नई दिल्ली. 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय दिल्ली में जिस वीर महिला ने अपने साहस, संगठन क्षमता एवं अथक परिश्रम से चूल्हे-चौके तक सीमित रहने वाली घरेलू महिलाओं को सड़क पर लाकर ब्रिटिश शासन को हैरान कर दिया, उनका नाम था बहन सत्यवती. सत्यवती का जन्म अपने ननिहाल ग्राम तलवन (जिला जालंधर, पंजाब) में 26 जनवरी, 1906 को हुआ था. स्वाधीनता सेनानी एवं परावर्तन के अग्रदूत स्वामी श्रद्धानंद जी उनके नाना थे. उनकी माता श्रीमती वेदवती धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में सक्रिय थीं. इस प्रकार साहस एवं देशभक्ति के संस्कार उन्हें अपने परिवार से ही मिले. विवाह के बाद वे दिल्ली में रहने लगीं.
उनका विवाह दिल्ली क्लॉथ मिल में कार्यरत एक अधिकारी से हुआ, जिससे उन्हें एक पुत्र एवं पुत्री की प्राप्ति हुई. अपने पति से उन्हें दिल्ली के उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों की दुर्दशा की जानकारी मिली. इससे उनका मातृत्व जाग उठा. वे श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए मैदान में कूद पड़ीं. इस प्रकार उन्होंने 1936-37 में दिल्ली में श्रमिक आंदोलन को एक नयी दिशा दी.
उनके उग्र भाषणों से घबराकर शासन ने उन पर कई प्रतिबंध लगाये, पर वे पुलिस को चकमा देकर निर्धारित स्थान पर पहुंच जाती थीं. इससे दिल्ली की महिलाओं तथा युवाओं में उनकी विशेष पहचान बन गयी. हिन्दू कॉलेज एवं इन्द्रप्रस्थ कन्या विद्यालय के छात्र-छात्राएं तो उनके एक आह्वान पर सड़क पर आ जाते थे. उन्होंने ‘कांग्रेस महिला समाज’ एवं ‘कांग्रेस देश सेविका दल’ की स्थापना की. वे ‘कांग्रेस समाजवादी दल’ की भी संस्थापक सदस्य थीं.
नमक सत्याग्रह के समय उन्होंने शाहदरा के एक खाली मैदान में कई दिन तक नमक बनाकर लोगों को निःशुल्क बांटा. कश्मीरी गेट रजिस्ट्रार कार्यालय पर उन्होंने महिलाओं के साथ विशाल जुलूस निकाला. इस पर शासन ने उन्हें गिरफ्तार कर अच्छे आचरण का लिखित आश्वासन एवं 5,000 रु0 का मुचलका मांगा, पर बहन सत्यवती ने ऐसा करने से मना कर दिया. परिणाम यह हुआ कि उन्हें छह महीने के लिए कारावास में भेज दिया गया.
उनके नेतृत्व में ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ का भी दिल्ली में बहुत प्रभाव हुआ, पर बार-बार की जेल यात्राओं से जहां एक ओर वे तपेदिक से ग्रस्त हो गयीं, वहां दूसरी ओर वे अपने परिवार और बच्चों की देखभाल भी ठीक से नहीं कर सकीं. उनकी बेटी ने दस वर्ष की अल्पायु में ही प्राण त्याग दिये. शासन ने पुत्री के अंतिम संस्कार के लिए भी उन्हें जेल से नहीं छोड़ा.
सन् 1942 के आंदोलन के समय बीमार होते हुए भी उन्होंने चांदनी चौक की गलियों में घूम-घूमकर महिलाओं के जत्थे तैयार किये और उन्हें स्वाधीनता के संघर्ष में कूदने को प्रेरित किया. शासन ने उन्हें गिरफ्तार कर अम्बाला जेल में बंद कर दिया. वहां उनकी देखभाल न होने से उनका रोग बहुत बढ़ गया. इस पर शासन ने उन्हें टी.बी चिकित्सालय में भर्ती करा दिया. जब वे जेल से छूटीं, तब तक आंदोलन ठंडा पड़ चुका था. लोगों की निराशा दूर करने के लिए उन्होंने महिलाओं एवं सत्याग्रहियों से संपर्क जारी रखा. यह देखकर शासन ने उन्हें घर पर ही नजरबंद कर दिया. रोग बढ़ जाने पर उन्हें दिल्ली के ही एक अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां 21 अक्तूबर, 1945 को उनका देहांत हो गया. उनकी स्मृति को चिरस्थायी रखने के लिए दिल्ली में “सत्यवती कॉलेज” की स्थापना की गयी है.