नई दिल्ली. राजस्थान के रेगिस्तानों में बसी मांगणियार जाति को निर्धन एवं अविकसित होने के कारण पिछड़ा एवं दलित माना जाता है. इसके बाद भी वहां के लोक कलाकारों ने अपने गायन से विश्व में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है. पुरुषों में तो ऐसे कई गायक हुए हैं, पर विश्व भर में प्रसिद्ध हुई पहली मांगणियार गायिका रुकमा देवी को ‘थार की लता’ कहा जाता है.
रुकमा देवी का जन्म वर्ष 1945 में बाड़मेर के पास छोटे से गांव जाणकी में लोकगायक बसरा खान के घर में हुआ था. निर्धन एवं अशिक्षित रुकमा देवी बचपन से ही दोनों पैरों से विकलांग भी थीं, पर उन्होंने इस शारीरिक दुर्बलता को कभी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया. उनकी मां आसी देवी और दादी अकला देवी अविभाजित भारत के थार क्षेत्र की प्रख्यात लोक गायिका थीं. इस प्रकार लोक संस्कृति और लोक गायिकी की विरासत उन्हें घुट्टी में ही मिली. कुछ बड़े होने पर उन्होंने अपनी मां से इस कला की बारीकियां सीखीं. उन्होंने धीरे-धीरे हजारों लोकगीत याद कर लिये. परम्परागत शैली के साथ ही गीत के बीच-बीच में खटके और मुरके का प्रयोग कर उन्होंने अपनी मौलिक शैली भी विकसित कर ली.
कुछ ही समय में उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी. ‘केसरिया बालम आओ नी, पधारो म्हारे देस’ राजस्थान का एक प्रसिद्ध लोकगीत है. ढोल की थाप पर जब रुकमा देवी इसे अपने दमदार और सुरीले स्वर में गातीं, तो श्रोता झूमने लगते थे. मांगणियार समाज में महिलाओं पर अनेक प्रतिबंध रहते थे, पर रुकमादेवी ने उनकी चिन्ता न करते हुए अपनी राह स्वयं बनाई. यों तो रुकमादेवी के परिवार में सभी लोग लोकगायक थे, पर रुकमादेवी थार क्षेत्र की वह पहली महिला गायक थीं, जिन्होंने भारत से बाहर लगभग 40 देशों में जाकर अपनी मांड गायन कला का प्रदर्शन किया. उन्होंने भारत ही नहीं, तो विदेश के कई कलाकारों को भी यह कला सिखाई.
रुकमा को देश और विदेश में मान, सम्मान और पुरस्कार तो खूब मिले, पर सरल स्वभाव की अशिक्षित महिला होने के कारण वे अपनी लोककला से इतना धन नहीं कमा सकीं, जिससे उनका घर-परिवार ठीक से चल सके. उन्होंने महंगी टैक्सी, कार और वायुयानों में यात्रा की, बड़े-बड़े वातानुकूलित होटलों में ठहरीं, पर अपनी कला को ठीक से बेचने की कला नहीं सीख सकीं. इस कारण जीवन के अंतिम दिन उन्होंने बाड़मेर से 65 कि.मी दूर स्थित रामसर गांव में फूस से बनी दरवाजे रहित एक कच्ची झोंपड़ी में बिताये. आस्टेलिया निवासी लोक गायिका सेरडा मेजी ने दस दिन तक उनके साथ उसी झोंपड़ी में रहकर यह मांड गायिकी सीखी. इसके बाद दोनों ने जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में इसकी जुगलबंदी का प्रदर्शन किया. वृद्ध होने पर भी रुकमा देवी के उत्साह और गले के माधुर्य में कोई कमी नहीं आयी थी.
गीत और संगीत की पुजारी रुकमा देवी ने अपने जीवन के 50 वर्ष इस साधना में ही गुजारे. 21 जुलाई, 2011 को 66 वर्ष की आयु में उनका देहांत हुआ. जीवन के अंतिम पड़ाव पर उन्हें इस बात का दुःख था कि उनकी मृत्यु के बाद यह कला कहीं समाप्त न हो जाए, पर अब इस विरासत को उनकी छोटी बहू हनीफा आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही है.