 1938 को वे कुछ शर्तों के साथ रिहा किये गये, पर वर्ष 1942 में फिर भारत छोड़ो आंदोलन में जेल चले गये. वर्ष 1945 में वे पटना में अपने बड़े भाई के घर में नजरबंद किये गये. वर्ष 1947 में हजारीबाग जेल से मुक्त होकर वे पटना में ही रहने लगे. इतनी लम्बी जेल के बाद भी उनका उत्साह जीवित था. 36 वर्ष की अवस्था में उन्होंने आसनसोल में सादगीपूर्ण रीति से अंजलि दत्त से विवाह किया. भगत सिंह की मां विद्यावती जी उन्हें अपना दूसरा बेटा मानती थीं.
पटना में बटुकेश्वर दत्त को बहुत आर्थिक कठिनाई झेलनी पड़ी. उन्होंने एक सिगरेट कंपनी के एजेंट की तथा पत्नी ने एक विद्यालय में 100 रुपये मासिक पर नौकरी की. वर्ष 1963 में कुछ समय के लिए वे विधान परिषद में मनोनीत किये गये, पर वहां उन्हें काफी विरोध सहना पड़ा. उनका मन राजनीति के अनुकूल नहीं बना था. वर्ष 1964 में स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर पहले पटना के सरकारी अस्पताल और फिर दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में उनका इलाज हुआ. उन्होंने बड़ी वेदना से कहा कि जिस दिल्ली की संसद में मैंने बम फेंका था, वहां मुझे स्ट्रेचर पर आना पड़ेगा, यह कभी सोचा भी नहीं था.
बीमारी में मां विद्यावती जी उनकी सेवा में लगी रहीं. राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और उनके कई पुराने साथी उनसे मिले. 20 जुलाई, 1965 की रात में दो बजे इस क्रान्तिवीर ने शरीर छोड़ दिया. उनका अन्तिम संस्कार वहीं हुआ, जहां भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के शव जलाये गये थे. अपने मित्रों और माता विद्यावती के साथ बटुकेश्वर दत्त आज भी वहां शान्त सो रहे हैं.